सोमवार, फ़रवरी 27, 2017

इंटरव्यू

काव्य मंच पर महिलाओं की उपस्थिति

शर्मसार करती मानसिकता हावी

वरिष्ठ शायरा डॉ नसीम निक़हत से गुफ़्तगू पर आधारित लेख

Dr. Naseem Nikhat. image source - google

भारतीय समाज (धर्म, संप्रदाय, जाति के दायरे में न समझें) के बाहर भी, विश्व के लगभग प्रत्येक समाज में ऐसा इतिहास मिलता है कि किसी विशिष्ट कालखण्ड में नारियों की स्थिति आदर्श रही, किन्तु हर काल में ऐसा सम्भव नहीं हुआ। वर्तमान में, भारत के साथ ही विश्व के अनेक समाजों में नारियों के सम्मान, अधिकारों, सुरक्षा तथा अवसरों आदि के सम्बन्ध में सशक्तिकरण की मांग उठती रहती है। इस प्रकार की मांग का उठना ही सिद्ध करता है कि नारी को हाशिये पर धकेला जा चुका है। पुरुष प्रधान समाज में नारी एक उपभोग की वस्तु की भांति ही अस्तित्व में दिखायी देती है।

नारी को एक भोग मात्र समझने की मानसिकता के प्रमाण हमें दैनिक जीवन में लगातार मिलते रहते हैं। भारत में, बलात्कार, महिलाओं के उत्पीडऩ एवं शोषण के समाचार आएदिन की बात हो चले हैं। भ्रूण से लेकर वृद्धा, महिला किसी भी अवस्था में किसी प्रकार पूर्णत: सुरक्षित नहीं है। सरकारी योजनाओं की बाढ़, शिक्षा के कथित वैश्विक आयामों को स्पर्श करने, प्रगतिशीलता का ढिंढोरा पीटने के बावजूद महिलाओं के प्रति असम्वेदनशीलता का वातावरण निरन्तर कायम है। यहां तक कि, पढ़े-लिखे, सभ्य कहे जाने वाले परिवारों से ऐसे समाचार मिलते रहते हैं जो हमारे असभ्य एवं असम्वेदनशील होने को प्रमाणित करते हैं। देश की प्रसिद्ध कवयित्री डॉ. नसीम निकहत का कहना है कि जब उनका जन्म हुआ था, तब कन्या जन्मने के कारण उनके पिता घंटों रोये थे। इतना ही नहीं, उनके पिता ने एक तरह से उनके बचपन को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया था। अफसोस की बात यह है कि तकरीबन ६० साल बाद भी हम इस स्थिति से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सके हैं।

एक अन्य विडम्बना यह है कि हम समाज के तौर पर दोहरा चरित्र रखते हैं। मैं एक ऐसे स्वनामधन्य पत्रकार को जानता हूं जो कन्या बचाओ आंदोलन से जुड़े काम करता है और उस कार्य से शासकीय योजनाओं व सम्बन्धों के लाभ लेता है लेकिन अपनी पत्नी को शारीरिक रूप से प्रताडि़त करता है। कमोबेश यह स्थिति बहुत से परिवारों में होगी। यह हास्यास्पद स्थिति है। मंचों से महिलाओं के सशक्तिकरण की वकालत की तोता रटन्त किसका भला कर सकेगी? समाज की सांस्कृतिक एवं साभ्यतिक चेतना के मंच होते हैं कला एवं साहित्य। इधर, साहित्यिक मंचों की ओर चलें तो कवि सम्मेलनों और मुशायरों में महिला कवियों की क्या स्थिति है, इस सच्चाई से रूबरू होते ही पुरुष और पुरुष प्रधान समाज पर शर्म आने लगती है।

यहां कविता मंच शब्द का प्रयोग करते हैं जो कवि सम्मेलनों और मुशायरों दोनों को साथ लेकर चलेगा। एक मुशायरे में शिरकत करने भोपाल पधारीं लखनऊ निवासी शायरा डॉ. नसीम निकहत ने मेरे साथ एक अंतरंग और बेलाग बातचीत में पुरज़ोर ढंग से इस स्थिति को उठाया और विरोध भी किया। उन्होंने कहा कि कविता मंच सजाने वाले आयोजक अक्सर मांग करते हैं कि शायरा खूबसूरत हो और कम उम्र की हो। इसके साथ ही, वह तरन्नुम पर पकड़ रखती हो यानी वह कविता को बेहतरीन ढंग से गा सके।

