सोमवार, फ़रवरी 27, 2017

इंटरव्यू

"गीत का वंशज है नवगीत, खानदान की लड़ाई है ही नहीं"


वरिष्ठ कवि एवं नवगीत के प्रवक्ता श्री माहेश्वर तिवारी के साथ नवगीत पर केंद्रित वार्ता...


Maheshwar Tiwari. image source - google


नवगीत वास्तव में है क्या? विधा, विचारधारा, आंदोलन या फिर कुछ और?

  • देखिए, विधा शब्द का उपयोग ही अनुचित अर्थों में हुआ है। विभिन्न छन्दों में रची जाने वाली रचनाओं को हम विविध छन्दों के काव्यरूप कह सकते हैं, कहा जाना चाहिए। नवगीत के संदर्भ में मेरा मानना यह रहा है कि गीत तो इसकी मातृ-संस्था है ही। भले ही, विद्वान इसे किसी भी रूप में परिभाषित कर लें परंतु इसे गीतधरा से विलग नहीं माना जा सकता। गीत और फिर नवगीत के अंतर अर्थात् इसकी नवता को लेकर मेरा कथन यह है कि पूर्व के गीत आकाशचारी हो चले थे अथवा बाहुल्य में यही स्थिति थी। जब गीत ने यथार्थ का बोध किया तथा दिया तब हमने इसे नवगीत कहा तथा माना।

क्या यह माना जाये कि नवगीत ने ‘नयी कविता’ की विचारधारा को अपनाया या उसी दृष्टिकोण की नकल की?

  • वास्तव में, स्थिति यह थी कि जब नयी कविता का प्रादुर्भाव हुआ, तब उसमें बहुत कुछ ऐसा था जिसे आयातित माना जा सकता है। नयी कविता पश्चिम के विचार, भाव एवं काव्य से बहुत हद तक प्रभावित थी। इसके उलट, नवगीत में यह स्थिति विपरीत थी। नवगीत ने अपनी धरती को पकड़ा। अपनी माटी की सुगन्ध से जुड़ाव बना रहा। अपनी ज़मीन से जुडऩे के कारण नवगीत में परिवार आया। आप हिन्दी साहित्य का यदि इतिहास देखें तो परिवार के छिटपुट उल्लेख को लेकर गिनी-चुनी रचनाएं मिलती हैं। मदन वात्स्यायन और सर्वेश्वर जी एक-एक कविता है जिसमें पत्नी केंद्र में है या केदारनाथ सिंह की एक कविता है जिसमें बच्ची केंद्र में है। नवगीत ने इस दिशा में नव प्रवर्तन किया।

इस संदर्भ में निराला जी रचित ‘सरोज स्मृति’ की भूमिका मानना चाहिए?

  • ‘सरोज स्मृति’ एक बड़ी कविता है, जिसमें प्रबंधात्मकता है। यह मुक्तक काव्य के अंतर्गत है। गीत प्रबंध से मुक्त होता है। फिर भी इस कविता का उल्लेख किया जाना चाहिए। किंतु नयी कविता ने इस पूरे परिवार प्रसंग की एक तरह से अनदेखी ही की। नयी कविता में, जैसा कि मैंने पहले कहा, बहुत कुछ आयातित होने के कारण राजनीतिक विचारों का पोषण था किन्तु परिवार नहीं था, प्रेम नहीं था। प्रेम वास्तव में, मूल शब्द राग से व्युत्पत्त है। राग अत्यधिक व्यापक शब्द है। माता-पुत्र, पिता-पुत्र या पुत्री, पति-पत्नी, भाई-बहन आदि सभी सम्बन्धों के लगाव को हम राग चेतना के अंतर्गत समाहित कर सकते हैं। यहां तक कि हमारी परम्परा में प्रेम के जो सोपान हैं, स्नेह से प्रारंभ होकर भक्ति तक पहुंचते हैं। अर्थात् भक्ति भी रागात्मक चेतना का ही एक स्वरूप है।
  • नवगीत ने नव प्रवर्तन करते हुए यह कारनामा किया कि उसने परिवार को यथोचित रूप से गाया। परिवार के माध्यम से उसने सब कुछ देखने की कोशिश की। आप अगर वीरेंद्र मिश्र जी का काव्य देखें तो इस तथ्य को समझेंगे। उनके काव्य संग्रहों के नाम ही परिवार से जुड़े। ‘गीतम्’ उनकी पुत्री का नाम है, जो उनके काव्य संग्रह का शीर्षक बना। इस संग्रह की दो कविताओं को मील का पत्थर कहा जा सकता है। ये दो रचनाएं एक महत्वपूर्ण परिवर्तन लाने का काम करती हैं। इसकी पूर्वपीठिका के रूप में हम फिर निराला की ओर चलते हैं। उनका काम महत्वपूर्ण रहा, एक ओर वह गा रहे थे - ‘बांधो न नाव इस ठांव बंधु, पूछेगा सारा गांव बंधु’ और दूसरी ओर (छन्द में ही)- ‘वेश रूखे, केश सूखे, आज भूखे लोग आये हैं’ या ‘मानव जहां बैल-घोड़ा है, कैसा तन-मन का जोड़ा है’। तो, हम कह सकते हैं कि निराला जी गीत को विस्तार दे रहे थे। उसके पहले तो गीत एक प्रकार से एक दायरे में बंधा हुआ था। ऐसी रचनाओं से उपजे परिवर्तन को जब गीतकारों ने अपनाया तब नवगीत की सार्थकता सिद्ध हुई। नवगीत ने अपना स्वर पकड़ा और नवता की दृष्टि रखते हुए परिवार की बात की, परिवार के माध्यम से बात की।

