साहित्य का 'लूडो'
ऐसे तो लूडो एक indoor खेल रहा, लेकिन इस 'तकनीकिया' दौर में कहीं भी खेलिए, क्या indoor, क्या outdoor! आप किसी साहित्य सम्मेलन में खुद को outsider पा रहे हैं, तो वहीं खुद को एक जज़ीरा बनाकर अपनी हथेली से ही आप outreach हो सकते हैं! मंज़र देखिए कि आप हथेली पर अपने दोस्तों के साथ लूडो खेल रहे हैं और ध्यान ही नहीं है कि आपकी आंखों के सामने साहित्य का लूडो कैसे खेला जाता है!
इतना global खेल है, तो साहित्य इससे अछूता क्यों रहे? साहित्य के लूडो की अपनी बिसात है, अपने ख़ेमे हैं, अपने वर्ग और वर्ग संघर्ष. बड़ा दिलचस्प खेल नज़र आता है. कौन सा लाल है, कौन सा पीला...? ख़ैर, बताये क़ाएदे के मुताबिक़ साहित्य के लूडो की कथा का श्रीगणेश करते हैं, बोलिए : ॐ इदमान्नं, इमा आपः इदमज्यं, इदं हविः, ॐ यजमान, ॐ पुरोहित, ॐ राजा, ॐ कविः...
'पट्टेदार' से बिस्मिल्लाह करते हैं. साहित्य के लूडो में इस ख़ेमे का आकर्षण वैसा ही है, जैसे बच्चे लूडो खेलते वक्त 'मेरी लाल, नहीं मेरी लाल गोटी' करते हैं. यहां पहला वर्ग शैक्षणिक सिस्टम का है. जैसे कुलवाद है कि अगर आप रीडर, लेक्चरर, प्रोफेसर हैं (इंग्लिश विभाग के हिंदी या उर्दू साहित्यकार की औक़ात बढ़ जाती है) तो साहित्यकार होंगे ही. यूनिवर्सिटी के संचालक या कुलपति हो गये तो महान साहित्यकार होना पड़ता है.
दूसरा वर्ग बाइज़्ज़त मठाधीश है. यहां वो विशिष्ट आबादी होती है, जो प्रकाशन, प्रचार, पहुंच, पुरस्कार और मूल्यांकन जैसे तमाम घोड़ों की लगाम अपने हाथ में रखती है. कोई बड़ा-सा साहित्यिक क़िला इनकी बपौती होता है. इन्हें अक्सर 'दादा' जैसे संबोधनों से पुकारा जाता है, लेकिन ये अंडरवर्ल्ड के 'भाई' जैसे होते हैं. तीसरा वर्ग अकादमी वालों का होता है. यहां साहित्यकार का सरकारी पालन पोषण तो होता ही है, बग़ैर इनके नवाज़े कोई भी साहित्यिक मुश्किल से बड़ा हो पाता है.
इस ख़ेमे की चौथी गोटी साहित्यिक पत्रिकाएं या किताबें छापती है. छोटी-मोटी संस्थाएं बना लेती है. ये ज़्यादातर 'स्वयंभू' श्रेणी होती है. वैसे यह शब्द कइयों को अपनी आग़ोश में लेता है. साहित्य के लूडो में पट्टेदार ख़ेमा ज़्यादातर group game खेलता है और जीत सुनिश्चित रखता है, कैसे? सिर्फ़ समझना पड़ता है क्योंकि यह बताने वाले को पाप लगता है. बोलिए : ॐ अंगीकरण, शुद्धिकरण, राष्ट्रीकरण, ॐ मुष्टीकरण, तुष्टिकरण, पुष्टिकरण...
अगर कविता या कहानी की किताब album ज़्यादा नज़र आये या फिर सोने चांदी के बेलबूटे हों, तो समझिए बात 'मालदार' ख़ेमे की है. इस ख़ेमे के साहित्यकारों को हर उस शख़्स ने महान बताया होता है, जिसके autograph के लिए आप मन्नतें करते हैं. इस ख़ेमे के पहले वर्ग में स्वाभाविक तौर पर व्यापारी, उद्योगपति, फाइव स्टार अस्पताल या इंस्टीट्यूट चलाने वाले सभी पुण्य प्रतापी समाजसेवी शामिल होते हैं.
दूसरा वर्ग अफ़सरों का होता है. ख़ास वो होते हैं, जिनके रिटायर होने में लंबा वक़्त हो. ये जिस दिन साहित्य का सफ़र शुरू करते हैं, उसके अगले दिन साहित्यिक सम्मेलनों की अध्यक्षता बाहैसियत वरिष्ठ साहित्यकार करते पाये जाते हैं. प्रकारान्तर से इस वर्ग में प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टर, इंजीनियर, सीए जैसे कुशल नामदार भी जुड़ते हैं. नेता वर्ग में रेंज और वैरायटी होती है. गांव-कस्बे में सरपंच से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्रियों तक इस गोटी का विस्तार है. इनके भव्य 'साहित्य' के साथ 'मीन काम्फ' ओह सॉरी यानी 'मेरी कहानी' bestseller और चर्चित जैसे मार्केटिंग शब्द जुड़े होते हैं.