आयोजकों की यह मांग क्या दर्शाती है? यह समझाने की ज़रूरत नहीं। नारी को उपभोग की वस्तु मानने की मानसिकता का सशक्त विरोध करने का एक मंच साहित्य भी है। परन्तु, जब साहित्य के मंच पर ही इस तरह की मानसिकता हावी हो तब? यह पूरे अदब के मुंह पर तमाचा नहीं है? यह समाज की ओछी दृष्टि का भी प्रमाण है। और तो और, हद तो तब हो जाती है, जब ऐसे कविता मंचों का संचालन करने वाले महिला कवि के कविता पाठ के समय अभद्र या अश्लील टिप्पणियां करते हैं, फिर चाहे वह कुमार विश्वास हों या अंजुम बाराबांकवी। गैर ज़रूरी और हल्की जुमलेबाज़ी से महिला के प्रति पुरुषों की घटिया सोच से सभा का वातावरण तो दूषित होता ही है, कविता भी स्तरहीन होती है। आश्चर्य तब होता है, जब ऐसे मंचों पर अध्यक्ष के रूप में उपस्थित देश के प्रतिष्ठित साहित्यिक व्यक्तित्व भी ऐसे संचालन का विरोध नहीं करते। पहले-पहल यह विरोध दर्ज कराया जाता था परन्तु, अब इसे कविता मंच की सफलता हेतु अनिवार्य मान लिये जाने के कारण मौन स्वीकृति दे दी जाती है। यह परिपाटी उचित है?

इसी संदर्भ में मराठी व हिन्दी भाषाओं में सृजनशील कवयित्री अलकनंदा साने की कविता एक और तार छेड़ती है जो इस विमर्श में नारी या कवयित्री के मन की वेदना को आवाज़ देती है। देखें -

कवयित्री के लिए/आसान नहीं होता
किसी कवि सम्मेलन में/हिस्सेदारी करना

वह एक समय का खाना बनाकर/और दो समय का
इंतजाम कर जाती है/कविता पाठ के लिए.

बेशक अच्छा लिखती है वह/पर कवयित्री की बुरी कविता भी/बटोर लेती है दाद कभी-कभी

अधिक दाद देने के लिए/कुछ उससे हाथ मिलाते हैं
और जब वह उतरती है/मंच से नीचे/सेल्फी के बहाने
सटकर खड़े हो जाते हैं.

कवयित्री घर से निकलकर/घर पहुँचने तक
एक बार भी नहीं भूलती/कि कवयित्री कहलाने के लिए
कवित्व से ज्यादा जरुरी होता है/उसके भीतर का  स्त्रीत्व.

डॉ. निकहत एक और पहलू पर रोशनी डालती हैं। वह कहती हैं कि कुछ समय पहले अमरीका से एक शायरा हमारे देश में आयीं और साहित्यिक सभाओं में शिरकत करने के बाद यह बोलकर गयीं कि भारत में कोई उल्लेखनीय शायरा नहीं है। वह कहती हैं कि ऐसे वक्तव्यों से देश की छवि धूमिल होती है और इसका कारण सिर्फ उन अकादमियों और आयोजकों की कम समझ या भ्रष्ट सोच है जो सम्बन्धों या किसी और कारण से अपात्र कवियों को बड़े मंच प्रदान कर देते हैं। इस बयान को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। प्रचार, प्रसार और प्रकाशन के इस दौर में यह आंकलन कर पाना एक जटिल समस्या बन गयी है कि कौन किस मंच के योग्य है, किसी मंच के योग्य है भी या नहीं। ऐसे में प्रतिष्ठित संस्थाओं, अकादमियों और आयोजकों को अधिक सचेत रहने की ज़रूरत है ताकि योग्य कवि को उचित स्थान मिल सके और देश का साहित्यिक वातावरण उज्ज्वल रह सके।