जैसा कि इतिहास के हवाले से जाना है, इस सिलसिले में, नयी कविता से सम्बद्ध प्रवक्ताओं ने गीत को मृत घोषित कर दिया था और उसकी संभावनाओं को सिरे से नकार दिया था। क्या यह संदर्भ यहां उल्लेखनीय है?

  • बिल्कुल, नयी कविता ने नवगीत पर लगातार आक्रमण किये एवं पूरा प्रयास किया कि इसे पहचान न मिले। नयी कविता ने पहले तो गीत को साहित्य मानने से ही इनकार किया और फिर नवगीत को काव्य जगत में दूसरे दर्जे की नागरिकता देने का प्रयास किया। तो, ऐसे में नये गीतकारों के समक्ष पहली चुनौती तो यही थी कि वे सिद्ध करें कि वे दूसरे दर्जे के नहीं हैं बल्कि नयी कविता के समानान्तर श्रेणी में हैं। दूसरी चुनौती यह थी कि हमारे कई अग्रज गीतकार स्वर भंग कर रहे थे या आपत्तिजनक कथन कर रहे थे। मैं यहां दो बड़े नाम लेना उचित समझता हूं - हरिवंश राय बच्चन एवं भारत भूषण जी। भूषण जी मेरे बहुत अभिन्न हैं लेकिन हम इसे गीत कैसे मानें - ‘खामोश चांदनी कहती है, आओ कोई अपराध करें, जिसको जीवन भर पुलक-पुलक, तुम याद करो हम याद करें’। अपराध को पुलक के साथ अपराधी ही याद कर सकता है। यह संवेदनशीलता व सृजनशीलता नहीं है। तो, गीत पर पहचान का भी एक संकट उत्पन्न हो गया था। दूसरी ओर, बच्चन जी की रचना - ‘क्या अंधेरा, क्या उजाला क्या समा है, चांदनी में जो करो, सब कुछ क्षमा है’। इन रचनाओं के कारण जब गीत को कठघरे में खड़ा किया गया तब नवगीत खड़ा हुआ और उसने गीत की रक्षा की लड़ाई का बीड़ा उठाया, दृढ़ संकल्पित होकर।
  • फिर एक स्थिति यह भी थी कि हमने आज़ादी से पहले कुछ स्वप्न संजोये थे। धीरे-धीरे पता चलने लगा कि वे सब तो भंग हो रहे हैं। ऐसे में शरद श्रीराम सिंह ने लिखा - ‘बादल तो आये, पानी बरसा गये, लेकिन यह क्या हुआ, खिले हुए बागों के मुखड़े मुरझा गये’। जब सपने टूटे, ऐसे में गीत को एक जिजीविषा का संचार करने की आवश्यकता थी। इसी जिजीविषा की बात की ठाकुर प्रसाद सिंह ने। उन्होंने कहा - ‘कोयले उदास, मगर फिर-फिर वे गाएंगे’। यह उदास कोयलों का फिर-फिर गाने का संकल्प ही वास्तव में, नवगीत का संकल्प बना। नवगीत ने अपने लिए एक नयी भाषा गढ़ी, नये बिम्ब गढ़े और सबसे महत्वपूर्ण यह कि इस काव्य को पढक़र आप समझ सकते हैं कि यह एक भारतीय कवि रचित काव्य है। यह कहीं का अनुवाद नहीं है।

यह वाकई महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए। इस संदर्भ में एक जिज्ञासा यह जन्मती है कि नवगीत की संज्ञा की ईजाद कैसे और क्यों हुई? कैसे निश्चित किया गया कि इस रचना को हम ‘नवगीत’ कहेंगे?

