शनिवार, दिसंबर 23, 2023

Beyond The Review

'युद्ध-यात्रा' विमर्श : हमारे युद्ध और युद्धों की हमारी यात्रा


(यह लेख 16 दिसंबर 2021 को न्यूज़18 हिंदी की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ था, जिसे भोपाल से प्रकाशित 'देशबंधु' ने भी संपादकीय पन्ने पर जगह दी थी. यह लेख धर्मवीर भारती कृत 'युद्ध यात्रा' की समालोचना के साथ ही विमर्श के बिंदु उठाता है.)



पाकिस्तान दुनिया का संभवत: पहला और इकलौता ऐसा देश था, जो एक धर्म के आग्रह या ज़िद के आधार पर बना, कमलेश्वर ने ‘कितने पाकिस्तान’ में इसकी गंभीर और ठोस विवेचना की थी. यह पश्चिमी पाकिस्तान से जुड़ा विमर्श था. पूर्वी पाकिस्तान में इस्लाम यानी धर्म के बरक्स बांग्ला यानी सभ्यता अधिक दृढ़ थी. जड़ों से जुड़कर जब विचार का पल्लवन होता है, तो क्रांति होती है और ऐसा ही एक मोड़ ठीक पचास साल पहले इतिहास में आया था.

“अपने भाषण में शेख मुजीब ने स्पष्ट कहा कि पाकिस्तान का हमारे लिए कोई विशेष अर्थ नहीं. वह भी अन्य विदेशी राष्ट्रों की तरह एक विदेशी राष्ट्र है. बांग्लादेश पूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र है, जहां प्रजातांत्रिक पद्धति चलेगी और मज़हब के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा.”

यह दक्षिण एशिया में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के लिए ऐतिहासिक क्षण था. 25 मार्च 1971 को पश्चिम पाकिस्तान के ऑपरेशन सर्चलाइट से एक युद्ध शुरू हुआ था, जिसे भारत-पाकिस्तान के बीच तीसरा युद्ध भी कहा जाता है, और मुक्ति संग्राम भी. उसी साल 16 दिसंबर को संग्राम की परिणति यह थी कि बांग्लादेश एक मुक्त राष्ट्र के तौर पर घोषित हुआ.

एक शिशु के जन्म के लिए नौ माह का गर्भ और असहनीय प्रसव पीड़ा होती है और जब एक राष्ट्र को जन्म लेना हो, तो यह पीड़ा पूरी मानवता एक विराट् स्तर पर महसूसती है. यहां अमानुषिकता के विरुद्ध मानवता का संघर्ष इतिहास रचता है. उस समय के अनेक सृजनधर्मियों ने चीन्हा था कि वह इतिहास का गर्भकाल था. धर्मवीर भारती ने न केवल उस काल को दर्ज करने का बीड़ा उठाया, बल्कि उनकी जिजीविषा और दृष्टि थी कि संग्राम को आंखों देखकर देश-दुनिया तक पहुंचाया जाये. उन्होंने निश्चय किया कि वह आंखों को कैमरा व शब्दों को स्क्रीन बना देंगे.

धर्मयुग के संपादक के रूप में ख्यातिलब्ध भारती ने युद्ध के मोर्चे पर जाकर, सैनिकों, मुक्तिवाहिनी के जवानों, सेना के आला अफसरों आदि के साथ संग्राम के अंतिम 10 से 15 दिन जिस तरह गुज़ारे, उसी का शब्द चित्र है ‘युद्ध यात्रा’. 1971 और 1972 में ये तमाम बातें धर्मयुग के पन्नों पर छपी थीं, जिन्हें नये सिरे से पुस्तकाकार 2020 में उस समय प्रकाशित किया गया, जब समूची मानवता एक वायरस जनित हालात के विरुद्ध युद्ध कर रही थी, भारत में बांग्लादेशियों की मौजूदगी और बेदखली को लेकर शासन व नागरिकों के बीच संघर्ष थे, भारत और चीन के बीच सीमा पर तनाव की स्थिति थी और भू-राजनीति बता रही थी कि चीन किस तरह बांग्लादेश को भारत के विरुद्ध इस्तेमाल कर सकता है. अघोषित युद्ध काल में बीते युद्ध की यात्रा के पन्नों से बिंधने पर कहीं मन में रह जाता है कि बाहरी युद्ध अलग है, भीतरी युद्ध बहुत अलग.

