मंगलवार, फ़रवरी 28, 2017

समालोचना

अपनी प्रतिष्ठा की खोज में एक कीर्तिशेष दोहा


कालजयी साहित्य या रचना क्या होती है? उसमें कौन से तत्व होते हैं, जिनके कारण उस रचना को कालजयी कहा जा सकता है? इस विषय पर कुछ साल पहले एक चर्चित पत्रिका ने देश के चुनिंदा साहित्य विद्वानों के आलेख प्रकाशित किये थे जिनमें उन विद्वानों ने अपने-अपने मत के अनुसार रचना के कालजयी होने के कारण एवं आधार प्रतिपादित किये थे। इस संबंध में सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि यदि रचना में एक विषय (अनुभूति या कभी-कभी विचार भी) अपनी संपूर्ण तीव्रता के साथ गुंथित हुआ हो, वह भावना सार्वभौमिक रूप से मान्य हो, उसमें अभिव्यक्ति-अनुभूति का आदान-प्रदान सहज हो, उसमें मौलिकता इस तरह से प्रदीप्त हो कि वह सर्वथा नूतन कथ्य प्रतीत हो तथा उसमें काल की सीमाओं का अतिक्रमण दिव्य रूप से हुआ हो, तो वह रचना कालजयी सिद्ध हो सकती है।

एक दोहा मिला है। इस दोहे में आनंदित, मनरंजित एवं चमत्कृत कर देने की क्षमता है। रसास्वादन कीजिए :

धनिया कहै पियाजु सौं, लै सुन मेरी बात
हलदी सौं तन देखि कैं, जी रा जल-जल जात।।

(एक युवती अपने पिया से कह रही है कि मेरी पीड़ा यह है कि सौतन का गौरवर्णी रूप देखकर मेरे हृदय में ईर्षा होती है।)

यदि आप इस दोहे का संपूर्ण रसास्वादन कर पाये हैं तो यह अपने आप में प्रमाण है कि यह दोहा अपने संप्रेषण में समर्थ है। कलात्मकता, आलंकारिकता संबंधी विवेचन बिंदुवार प्रस्तुत है :

इसे किस भाषा की रचना माना जाये?

बुंदेली भाषा में कहा गया यह दोहा, दोहा-कला का अद्भुत उदाहरण प्रतीत होता है। वास्तव में, ब्रज और बुंदेली भाषाओं में बेहद साम्य दिखायी देता है। फिर भी, एक बारीक सी एक लकीर है, जिसके इस तरफ ब्रज और उस तरफ बुंदेली है। इस दोहे के रचनाकार बुंदेली क्षेत्र में जन्मे हैं और अंतिम श्वास तक बुंदेली को जीते रहे। हालांकि वह ब्रज, हिंदी एवं संस्कृत के भी प्रकांड विद्वान रहे। वह स्वभाव से कवि थे किंतु उन्होंने कभी अपने लिए कवि-यश की महत्वाकांक्षा नहीं पाली। वह ललित शैली में बुंदेली एवं हिंदी भाषा में काव्य सृजन करते रहे तथा श्रेष्ठ काव्य का श्रवण उन्होंने भरपूर किया। आश्चर्य की बात है कि उन्हें अन्यों की सैकड़ों काव्य रचनाएं कंठस्थ थीं। खैर, कवि नहीं, इस दोहे पर विचार किया जाये। तो, यह दोहा हिंदी साहित्य की धरोहर में ही सम्मिलित किया जाना चाहिए क्योंकि प्रथमत: बुंदेली हिंदी की ही एक लोकभाषा है। दूसरे, हिंदी साहित्य का एक बहुत बड़ा भाग (आदिकाल से पूर्व आधुनिक काल तक) हमें खड़ी बोली हिंदी में नहीं, लोकभाषाओं में ही मिलता है, जिस पर हिंदी साहित्य को गौरव भी है एवं लगाव भी। इस दोहे को भी लोक परंपरा के भाषा-साहित्य की कड़ी मानते हुए हिंदी का ही माना जाना चाहिए।

यह किस काल की रचना है?