  • नवगीत संज्ञा का जन्म अचानक ही हो गया। इसके लिए कोई विमर्श या आंदोलन नहीं हुआ। पहले नयी कविता के खेमे ने इसे ‘नयी कविता का गीत’ कहा।

‘नयी कविता का गीत’! यह दिलचस्प है।

  • हां, फिर इसे ‘नये गीत’ का नाम दिया गया। 1958 में, राजेंद्र प्रसाद सिंह ने एक संकलन तैयार किया और उसकी भूमिका में ‘नवगीत’ संज्ञा का प्रयोग किया गया। यहां से यह शब्द चल पड़ा। नवगीत से तात्पर्य था नये समय का गीत, समकालीन मनुष्य का गीत, इस मनुष्य के सुख-दुख, जय-पराजय, उल्लास-विषाद सबको स्वर देने वाला गीत। $गज़ल कैसे रची जाती है, इस बारे में जैसा कि उर्दू में कहा जाता रहा कि अगर आपके पड़ोस में कोई सुन्दर युवती हो तो $गज़ल अपने आप हो जाती है। तो, नवगीत इस मानसिकता से उबारने वाली सोच लेकर आया। नवगीत ने कहा कि कविता तो हमारे घर में है, वह हमारी पत्नी है, पड़ोस की युवती नहीं। नवगीत ने पूरे परिवार को कविता का अभिन्न अंग बनाया। यह अविस्मरणीय घटना इसलिए है कि नवगीत ने जब पहली बार परिवार की चर्चा की तब नयी कविता में भी इसका प्रभाव दिखा। कुछ ही समय बाद नयी कविता में भी परिवार को केंद्र में रखने वाली रचनाएं देखी गयीं। सोमदत्त ने ऐसी कविताएं लिखीं, और फिर कई रचनाकारों ने। इस सिलसिले में एक संस्मरण सुनिए। नयी कविता के ज़ोरदार प्रवक्ताओं में शामिल जगदीश जी ने नवगीत को नकारे जाने पर एक बार कहा था कि जब कोई रचना आने वाली रचनाओं के लिए कुछ तत्व प्रदान करती है, तब उसे महत्वपूर्ण माना जाता है। कुछ समय बाद उनके जन्मदिन पर शाहजहांपुर में एक कवि सम्मेलन में मैंने उन्हें याद दिलाते हुए कहा कि ‘जगदीश जी, अब नयी कविता में वे सारे विषय आने लगे हैं जिनका चयन और पोषण नवगीत ने किया था। अब तो आपको नवगीत को महत्वपूर्ण मानना होगा’।

यहां से एक और जिज्ञासा का जन्म होता है। जैसा कि आपने बताया कि 1958 में इस संज्ञा का जन्म हुआ, अब या और अगले कुछ वर्षों बाद हम क्या कोई और संज्ञा खोजेंगे? क्या नवगीत शब्द प्रासंगिक बना रहेगा?

  • आप देखिए, नामकरण की प्रक्रिया तो चलती जा रही है। नवगीत के बाद जनगीत, समकालीन गीत आदि आ चुके हैं।

इन संज्ञाओं से क्या आने वाले पाठकों, शोधकर्ताओं और लोक में भ्रम की स्थिति नहीं बन जाएगी? किस संज्ञा के अंतर्गत कौन सी रचना रखी जाये, यह कैसे तय किया जाएगा?

  • ऐसा है कि समय बहुत तीव्र गति से बदल रहा है। ऐसे में कला माध्यमों को अपनी स्तरीयता बनाये रखते हुए बदलाव तो लाना पड़ेगा। पहले युगों में हम काव्य का अध्ययन करते थे। अब काव्य को हर दशक के आईने में देखा जा रहा है। यह सब अपनी सुविधा के लिए है। चूंकि परिवर्तन इतना तेज़ है कि हर दशक में रचना का स्वरूप बदल रहा है। परन्तु, जैसा मैंने कहा कि नवगीत मूलत: गीत ही है। नवता अपने समय के साथ चलने की बात है। जो मानते हैं कि नवगीत की रचना कर वे गीत से मुक्त हैं, वे भ्रम में हैं।

तो क्या इसका अर्थ यह है कि नवगीत में शिल्प या छन्द के स्तर पर कोई परिवर्तन नहीं है?

