गुरुवार, दिसंबर 21, 2023

सिनेमा

शैक्षिक मूल्य और हिन्दी सिनेमा


यह मूल्यों का समय है भी या केवल विकास का ही है? हर समय के अपने सच होते हैं और अपने प्रश्न. समाज, कला या जीवन... बाज़ार आपके घर ही नहीं, आपके मन-मस्तिष्क, अवचेतन तक पैठ चुका, तब आप मूल्यों के प्रश्न खड़े करना ही चाहते हैं. सिनेमा क्या, अन्य अधिकतर क्षेत्रों की तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी 'अवमूल्यन' स्थापित सत्य है. शिक्षा का बाज़ार बड़ा है. विमर्श जारी हैं, छिटपुट प्रयास भी. शिक्षा नीति में जब तक मूल्य के बजाय प्रणाली, सरकारी तथ्यों (कंटेंट) और उपकरणों को ही तरजीह मिलेगी, चिंताएं तो रहेंगी.


Satyakam Movie Still Credit youtube

"अब कोई कहता है कि देश विकसित हो रहा है, तो कहता है कि मशीनें इतनी आ गयीं.. हम पूछते हैं आदमी कितना अच्छा हुआ? कोई बताता नहीं, कैसे बताएगा क्योंकि आदमी तो अच्छा हुआ नहीं ना!"

एक साक्षात्कार में महादेवी वर्मा जी द्वारा जतायी गयी यह चिंता 35 साल बाद भी कितनी समीचीन है. अब सवाल यह है कि क्या शिक्षा तंत्र की कोई उपलब्धि नहीं रही? तुरंत मन में दर्शन, विज्ञान, गणित, तकनीक, कला आदि क्षेत्रों के कई महापुरुषों के नाम आ जाएंगे और दावा कि भारतीय शिक्षा ढांचे ने ही ये उत्पाद दिये. समझने की बात यह है कि एक लंबी उम्र में सुख और गौरव के कुछ क्षण तो होते ही हैं, मूल्यांकन एवं विमर्श समग्र पर होता है.

यही कसौटी हिन्दी सिनेमा के लिए भी है. तक़रीबन 100 साल की उम्र वाले हिन्दी सिनेमा में मूल्यपरक तस्वीरें कितनी बनीं या उनका हिस्सा कितना रहा? हिन्दी सिनेमा में कुछ ही सही, यक़ीनन सार्थक श्रेणी के चित्र बने हैं. इधर बाज़ार, मूल्यहीनता और सस्ते मनोरंजन की ज़बरदस्त गिरफ़्त में रहने के आरोप हमेशा इस उद्योग पर रहे हैं. महात्मा गांधी की तीखी प्रति​क्रिया के कारण भी संभवत: यही थे. जब बोलती फ़िल्मों की शुरूआत को एक दशक भी पूरा नहीं हुआ था, तब गांधी ने सिनेमा को सामाजिक बुराई कहकर सिरे से ख़ारिज कर दिया था. तब कुछ जागरूक फ़िल्मकार सिनेमा के पक्ष में खड़े हुए थे.

"सिनेमा एक कला है, अभिव्यक्ति का एक माध्यम है इसीलिए कुछ (या अधिकांश) फ़िल्मों के आपत्तिजनक होने के कारण इसकी निंदा करना उचित नहीं है. आख़िरकार, किताबों की निंदा इसलिए नहीं की जा सकती कि उनमें पोर्नोग्राफी के ग्रंथ भी शामिल हैं."

ख़्वाजा अहमद अब्बास ने खुली चिट्ठी में गांधी जी से सिनेमा के प्रति उदारवादी रवैया अपनाने की गुज़ारिश करते हुए पुरज़ोर तर्क देकर सिनेमा की संभावनाएं बतायी थीं. इस चिट्ठी में अब्बास ने कुछ अमेरिकी और भारतीय फ़िल्मों का उल्लेख कर दावा किया था कि 'ये कठोरतम नैतिक मानदंडों के लिहाज़ से भी अद्वितीय फ़िल्में' रहीं. मूल्यों के मानदंडों पर अगर सिनेमा को याद कीजिए तो वी. शांताराम, अब्बास और बिमल रॉय जैसे फ़िल्मकारों के कई चित्र सामने रील की तरह चलने लगते हैं.