“भारतीय होने के नाते आज सारे संसार के समक्ष मैं सर ऊंचा करके पूछ सकता हूं कि है कोई ऐसा देश, जिसके जवानों ने बिना अपना कोई स्वार्थ आरोपित किये अपने बन्धु देश की मुक्ति के लिए उसकी धरती को अपना रक्तदान किया हो?”

भारती उस युद्ध की यात्रा में इस भाव को खोज सके, तत्कालीन मुक्तिवाहिनी के ​मुस्लिम और हिंदू जवान बन्धुत्व के भाव को जी सके, वे हज़ारों भारतीय सैनिक रक्तदानी हो सके, तो इसका एक बड़ा कारण यही था कि युद्ध केवल बाहरी स्तर पर लड़ा जा रहा था, भीतरी नहीं. हालांकि ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ के लेखक भारती इस युद्ध यात्रा में राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय राजनीति, अर्थशास्त्रीय समीकरणों और तत्कालीन विदेश नीति जैसे बिंदुओं पर न तो मुखर दिखते हैं और न ही इनके संकेत देने में दरियादिली दिखाते हैं. जहां आग और धुएं, लाशों और धमाकों के बीच भारती को ‘क़ायदे आज़म जिन्ना’ लिखा हुआ कोई बोर्ड दिखायी देता है; या जहां ‘मां काली की क़सम, बोलो नारा ए तक़बीर’ जैसा मिला-जुला नारा सुनायी देता है; और जहां-जहां भारतीय होने के नाते जंग के लड़ाकों की वीरगाथा वर्णित है, वहां ‘गुनाहों का देवता’ वाले भारती का रोमांसिज़्म अधिक नज़र आता है.

जॉर्ज बर्नार्ड शॉ पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के बीच युद्धों को जिस तरह एक प्रोफेशन और सोल्जर को एक प्रोफेशनल की तरह स्थापित कर चुके थे, उस दृष्टिकोण के सामने यह संग्राम कथा वाक़ई किसी रोमांचक फ़िल्म की पटकथा से कम नहीं दिखती. गुलेल से हेलीकॉप्टर ध्वस्त कर देने या एक हंसोड़-से ग्रामवासी का अपनी सेना के लिए दुश्मन सेना से मार खाकर भी संदेश ले आना-ले जाना, जैसे क़िस्से पटकथा में रोचकता बनाये चलते हैं. पुस्तक के रूप के बारे में हिंदी में ‘रिपोर्ट’ लिखा गया है और अंग्रेज़ी में ‘ट्रैवलॉग’. भूलवश या अनजाने हुआ हो, लेकिन सच है कि यह पुस्तक दोनों शैलियों का मिश्रण है. रिपोर्ताज के पैमाने पर इसमें कमियां निकलेंगी और केवल यात्रा वृत्तांत के पैमाने पर भी. मिश्रण के रूप में यह पुस्तक उदाहरण बन जाती है.

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युद्धों के वृत्तांत या रिपोर्ताज पहले भी लिखे जाते रहे हैं. 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के संदर्भ में शिवसागर मिश्र के ‘लड़ेंगे हज़ार साल’ को भुलाया नहीं जाना चाहिए. इसका शीर्षक ही मनुष्य की ‘युद्धवृत्ति’ और ‘युद्धनियति’ का सूचक है. रिपोर्ताज को तो युद्ध की ही उपज माना गया. रेणु ने दूसरे विश्वयुद्ध के संदर्भ में धर्मयुग में ही लिखा था : “गत महायुद्ध ने चिकित्सा के चीर-फाड़ विभाग को पेनसिलिन दिया और साहित्य के कथा विभाग को रिपोर्ताज.” ‘नेपाली क्रांति कथा’ के लेखक का यह वाक्य इतना दूरदर्शी था कि फिर साहित्य में रिपोर्ताज का पल्लवन कथा शैली में होता रहा और इसमें युद्ध जैसी स्थितियों की कहानी कहना श्रेयस्कर रहा.