  • है, शिल्प में, छन्द में, भाषा में परिवर्तन हुआ है लेकिन यह परिवर्तन गीत को ही आधार बनाकर हुआ है। गीत का ढांचा नहीं तोड़ा गया। नवगीत ने गीत के मूल तत्व गेयता को नहीं छोड़ा, उसे बनाये रखने का प्रयास किया। हुआ यह कि हमने अपने पूर्वजों के महत्व को कम नहीं किया बल्कि परिवार की मर्यादा को बनाये रखते हुए अपने समय के हिसाब से आवश्यक परिवर्तन किये। आने वाली पीढ़ी अपने समय के हिसाब से परिवर्तन करेगी। लेकिन, इन परिवर्तनों से खानदान नहीं बदलता। न जाने मित्रों में कहां से यह भ्रम हो गया कि यह खानदान की लड़ाई है। नवगीत हो या कुछ और, है तो गीत के खानदान का वंशज ही। जैसा मैंने पहले कहा कि नवगीत ने पारिवारिकता को केंद्र में रखा है और यही उसकी महती उपलब्धि है। रचना कोई भी हो, वह अपनी परम्परा से कटकर पनप नहीं सकती।

यह एक ज़रूरी तार आपने छेड़ा है। देखा जाता है कि साहित्य में जब विभिन्न विमर्श (नारी विमर्श, दलित विमर्श आदि) किये जाते हैं तब परम्परा से कटकर किये जाते हैं या दृष्टि कहीं परम्परा के आलोक से भटक जाती है।

  • देखिए, यही बात है। नारी विमर्श की जब बात चलती है, तब रामायण की चर्चा नहीं की जाती। एक तथ्य देखिए, जनकपुर में आज भी बेटियों का नाम सीता नहीं रखा जाता। उनका मानना है कि यह नाम बड़ा अशुभ है। यह परम्परा है, लेकिन जब आप नारी विमर्श करते हैं तब इन परम्पराओं की चर्चा नहीं करते तो यह वाकई दुखद है। यही चर्चा हम गीत को लेकर छेडऩा चाहते हैं। जब आप सौंदर्य चेतना की बात करेंगे तो उसकी परम्परा आपको कालिदास से मिलेगी और जब करुणा की बात करेंगे तो वाल्मीकि और भवभूति के पास आपको जाना होगा। नवगीत अगर प्रेम की बात कर रहा है तो यह समझना चाहिए कि उस प्रेम का छोर कहां है, तब आप उसकी परम्परा के बारे में कोई सार्थक कथन कर सकेंगे। अवधबिहारी श्रीवास्तव के एक गीत का अंश देखिए - ‘जितना खिडक़ी से दिखता है, बस उतना सावन मेरा है... हैं नहीं जहां नीले निशान, बस उतना ही तन मेरा है’। अब यह गीत परम्परावादी न होने के बावजूद गीत है। इसे रागबद्ध गाया गया है। मैं यह कहना चाहता हूं कि नवगीत ने यह काम किया है कि पीड़ा को, करुणा को गीतात्मकता में समय की चैतन्यता में वाणी दी है। गीत ने जिस रागात्मकता को छोड़ दिया था, नवगीत ने उसे फिर थामा और संकल्प किया कि वह अपनी परम्पराओं को जीवित रखेगा।

परम्परा से जुडऩा और एक वाद या विचारधारा से जुडऩे में क्या फर्क है? क्या वाद विशेष मौलिकता की बलि मांगता है?

  • आप देखेंगे कि भक्तिकाल में कबीर, मीरा, तुलसी, सूर सबका अपना काव्य है, काव्य शैली है लेकिन यह समग्र रूप से है भक्ति काव्य ही। इसी तरह रीतिकाल में केशवदास, बिहारी आदि रीतिबद्ध कवि हैं और घनानन्द रीतिमुक्त लेकिन हैं तो ये रीति कवि ही क्योंकि ये किसी विचार से जुड़े या किसी धारा में बने रहे।

बेशक, भक्तिकाल की बात हो या छायावाद की, परन्तु हम जब इनके रचनाकारों से रूबरू होते हैं तो हम कुछ पंक्तियों से पहचान सकते हैं कि यह कथन निराला का है या सूर का या कबीर का या पंत का। सवाल यह है कि नवगीत, नयी कविता, नयी कहानी जैसे पंथों से जुड़े वर्तमान रचनाकारों की रचनाओं में यह अंतर नहीं दिखता, क्यों? यह सपाटबयानी या कहने की एकरूपता क्यों आ जाती है?