लूडो की पहुंच देखिए! वैसे खेल है तो एक गोटी तो अखाड़े की होना ही चाहिए. मालदार ख़ेमे में बाबा, स्वामी, पीर, हज़रत टाइप शब्दों से पुकारे जाने वाले दिव्य साहित्यकार लूडो को ग़ज़ब आध्यात्मिकता से सराबोर करते हैं. इनका संदेश यही होता है 'न कोई गोटी पिटती है, न कोई पीटती है, गीता उठाकर देखिए, हर कविता पहले से लिक्खी है!' बोलिए : ॐ डॉलर, ॐ रूबल, ॐ पाउंड, ॐ साउंड, ॐ साउंड, ॐ साउंड...
कालजयी, award winning, चमत्कारी और स्थापितों की दुनिया के साथ संघर्ष की दुनिया भी है, तभी तो खेल रोमांचक है. 'दावेदार' ख़ेमे में पहला दावा पत्रकार पेश करते हैं. क़लमजीवी होते हैं, तो पैरेलल साहित्य जगत खड़ा करने का शौक़ इन्हें होता है. साहित्य को मंच देना कर्तव्य होता है, तो चुपके-से ख़ुद भी चढ़ जाते हैं. ये सूचनात्मक और खोजी साहित्य के हामी होते हैं पर साहित्यकार होने का नुस्ख़ा कभी-कभी ही खोज पाते हैं.
दूसरी कलाओं से जुड़े नामों की अपनी एक गोटी है. ख़ास तौर से फ़िल्मी दुनिया में 'दो मिनट की शोहरत का तामझाम' रखने वाले साहित्य की दुनिया में अमिट छाप छोड़ने के लिए कोई भी जोड़-तोड़ करने से नहीं चूकते. संघर्ष तो उनका भी कम नहीं जो लोहे-लकड़ी पर सफ़ेद चादर चढ़े मंचों से काग़ज़, क़लम, दवात वाले मंचों पर दलील पेश करते हैं. चूहे-बिल्ली वाला खेल ये है कि श्रोता वाली गोटी के पास पाठक, तो पाठकों वाली गोटी के पास श्रोता न पहुंचे, यह अंतर्युद्ध चलता है.
संघर्ष करने वाली एक गोटी असंगठित क्षेत्र की है. ये अचानक कहीं से भी प्रकट हो जाते हैं और कहते हैं कि साहित्य के लूडो में हम भी पांसा फेंकेंगे. दावेदार अस्ल में, एक तरफ लूडो के रोमांच को नये मोड़ देते हैं, तो दूसरी तरफ़, कमोबेश safe point या गोटी डबल करने की जुगत में दिखते हैं. बोलिए : ॐ गुटनिरपेक्ष, सत्तासापेक्ष जोड़-तोड़, ॐ छल-छन्द, ॐ मिथ्या, ॐ होड़महोड़...
अब जो बचा हुआ ख़ेमा है, उसके नाम के साथ 'दार' प्रत्यय जुड़ता नहीं है क्योंकि फ़ितरतन ये सब कुछ disown करने वाले होते हैं. बेशक, पहली गोटी का नाम नैसर्गिक उर्फ़ क़ुदरती है. ये जन्म घुट्टी में ही पद्य या गद्य पिये होते हैं. इन्हें तारीफ़ें तो हर जगह भरपूर मिलती हैं, लेकिन और कुछ के लिए मुक़द्दर भरोसे होते हैं.
इस ख़ेमे का दूसरा और तीसरा वर्ग बाक़ी ख़ेमों से बनता है. जिन्हें अपने ही आगे न आने दें, वो... और जो अपने वर्ग में अपवाद हों, वो इस ख़ेमे में विनम्र भाव से रहते हैं. चौथी गोटी सूफ़ी, संत और फ़कीर टाइप नामों से जानी जाती है. भव्यता, दिव्यता, भौतिकता से परे इस गोटी के खुलने की नौबत ही बहुत कम आ पाती है. इस ख़ेमे में दो प्रमुख लक्षण हैं : अव्वल तो यह दुनियावी ढंग से 'कुशल' व 'practical' नहीं होता. दूसरा, साहित्यकार को ज़िंदा रहने के लिए कुछ काम करना ही होता है, तो यह ख़ेमा सोये किसी के भी साथ, इसका ख़्वाब और सुब्ह साहित्य ही होता है.
इस ख़ेमे का कोई नाम या रंग नहीं है, फिर भी आप चाहें तो जानदार, बेदार या हक़दार जैसा नाम सोच सकते हैं. राज़ यही है कि यह ख़ेमा खेल में रहते हुए भी खेल के मोह में नहीं रहता. या तो यह ध्यानमग्न रहता है या फिर खरा-खरा बोलने में क़तई हिचकता नहीं. बाज़ी जो भी हो, इसकी मुक्ति तय होती है. बोलिए : ॐ धरती, धरती, धरती, व्योम, व्योम, व्योम, व्योम... हरिः ॐ तत्सत, हरिः ॐ तत्सत।।
लूडो का मूल नियम है कि अलौकिक, प्रतिस्पर्धी या निर्मोही, किसी भी अखाड़े की कोई भी गोटी हो, खुलती तभी है जब पांसे में 'छह' आये. विडंबना यह है कि अब तो निल बटे सन्नाटे भी लूडो के माहिर हैं. 'तकनीक' और 'बाज़ीगरी' से अक्सर नियमों की धज्जियां ऐसे उड़ती हैं कि 'game-over' हो जाता है. ख़ेमों की नफ़रत और ताक़त की सियासत का खेल ऐसा हो जाता है कि इस लूडो में साहित्य ही 'outsider' नज़र आता है.
(यह व्यंग्य देवास से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका अर्बाबे-क़लम में 2021 में प्रकाशित हुआ था.)
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