'ग़ज़ल' में ग़ज़ल की तलाश का सिलसिला
वरिष्ठ कवि श्री देवेंद्र शर्मा इंद्र के ग़ज़ल संग्रह "धुएं के पुल" पर समीक्षा। इस समीक्षा का लेखन मेरे लिए एक अनुभव रहा, वहीं कुछ पाठकीय प्रतिक्रियाओं से लगा कि वाकई कुछ तो बात है। कुछ साल पहले लिखी यह समीक्षा इसलिए यहां साझा कर रहा हूं।
20 अगस्त 2011 की देर शाम, वयोवृद्ध कविवर आदरणीय यतीन्द्रनाथ ‘राही’ जी ने आज्ञा दी कि ‘भवेश, एक ग़ज़ल संग्रह है, देवेन्द्र शर्मा इन्द्र जी का. वे चाहते हैं कि इस पर तुम कुछ लिखो’. इन्द्र जी का नाम मैंने कॉलेज के ज़माने से सुना था, और इस तरह सुना था कि वे उम्रदराज़ और श्रेष्ठ कवियों की फेहरिस्त में शुमार हैं. श्रद्धेय राही जी से मैंने समय मांगा क्योंकि इन्द्र जी जैसे नामचीन कवि की किताब पर जल्दबाज़ी में कुछ लिखना मुनासिब न था.
ख़ैर
साहब,
किताब
मिली,
पूना
चला
आया
और अपने दैनिक कार्यकलापों और कार्य में व्यस्त हो गया. किताब सिरहाने रखी थी ताकि जल्द ही हाथ में आ जाए. एक रात आ गयी. जैसा कि तरीका है कि सबसे पहले भूमिका पढ़ी. यक़ीन मानिये, यह भूमिका पढ़ते ही एक बात तय हो गयी कि इसके आगे बेहतरीन ग़ज़लों या शेरों का एक ख़ज़ाना हाथ लगने वाला है और जो अंदाज़ तम्हीद में है अगर उसी अन्दाज़ में शायरी भी मिली तो धन्यभाग. उस रात शायद आठ-दस रचनाएँ पढ़ सका और कुछ देर मैं सोच में डूबा रहा. अगले दो-ढाई महीने इस ‘धुएँ के पुल’ से गुज़र नहीं पाया. फिर जब गुज़र हुआ तो धुआँ ही धुआँ हाथ लगा. दूसरी बार किताब पढ़ी और फिर शायद दो बार और उलटी-पलटी, तब जाकर इस पर कुछ लिखने की बारी आयी.
अव्वल
तो यह साफ़ कर दूँ कि इतने बड़े आदमी और शायर के लिए कुछ लिखने से बड़ा डर लगता है, इस डर की वजह भी है लेकिन वह बताना यहाँ ज़रूरी नहीं. फिर भी हिमाक़त कर रहा हूँ. इस युक्ति के साथ कि ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात’. इन्द्र जी ने अपनी इस किताब की भूमिका में लिखा है, ‘...इन रचनाओं को इसी ज़ुबान, इसी शैली और इन्हीं बहरों में कह पाना मौज़ूं और मुनासिब था क्योंकि कोई भी रचनागत कथ्य अपनी प्रस्तुति और अभिव्यक्ति के लिए खुदबखुद भाषा-शैली और छन्द-विधान की अनायास तलाश कर लेता है’. इसी भूमिका में एक जगह इन्द्र जी कहते हैं कि ‘शास्त्र पढ़कर शास्त्री बना जा सकता है, कवि या शायर नहीं.’ दुरुस्त. यानी कि अगर यह कहा जाए कि इन्द्र जी की फ़लानी रचना में किसी मिसरे में बहर टूटती है या क़ायम नहीं रहती, तो उनके लिए इस बात का कोई मतलब नहीं होगा क्योंकि वे शास्त्र के क़ायल नहीं. दूसरे, उन्हें यक़ीन है कि वह फ़लानी रचना उसी बहर में उसी तरह से कही जा सकती थी, किसी और तरीके से नहीं ! शायद यह सुनना भी उन्हें आक्रामक लगे कि ‘इसमें फ़लां शब्द की जगह फ़लां शब्द इस्तेमाल किया जाता तो यह दोष पैदा नहीं होता.’ इसलिए ऐसी कोई बात करने का कोई अर्थ मेरी समझ में नहीं आता.