कतिपय विद्वान मान सकते हैं कि यह दोहा संभवत: रीतिकालीन हो सकता है क्योंकि इस प्रकार की उक्ति वैचित्र्य कला की रीति का प्रयोग उस युग के साहित्य में बहुतायत से उपलब्ध है। किंतु ऐसा नहीं है, यह दोहा इसी काल का अभिलेख है, जिसमें आप और हम जीवित हैं अर्थात् समकालीन है। भाषा एवं कलात्मक प्रयोगों के लिहाज़ से यह कथित मुख्यधारा की रचना नहीं मानी जाएगी लेकिन इस रचना में ऐसे तत्व इतने मुखर हैं जो इसे श्रेष्ठ एवं सार्वकालिक साहित्य की श्रेणी में ला खड़ा करते हैं। हमें गर्व एवं आनंद होना चाहिए कि इस काल में भी ऐसी रचना मिलती है।

यह कालजयी रचना है या नहीं?

निस्संदेह है। जलन या ईर्षा का विषय इस दोहे में अपनी संपूर्ण तीव्रता के साथ प्रस्तुत हुआ है। संपूर्ण तीव्रता इसलिए कि इसमें एक नारी मन दूसरी नारी के कारण ईर्षा या जलन का अनुभव कर रहा है। वह भी रूप को लेकर। कोई स्वीकार करे या नहीं, लेकिन यह भाव और अनुभूति ऐतिहासिक रूप से नारी मन में रही है एवं आज तक विद्यमान है। इस दोहे में काल की सीमाओं का सुंदरता से अतिक्रमण कर लिया गया है। यही नहीं, यह भाव किसी क्षेत्र या सीमा विशेष से संबंधित नहीं है बल्कि पृथ्वी के हर कोने में इसका फैलाव है। फिर, कविता स्वरूप में यह दोहा पाठक के साथ सीधा संबंध स्थापित कर लेता है। पाठक को सरलता से इसका बोध और अनुभूति हो जाती है। यदि पाठक थोड़ा भी गौर करता है तो वह इस दोहे की चमत्कारिकता को भांप लेता है और विस्मित हो जाता है। अब रही बात मौलिकता की, मैं हिंदी साहित्य का विद्यार्थी रहा हूं, मेरी स्मृति में नहीं आता कि रीतिकाल या हिंदी साहित्य के अन्य कालों के साहित्य में मैंने इस तरह का कोई दोहा पढ़ा हो। स्मरणीय श्री राधिकाप्रसाद वर्मा नटवर जी का एक दोहा भी इस संदर्भ में दृष्टव्य है :

कुएं मुंड़ेरे बैठि कैं, पांव दये लुढक़ाय।
पीठ मलावैं सौत से, बस जेइ औटपाय।

इस दोहे में सौतन के साथ कटुतापूर्ण संबंध का विवरण है। बुंदेली भाषा में औटपाय एक ऐसा कृत्य है, जो किया जाता है मज़े के लिए लेकिन अनजाने में ही वह इतना जोखिम भरा होता है कि करने वाले को ही उससे नुकसान की आशंका रहती है। सौतन विषय पर अनेक स्मरणीय दोहे मिलते हैं। नारी मन की भावनाओं के साथ ही ईर्षा पर कई अन्य रचनाएं अवश्य मिलती हैं लेकिन विवेच्य दोहे के कथ्य का कोई पूर्वप्रचलित उदाहरण मेरे समक्ष अब तक नहीं है। अस्तु, हम इसे श्रेष्ठ या कालजयी रचना की श्रेणी में रख सकते हैं।

रचना का कला पक्ष

वस्तुत: यह दोहा भ्रम उत्पन्न करने वाले प्रतीकों के माध्यम से कहा गया है परंतु नायिका भेद का अद्भुत उदाहरण बन गया है। मसालों अथवा खाद्य पदार्थों के गुणों पर आधारित कथ्य एक नारी मन की पीड़ा में अभिव्यंजित होता है। धनिया, प्याज, लहसुन, हल्दी, जीरा का प्रयोग, उनके रंग-रूप व गुणों के लगभग अनुरूप किया गया है, साथ ही ये शब्द अपने भिन्न अर्थ में इतनी सहजता से रूपायित होते हैं कि काव्य प्रतिभा श्रेयस्कर प्रतीत होती है। उपमा एवं वृत्यानुप्रास अलंकार के साथ ही इस दोहे में यमक व श्लेष अलंकार की छटा है। शृंगार के उपालंभ एवं लक्षणा (अंशत: व्यंजना भी) शब्द शक्ति से परिपूर्ण इस दोहे से ऐसा प्रतीत होता है कि रचनाकार ने आचार्य दण्डी के अलंकार तथा आचार्य वामन के रीति संप्रदाय का गहन अध्ययन कर उसे आत्मसात् कर लिया हो और एक ही दोहे में इन आचार्यों का ऋण विनम्रता से चुकाया हो।

