रविवार, फ़रवरी 26, 2017

यात्रा

कहां हो मिर्ज़ा? तलाश का सफ़र


ग़ालिब की वॉल पेंटिंग - छायांकन: आकांक्षा

ग़ालिब स्मारक में मैं - छायांकन: आकांक्षा

बल्लीमारान के मुहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां/
सामने टाल के नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे/
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद वो वाह-वाह/ चंद दरवाज़े पे लटके हुए बोसीदा से टाट के परदे/
एक बकरी के मिमियाने की आवाज़/और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अंधेरे/
ऐसे दीवारों से मुंह जोड़ कर चलते हैं यहां/चूड़ीवालान के कटरे की बड़ी बी जैसे/
अपनी बुझती हुई आंखों से दरवाज़े टटोले/इसी बेनूर अंधेरी सी गली क़ासिम से/
एक तरतीब चरागों की शुरू होती है/कुरआन-ए-सुखन का सफहा खुलता है/
मिर्ज़ा असदउल्ला खां ग़ालिब का पता मिलता है

यह 19वीं सदी के मध्य में मिर्ज़ा ग़ालिब की रिहाइश की तस्वीर का काल्पनिक नमूना है। पिछले दिनों (यानी 21वीं सदी में) किये गये एक सफ़र में यह तस्वीर कुछ यूं दिखी:

पुरानी दिल्ली टेसन के बाहर के हंगामे
ठेले वाली दुकानों और खोमचे वालों की आवाज़ें
‘कहां जाना है साहब’ सवाल उठाते सड़क पर रिक्शे
रिक्शों के पहियों से नहीं सुनायी देती घोड़ों की टाप
सुनायी देता है बस, कान फाड़ता एक शोर लगातार
बल्लीमारान पहुंचते ही पहिये लड़खड़ाते हैं
एक भीड़, जाने कहां आती-जाती आपाधापी में
गुम है शायरी, हर तरफ से गूंजती गालियां
जैसे पानदान नहीं रखते बर्तनवाले, रखते हैं ऐशट्रे
पहिये रुकते हैं एक मोड़ पर - गली क़ासिम जान
जल्दबाज़ पैर, हर चीज़ से टकराते हुए जिस्म
एक तरतीब बेतरतीब इश्तहारों की शुरू होती है
रंगीन कपड़े, जिन्स, बोर्ड लटकते दिखते हर कहीं हैं
पूछना पड़ता है - यादगार-ए-मिर्ज़ा ग़ालिब यहीं है?

तो, गली क़ासिम जान में है मिर्ज़ा ग़ालिब मेमोरियल। यह वह हवेली है जहां कभी मिर्ज़ा किराये से रहा करते थे। अब इस हवेली के बहुत बड़े हिस्से पर पुराने किरायेदारों का लगभग कब्ज़ा सा हो चुका है। एक बहुत छोटे से हिस्से में मिर्ज़ा की यादों को जगह दी गई है। कुछ ही साल पहले गुलज़ार साहब के आग्रह पर यह संभव हुआ। हालांकि यहां ग़ालिब की याद के जो नमूने रखे हैं, ज़्यादातर उस ज़माने के नहीं हैं, उनकी नक़ल हैं। जैसे उस हवेली के बाकी के हिस्सों में फोटी कॉपी की भी कुछ दुकानें हैं।

मिर्ज़ा की एक वॉल पेंटिंग और उनके दीवान से लिये गये कुछ शेर दीवारों पर बड़े-बड़े बोर्डों पर लिखकर टांग दिये गये हैं। कुछ और जानकारियां भी। ग़ालिब की रूह यहां महसूस नहीं होती। पता चलता है कि निज़ामुद्दीन दरगाह के पास उनका मज़ार है।

ग़ालिब की रूह खोजते हुए आगे सफ़र। बल्लीमारान से निकलकर सिटि बस या ऑटो से करीब आधा घंटा लगता है हज़रत निज़ामुद्दीन पुलिस थाने पहुंचने में। थाने के सामने हुमायूं का मकबरा स्थित है जहां कुछ पर्यटक दिखते हैं। थाने से कुछ पचास कदम आगे चलते ही एक गली है, जहां से हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह के लिए सफ़र शुरू होता है। पैदल चलती एक भीड़ नज़र आती है। टोपियों, तस्बीहों, मुसल्लों, मज़हबी किताबों, इत्रों, फूलों वगैरह की दुकानों के साथ ही अपाहिज फकीरों और बीमारों की कतारें दिखती हैं।

इसी रास्ते पर दरगाह से पहले एक नुक्कड़ पर दीवार और पेड़ के बीच कुछ छुपा-कुछ दिखता, एक बोर्ड दिखता है जो बताता है कि मिर्ज़ा ग़ालिब का मज़ार यहीं नज़दीक है। उस बोर्ड से घूमते हुए और पूछताछ करते हुए ग़ालिब अकादमी के दर्शन होते हैं। यहां ग़ालिब के अलावा अन्य शायरों व लेखकों की किताबें हैं। ग़ालिब अकादमी द्वारा किये जाने वाले कार्यक्रमों का ब्यौरा है और ग़ालिब की याद में बनाया हुआ एक संग्रहालय है। संग्रहालय देखने के लिए आपको दो-चार लोगों से पूछना पड़ता है और कुछ इंतज़ार और तलाश के बाद वह मुलाज़िम हाज़िर होता है जो संग्रहालय दिखाएगा। वह वहां मौजूद न रहने का कारण यह बताता है कि कभी-कभी ही कोई आता है इसलिए उसके वहां मौजूद रहने की पुख्ता वजह नहीं है।


ग़ालिब का मज़ार - छायांकन: भवेश दिलशाद

यहां भी वही कहानी है। बहुत सी चीज़ें उस ज़माने की नहीं बल्कि उनकी नकल हैं। खैर, इस अकादमी भवन के पीछे है ग़ालिब का मज़ार। इससे लगे कैंपस में स्थानीय लड़के क्रिकेट खेलते दिखते हैं। मज़ार परिसर के दरवाज़े पर ताला रहता है। एक चौकीदार हाज़िर होता है और उसी मुलाज़िम की तरह की वजह बताते हुए ताला खोलता है। कुछ ही देर में मज़ार के बारे में कुछ-कुछ बताता हुआ और कुछ-कुछ बता न पाता हुआ वह चौकीदार आपको लेकर बाहर आ जाता है और फिर ताला लगा देता है।

ग़ालिब की रूह यहां भी नहीं है। मिर्ज़ा ग़ालिब थे, इस बात का एहसास तक नहीं होता। वह थे, वह नहीं हैं, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। उनका नाम लिखे बोर्ड, इश्तेहार और अकादमी वगैरह हैं, लेकिन ग़ालिब सिरे से ग़ायब हैं।

एक शहंशाह और एक उपदेशक की मज़ारों पर हुजूम है, एक शायर की मज़ार पर फूल चढ़ाने वाला, चराग़ जलाने वाला कोई नहीं है। मैं अपने भीतर ग़ालिब और कई फ़नक़ारों की रूह को महसूस करता हूं। मेरी तरह और भी हैं, जिन्हें यहअनुभूति होती होगी। क्या यही काफ़ी है? मायूसी भरे एक सफ़र के बाद इस सवाल से मैं भी जूझ रहा हूं।

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