वीराना
भी है, तारीक़ी भी और कुछ है सफ़र की तनहाई,/सिर्फ़ एक तुम्हारी याद नहीं, जीने के बहाने और भी हैं...क़ाबिले दाद शेर. बहुत ख़ूब. यह उस ज़ुबान का शेर है जो ग़जल की ज़ुबान है, जि़्ान्दा रहने वाली शायरी की ज़ुबान है. इसे न तो हिन्दी कहना मुनासिब है और न उर्दू. इसे हिन्दी भी कहिए और उर्दू भी. कुछ भी कहिए, यह तय है कि ग़ज़ल की ज़ुबान के ख़ाक़े में यह फिट बैठती है. फिर भी एक इसरार यह हो सकता है कि तारीक़ी की जगह अँधेरा या सियाही ज़्यादा दूर तक पहुँचने वाले लफ़्ज़ हैं लेकिन मुझे इस लफ़्ज़ पर इसलिए आपत्ति नहीं है क्योंकि कुछ अलफ़ाज़ शायरी में ज़िन्दा रखने की ज़िम्मेदारी भी शायर की है. लेकिन ये अलफ़ाज़ ऐसे हों, जिनका इतिहास है, सौन्दर्य है और काव्यात्मक महत्व भी. एक क़ीमती विरासत के तौर पर ऐसे अलफ़ाज़ को सहेजा जाना ज़रूरी है, लेकिन ऐसे अलफ़ाज़ के चयन में सावधानी बरतना होगी कि ऐसे लफ़्ज़ शुमार न हों जो मुद्दतों से डिक्शनरी की क़ब्रों में सोये हैं. मसलन, ‘ख़र्च’ के लिए अगर इस्तेमाल करें ‘सर्फ़’, ‘ख़ज़ाने’ के लिए ‘दफ़ीना’, ‘जलन’ के लिए ‘हिरस’ (दोनों पर्याय शब्दों का वज़्न भी बराबर है), तो कहाँ तक मुनासिब है ? और यह सावधानी भी रखी जाए कि वे अलफ़ाज़ भी शायरी में न आ जाएँ जो अस्ल में, प्रोज़ या गद्य के लिए मुनासिब हैं. यह मेरा सोचना है, लेकिन इन्द्र जी को इससे इत्तेफ़ाक़ होगा, ऐसा लगता नहीं क्योंकि उनके मुताबिक ‘यही ज़ुबान मौज़ूं थी’. ये एक मुद्दा है, इस पर दानाओं को सोचकर दानिश- मंदाना नतीजों तक पहुँचना चाहिए.
आख़िर
में
बात
करते
हैं
इस किताब की शायरी के अन्दाज़ की. मिला-जुला अन्दाज़ है. कहीं दौरे-मीर-ओ-ग़ालिब की शैली को पकड़ने की कोशिश है, तो कहीं शुरुआती 20वीं सदी की शायरी का असर, किसी-किसी शेर में दुष्यन्त जैसी शैली और कहन भी है, तो कहीं शैली और कहन में एक तनाव भी, जो इस युग में जीवन का हिस्सा है. कुल मिलाकर ऐसा नहीं है कि इन्द्र जी का कोई ख़ास अन्दाज़ है, बल्कि कुछ ख़ास अन्दाज़ों में इन्द्र जी ने अपनी शायरी पेश की है. कुछेक शेर वाक़ई खुलकर दाद दिये जाने के क़ाबिल हैं. कहन के सिलसिले में बस यह कह सकता हूँ कि कुछ शेरों में कुछ नयापन है. कहीं-कहीं शेरियत और तग़ज़्ज़ुल भी है. ख़ामुशी कितनी जानलेवा है/इसमें कोई बवाल पैदा कर...! वाह-वाह ! ऐसे कुछ शेर इस मजमुए में आपको अचानक चौंकाने के लिए मिलेंगे.
हालांकि
किताब
के पहले सफेद पन्ने पर टाइटल के नीचे लिखा है ‘देवेन्द्र शर्मा इन्द्र की ग़ज़लें’, लेकिन इन्द्र जी ने किताब की भूमिका में ऐसा कोई दावा नहीं किया है कि ये ग़ज़लें हैं ! उन्होंने कहा है कि ‘ये रचनाएँ दोहे और नवगीत से कुछ हटकर हैं, जिन्हें लोग ग़ज़ल कहना चाहें तो कह सकते हैं.’ इसलिए इन्द्र जी किसी सवाल के दायरे में नहीं हैं क्योंकि वाक़ई इस संग्रह की रचनाएँ दोहे और नवगीत से हटकर हैं और ‘कहने वाले इन्हें चाहें तो ग़ज़ल भी कह सकते हैं’.
बहरहाल,
इस मजमुए को पढ़कर मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला और उसमें से कुछ मैंने यहाँ कहा भी. राही जी का शुक्रगुज़ार हूँ कि यह किताब ‘धुएँ के पुल’ उन्होंने मुझे पढ़ने और कुछ लिखने को मुहैया कराई. हमेशा सीखते रहने का क़ायल यह नाचीज़ इन्द्र जी को भी मुबारक़बाद पेश करता है. और भी कुछ है कहने, लिखने या संवाद के लिए, लेकिन बस, कम लिखे को ज़्यादा समझें, इसी गुज़ारिश के साथ...