व्याकरण के अनुसार इस दोहे में दोहा छन्द की कसौटी पर एक दोष दिखायी देता है। दोहे के प्रथम और तृतीय चरण में जगण विन्यास को अशुद्ध बताया गया है एवं इससे परहेज़ करने का परामर्श दिया गया है। कहा गया है कि जगण इन चरणों में लय दोष उत्पन्न करता है। इस प्रसंग में, विवेच्य दोहे के प्रथम चरण में प्रयुक्त शब्द कहै पियाजु को उचित नहीं माना जा सकता किंतु इस दोष के बावजूद दोहे में प्रवाह या लय भंग नहीं हो रही या हम कह सकते हैं अतिक्षीण नहीं हो रही। यह दोष कई दोहों में देखा गया है - उदाहरणार्थ कबिरा खड़ा बजार में... इस दोहे में खड़ा बजार शब्द में भी यही दोष है किंतु प्रवाह में रुकावट नहीं है। अस्तु, इस दोष को स्वीकार करते हुए हम मान सकते हैं कि दोष है, किंतु क्षम्य है। समालोचक मान सकते हैं कि विवेच्य दोहा रीति परंपरा का अंग है क्योंकि एक तो इसमें चमत्कार उत्पन्न करने की चेष्टा रीति संप्रदाय के कवियों के समान ही है, हालांकि यह सायास है या अनायास, इसका विशुद्ध आंकलन नहीं किया जा सकता। दूसरे, इसमें आलंकारिकता की बहुलता है। तथापि, ऐसा मानने के बावजूद इस दोहे की श्रेष्ठता, रसोत्पादकता एवं गुणवत्ता को नकारा नहीं जा सकता।

भाव-कथ्य पक्ष

दोहे में बुंदेली भाषा के शब्दों ने जादू सा भर दिया है। कुछ शब्दों को अलग-अलग कर पढ़ा जाये तो अलग अर्थ की प्रतीति होती है और यदि जोडक़र पढ़ा जाये तो अलग। उदाहरणार्थ - सौं तन, इसे सौतन के अर्थ में पढ़ा जा सकता है एवं सौं तन यानी जैसा तन भी। यह भी संभव है कि सौ तन, सैकड़ों तन के अर्थ में हो। इसी प्रकार धनिया के भी कई अर्थों में प्रयुक्त किया जा सकता है जैसे - बुंदेली में युवती को धनिया कहा जाता है एवं यह धन्या शब्द की प्रतिध्वनि भी दे रहा है या फिर संभव है कि इस शब्द को धनी + या पढ़ा जाये अर्थात् धनि या कहै यानी कोई रूपधनी यह कह रही है। एक सरल अर्थ देने वाले इस दोहे में शब्दों के चमत्कार से अनेक प्रकार की अर्थ प्रतीति होती है, वह भी स्वाभाविक रूप से। कहीं भी विशेष आग्रह के साथ कोई शब्द यहां नहीं जोड़ा गया है। वास्तव में, भाषा को सामथ्र्य के साथ प्रयुक्त करने की कला को कवि की प्रतिभा ही समझना चाहिए न कि उक्ति चातुर्य। ऐसी रचनाएं रीतिकाल में मिलती हैं जहां शब्दों के इस प्रकार के प्रयोग किये जाते हैं लेकिन अधिकांशत: वे सहज ग्राह्य नहीं रह पाते या फिर आग्रहपूर्ण ही लगते हैं। उदाहरणार्थ -  की करता पाकर... छंद जिसमें कुछ पौधों के नामों को इस तरह संयोजित किया गया है, कि शब्दों का वास्तविक अर्थ कुछ और ही निकलता है। किंतु, विवेच्य दोहा अपने कथ्य में सहज है तथा इसमें उत्पन्न हुआ उक्ति वैचित्र्य विशेष एवं आकर्षक तो है परंतु अनायास है।