डॉ. निकहत ने बातचीत करते हुए खास तौर से उर्दू की कवयित्रियों की स्थिति को लेकर एक और ज़रूरी तथ्य को इंगित किया। भारत और पाकिस्तान की कवयित्रियों की स्थिति के तुलनात्मक विश्लेषण को लेकर उन्होंने कहा कि पाकिस्तान में, पहली बात तो यह है कि वहां उर्दू के हवाले से सरकारी और प्राइवेट नौकरियां मिलना अधिक आसान है। वहां की कुछ प्रमुख शायराएं भी अच्छे पदों पर आसीन रही हैं। यहां यह स्थिति कठिन है। दूसरी बात यह है कि पाकिस्तान में अदबी यानी साहित्यिक वातावरण अलग है। वहां पुरुष शायर महिला शायरों को प्रोत्साहित करते हैं, आगे बढ़ाने के लिए प्रयास करते हैं और उनकी कविताओं पर सारगर्भित लेखन करते हैं, जबकि, हमारे देश में ऐसा माहौल नहीं है। यहां किसी कवयित्री को स्थापित होने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, समझौते करना पड़ते हैं और पुरुष शायर कई बार उन्हें पीछे धकेलने का प्रयास करते हैं।

चर्चित एवं सराहे गये काव्य संग्रहों की रचनाकार तथा मुशायरे की कामयाबी की सनद मानी जाने वाली शायरा डॉ. निकहत जब यह बयान करती हैं, तो इसके मायने क्या हैं? वह यह भी कहती हैं कि वह कविता की यात्रा में शायद भाग्यशाली रहीं कि उन्हें देश-विदेश के प्रतिष्ठित शायरों का आशीर्वाद मिला और कुछ कामयाबी भी। लेकिन, उनकी चिन्ता यह है कि बिना समझौते किये सबके लिए यह स्थिति नहीं है। एक वाकया साझा करते हुए कहती हैं कि शुरुआती समय में प्रोफेसर मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद ने मुशायरों में उन्हें लगभग नकार देने की भरपूर कोशिश की, लेकिन कठिन संघर्ष के बाद उन्होंने अपना मुकाम बनाया। अपनी सफलता का कारण वह अपने स्वभाव में कुछ कर गुज़रने की जि़द और चुनौतियों को स्वीकार करने की प्रवृत्ति को मानती हैं।

एक अन्य दिलचस्प पहलू छेड़ते हुए डॉ. निकहत यह भी कहती हैं कि प्रतिष्ठित शायरों द्वारा उन्हें मिसरे पर शेर कहने का रियाज़ कराया गया अर्थात् एक पंक्ति देकर, उसे पूरा शेर बनाने का अभ्यास। इस गिरहबन्दी से उनकी शायरी में निखार आया और वह बारीकी व गहराई से शायरी को जी सकीं। यहां यह उल्लेख भी करती हैं कि सार्थक शायरी पर ही उनका ध्यान रहा न कि गला साफ करने या संगीतकारों की मदद से धुनें तैयार करने पर।

डॉ. निकहत के पूरे बयान के बाद निष्कर्षत: कुछ बातें कही जा सकती हैं। प्रथमत: तो यह कि हमारे देश के कई हिस्सों में साहित्यिक वातावरण स्वस्थ नहीं है, विशेषकर महिलाओं के लिए तो स्थिति अधिक चिन्तनीय है। फिर यह कि महिलाओं को अन्य क्षेत्रों की तरह साहित्य के क्षेत्र में भी पहचान बनाने के लिए कई तरह के असंगत समझौते करना पड़ते हैं। और यह भी कि प्रतिष्ठित संस्थाएं, अकादमियां और आयोजक अपने दायित्व के निर्वहन में शुचिता एवं उद्देश्यपरकता दर्शा पाने में सफल नहीं हैं। यानी, सम्पूर्ण परिदृश्य पुरुष मानसिकता के उस सिरे पर परिवर्तन की मांग करता है जो महिलाओं के प्रति अन्यायी, पक्षपाती, असम्वेदनशील एवं अभद्र है। परिवर्तन होगा या नहीं, हो सकता है या नहीं, लेकिन होना अवश्य चाहिए।

(साहित्य सागर के 2016 अंक में प्रकाशित लेख का संशोधित संस्करण)

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