  • यह सवाल जायज़ है लेकिन इसे रचनाकार की ही कमज़ोरी मानना चाहिए। यह दोष है और हम भी इसे दोष ही मानते हैं। जैसे प्रगतिशील आंदोलन में यह दोष दिखा। रचनाकारों ने कलम चलायी और पीड़ा, अभाव आदि लिखते-लिखते एक समय पर बात रोटी पर आकर रुक गयी। नाम बदल-बदलकर सभी रोटी की बात ही करते नज़र आने लगे। बात उससे आगे बढ़ नहीं सकी। अब नवगीत के सामने भी यही खतरा दिख रहा है। हमारे सामने जब यह स्थिति आती है तो हम इसका विरोध करते हैं। मैं आपको बताना चाहता हूं कि हमारी पीढ़ी में ओम प्रभाकर, नईम और कुछ और रचनाकार ऐसे थे जो अलग-अलग स्थानों पर रहते थे लेकिन किसी पत्रिका में कोई रचना छपे और उसके साथ नाम न छपे तो भी पाठक समझ लेता था कि यह रचना ओम प्रभाकर की है, या मेरी, या नईम जी की। लेकिन अब जो पीढ़ी है, उसके सामने यह खतरा बढ़ गया है। 
  • यह तार जो छेड़ा है, इस पर एक रोचक प्रसंग बताता हूं। बनारस में गोष्ठी थी, नवगीत पर चर्चा होनी थी। नयी कविता के रचनाकार केदारनाथ सिंह थे, शम्भूनाथ जी थे, ओम प्रभाकर, मैं और अन्य रचनाकार वहां मौजूद थे। वहां नवगीतकार परमानन्द श्रीवास्तव जी को विषय प्रवर्तन करना था लेकिन वे आ नहीं सके तो केदारनाथ सिंह ने यह कार्य संपन्न किया। केदारजी गीत के खिलाफ बोल गये। उन्होंने नवगीत पर यही आरोप लगाया था कि अगर नाम हटा दिया जाये तो पहचानना मुश्किल है कि किस रचनाकार की रचना है। इसका उत्तर ओम प्रभाकर जी ने दिया और कहा कि इस गोष्ठी में परमानन्द जी भी आते तो दोहरा सौभाग्य होता क्योंकि हिन्दी में यह भ्रम है कि केदारनाथ सिंह और परमानन्द जी दो व्यक्ति हैं या एक ही व्यक्ति दो नामों से कविता लिखता है। और अगर दो हैं तो पहले कौन लिखता है।

इसका कारण क्या मानते हैं?

  • कारण है रचना लेखन के लिए आवश्यक तैयारी का न होना। आजकल के कवि न तो साहित्य का इतिहास पढ़ पा रहे हैं और न ही भाषा का विज्ञान। अवकाश नहीं है। एक कारण यह है कि अब रचनाकार अपने समकालीनों को पढक़र पीछे नहीं लौट रहे। वे अपने समकालीनों के कथ्य को पढक़र ही लिख रहे हैं। कम समय में यश पाने की लालसा भी एक कारण बन जाती है। नारे उछाले जाते हैं लेकिन मौके पर कोई खड़ा नहीं दिखता। इसे आप रचनात्मक बेईमानी का समय भी कह सकते हैं। यह संकट है और अगर आप अपनी पहचान के साथ रचनाधर्म में लीन नहीं हैं तो यह खतरा बढ़ेगा ही। कुछ इससे बच रहे हैं लेकिन कई इस खतरे की चपेट में हैं। बड़े स्तर पर देखिए कि यह स्थिति केवल नवगीत में ही नहीं पूरे साहित्य में बन गयी है। यह भी सच है कि यह स्थिति हर समय में बन ही जाती है। कुछेक के हस्ताक्षर ही दिख पाते हैं, शेष सब तो नाम ही नज़र आते हैं।
(साहित्य सागर के 2015 अंक में प्रकाशित इस साक्षात्कार का संशोधित संस्करण)

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