उपसंहार

तो, विवेच्य दोहे को साहित्य में क्या स्थान मिलना चाहिए? संभवत: वही स्थान जो किसी भी श्रेष्ठ दोहे को मिला है। इससे कोई अंतर नहीं आना चाहिए कि यह दोहा किस कवि ने रचा है। हमारी साहित्य परंपरा में ऐसे भी उदाहरण रहे हैं कि एक श्रेष्ठ रचना के कारण रचनाकारों के नाम अमर हो गये हैं। इसका उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता यह उल्लेख करने की है कि क्या हमारे युग में सुधी आलोचकों की उपस्थिति है? यदि है, तो खेमेबाज़ी से इतर हमें प्रत्येक श्रेष्ठ रचना का मूल्यांकन उसकी श्रेष्ठता के आधार पर ही करने की चेष्टा करना चाहिए। यदि कोई भी श्रेष्ठ रचना अवमूल्यन या उपेक्षा की शिकार होती है, तो समझा जाना चाहिए कि उस युग में आलोचना का स्तर गंभीर एवं वातावरण स्वस्थ नहीं रहा।

बहरहाल, यह युग औसत लेखन अथवा सृजन का युग है। इसे यों भी कह सकते हैं कि इस युग में श्रेष्ठ सृजन कम हो रहा है क्योंकि अधिकांश सृजन सपाटबयानी एवं एकरूपता का शिकार हो चुका है। अस्तु, विशेषकर इस युग में यदि कोई श्रेष्ठ रचना मिलती है तो उसके उन्नयन एवं समुचित प्रतिष्ठापन के समस्त संभव प्रयास किये जाने चाहिए। विवेच्य दोहे के अलावा इस युग में निदा फाज़ली एवं दो-एक अन्य रचनाकारों के दो-चार दोहे भी इस कोटि के दिखे हैं जो सर्वकालिक श्रेष्ठ दोहे करार दिये जा सकते हैं। इस युग का प्रतिनिधित्व करता, इस युग की श्रेष्ठ दोहा-सर्जना का सिरमौर प्रतीत होता, इसी युग में रचा गया एक और दोहा देखिए :

तुम इतने सीधे मिले, जितने सीधे बांस
जोड़-जोड़ में गांठ है, रोम-रोम में फांस।।

इस दोहे पर अगले अवसर पर वार्तालाप होगा। फिलहाल ध्यान/चर्चा विवेच्य दोहे पर ही केंद्रित रखते हैं।

वास्तव में, यह युग ध्वजवाहकों का है। किसी रचना को मात्र इसलिए भी नकार दिया जाता है कि वह परंपरागत शिल्प या छन्द या शैली में प्रस्फुटित हुई है। यह विडंबना ही है। अपनी-अपनी पीपरी अपना-अपना राग वाले इस युग में आलोचक भी ध्वजवंदना में संलग्न हैं जबकि उनका धर्म कुछ और है। पाठ्यक्रमों से लेकर पत्र-पत्रिकाओं एवं पदों से लेकर मंचों तक सबका अपना-अपना प्रचार-प्रसार है और पात्र अपने मूल्यांकन के समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। ऐसे में क्या श्रेष्ठ रचनाएं उपेक्षा की शिकार होती रहेंगी? क्या ये रचनाएं मात्र स्थानीय गोष्ठियों की शोभा बनकर रह जाएंगी? क्या इन्हें प्रकाशक प्राप्त नहीं होंगे? इन प्रश्नों के उत्तर प्रत्येक आलोचक को देना होंगे। इस समालोचना का उद्देश्य यही है कि प्रतिष्ठित आलोचक, समालोचक एवं समीक्षक ऐसी रचनाओं की ओर उन्मुख हों, इन पर संवाद प्रारंभ करें और श्रेष्ठ काव्य को उचित प्रतिसाद एवं मूल्यांकन की प्राप्ति हो। शुभम्।

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