जब हमारी खोज प्रेम की ही होती है, तो हम कहानी युद्ध की क्यों कहते हैं? क्या शांति का मार्ग युद्ध से बचकर संभव नहीं है? ऐसे अनेक शाश्वत प्रश्न खड़े हो जाते हैं, जब हम युद्ध की किसी भी कथा या यात्रा से रूबरू होते हैं. भारती भी इस यात्रा के अंतिम पन्नों तक आते-आते युद्ध के दृश्यों से हताहत अनुभव कर एक पूरे पन्ने में लिख पाते हैं कि युद्ध किसी भी लक्ष्य के लिए हो, कोई भी करे, रक्त गाथा निर्दोष बच्चों, विवश औरतों और सभ्यता की नींव को पुख़्ता करने वाले किसानों, शिल्पियों, कामगारों की छाती पर ही लिखी जाती है. भारती जहां लिखते हैं, “किसी ने यह क्यों नहीं लिखा कि परम घृणा भी कहीं हमें अपनी घृणा के लक्ष्य से बड़े रहस्यमय ढंग से जोड़ जाती है?” या जहां वह अमानुषिक प्रवृत्ति को समझने के लिए उस विचार प्रक्रिया के भीतर न पैठ पाने की बेचैनी दर्शाते हैं, वहां ‘अंधा युग’ के भारती के उन शब्दों के दर्शन होते हैं, जो आपको हाथ पकड़कर चिंतन तक ले जाते हैं.

युद्ध पर चिन्तन की आवश्यकता हमेशा रही है, हमेशा रहेगी. और यह वाक्य लिखते हुए वह कवि मन बहुत व्यथित होता है, जो ‘जंग तो ख़ुद ही मसअला है एक, जंग क्या मसअलों का हल देगी?’ कहने का हामी रहा है. यह सच है कि युद्ध होते रहेंगे लेकिन हमें इसे भी सच बनाना होगा कि हम युद्ध के विरुद्ध आदर्शों के लिए जीवट नहीं मरने देंगे. हम कहेंगे :

तू और करता रहेगा तरह-तरह की जंग
मैं वहशतों से सौ फ़ीसद निकल भी जाऊंगा
तू सरहदों को वतन मानता रहेगा दोस्त
इधर मैं प्यार में बेहद निकल भी जाऊंगा

शेख मुजीब ने भुट्टो के उस इसरार को ख़ारिज कर दिया था कि पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच कुछ विशेष संबंध बने रहें ताकि पाकिस्तान की परिकल्पना और उसके आधार पर औचित्य का प्रश्न न खड़ा हो. यह प्रसंग भारती ने पाकिस्तान के प्रति घृणा से भरे एक भारतीय हृदय के साथ इस तरह लिखा कि मुजीब का इनकार एक सामूहिक घृणा हो या उसकी निजी विजय हो. यहां ‘कनुप्रिया’ सिरजने वाले भारती का कवि हृदय किस अवकाश पर चला गया? एक सृजनधर्मी मन और मानवीय मूल्यों के पैरोकार भाव को यहां क्यों लक़वा मार गया? बाहरी स्तर पर लड़ा जा रहा युद्ध भीतर कैसे घुसपैठ कर गया?

“कौन सा है वह उद्देश्य, लक्ष्य या धर्म, जिसके पीछे हम लड़ें? कौन सी है वह नैतिकता, जो हमें आज भी परस्पर लड़ने की आज्ञा दे सकती है?… क्यों नहीं समझता मनुष्य अपना स्वार्थ, जो सबका स्वार्थ हो?”

तब जबकि पश्चिम पाकिस्तान से बांग्लादेश की मुक्ति का संग्राम संपन्न हो चुका था, मन-हृदय मुक्त क्यों नहीं हुआ? ‘तूफ़ानों के बीच’ रिपोर्ताज में रांगेय राघव की तरह भारती ने उपरोक्त मानुषिक और प्राकृतिक प्रश्नों को तवज्जो क्यों नहीं दी? भारती की ‘युद्ध यात्रा’ इन अर्थों में महत्वपूर्ण है कि यह चिन्तन के लिए उकसाने और बहस के लिए आमंत्रित करने वाली कृति है.

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