एक स्त्री के स्वयं के उद्धार की कहानी (सामाजिक मुद्दों को छूते हुए) के रूप में 'आदमी' रही हो या एक बूढ़े से ब्याह दिये जाने के बाद एक किशोरी का रूढ़ि विरोध दर्शाने वाली 'दुनिया न माने' हो, जाति व्यवस्था की सामाजिक रूढ़ि को चुनौती देती 'अछूत कन्या' हो या ईमानदारी के मूल्य को स्थापित करने वाली 'परख' हो... शुरूआती दौर से ही सिनेमा निर्माण का एक बड़ा वर्ग व्यवसाय को तरजीह भले दे रहा था, लेकिन उपर्युक्त फ़िल्मों ने एक समानांतर धारा बनाने का बीड़ा उठाया था, जिसका कारवां किसी रेस में शामिल हुए बग़ैर अपनी गति से चलता रहा. कभी बहकते, कभी दहकते तो कभी महकते हुए.

गांधी के नाम ख़्वाजा अहमद अब्बास का पत्र. Credit Google

शैक्षिक मूल्यों को स्थापित करने वाली फ़िल्में बेशक और बननी चाहिए थीं लेकिन बाज़ार की दौड़ में मुनाफ़े के चक्र हावी रहा. जिससे सर्जरी की संभावना थी, सिनेमा के उस माध्यम को केवल एनिस्थीसिया बनाकर छोड़ दिया गया.

शिक्षा और सिनेमा विषय आधारित लेख में जयप्रकाश चौकसे जी लिखते हैं, "असली चिंता की बात यह है कि हमारी शिक्षा भी अमेरिकन प्रणाली से प्रेरित है.. अब शिक्षा अच्छा मनुष्य नहीं, सफल आदमी रच रही है". प्रकारान्तर से महादेवी को दोहराते इस सूत्र से समझना चाहिए कि शिक्षा ही नहीं, विकास की भारत की अवधारणा ही पश्चिम से प्रेरित है. अच्छे मनुष्य बनाम सफल आदमी का रूपक यही है कि भारत में कलात्मक या उपयोगी नहीं, 'कमाऊ' सिनेमा रचा जा रहा है. विडंबना क्या है? 'अच्छा' व्यवस्था में 'कमाऊ' नहीं है.

शिक्षा संबंधी सिनेमा विषय पर लेखों को खोजें तो ढेर सारी फ़िल्मों के नाम मिलते हैं, शांताराम निर्मित फ़िल्म 'बूंद जो बन गयी मोती', सत्येन बोस निर्देशित 'जागृति', भालेराव पेढारकर की फ़िल्म 'वंदे मातरम आश्रम' से लेकर प्रकाश झा निर्मित 'आरक्षण' जैसी फ़िल्मों की चर्चा चौकसे जी करते हैं. अन्य लेखों में इम्तिहान, ब्लैक, तारे ज़मीन पर, थ्री इडियट्स, मुन्नाभाई एमबीबीएस, निल बटे सन्नाटा जैसी फ़िल्मों तक का उल्लेख मिलता है, जो बेशक सार्थक ​फ़िल्में हैं.

महत्वपूर्ण यह समझना है कि शिक्षा जगत से जुड़े संदर्भ, पात्र या विषय कई फ़िल्मों में रहे हैं, हो सकते हैं, लेकिन शैक्षिक मूल्यों की थीम किन फ़िल्मों की रही है. शैक्षिक मूल्यों के लिए उस सिनेमा की ओर देखना होगा, जो श्रेष्ठ मनुष्य-श्रेष्ठ समाज की कल्पना/विचारभूमि पर खड़ा हो. ऐसी शिक्षा जो युद्धभूमि में आकर परीक्षा दे सके और ऐसा सिनेमा जो 'युद्धकाल' में शिक्षित होने के लिए प्रेरणा बन सके.

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'सत्यकाम', नारायण सान्याल के उपन्यास पर ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित यह फ़िल्म शैक्षिक मूल्य के लिहाज़ से अव्वल दर्जे की कही जानी चाहिए. यह उस विचार को केंद्र में रखती है, जहां से कोई सत्यजीवी पैदा हो सकता है. इसी संबंध में, वी. शांताराम की कालजयी फ़िल्म 'दो आंखें बारह हाथ' को याद किया जाना चाहिए. कहानी भले एक क़ानूनी प्रयोग की हो, इसकी मूल भावना में विचार और संदेश निहित हैं. कैसे एक जेलर कुछ अमानुषों को मनुष्य बनाता है, इस तरह के शिक्षा मूल्यों की खोज निरंतर करनी होगी, शोध के ज़​रीये उसका विषय विस्तार भी.

मुझे याद है बचपन में, साल में एक बार फ़िल्म दिखाने के लिए स्कूल की तरफ़ से टॉकीज़ ले जाया जाता था. तब जो फ़िल्में दिखायी जाती थीं, वो तथाकथित बाल फ़िल्में होती थीं. बालकों को मनोरंजन सुलभ हो और कोई संदेश मिल जाये, इसका भी ध्यान फ़िल्म चयन के समय स्कूल रखता था. इस पूरे अभ्यास में शैक्षिक मूल्य का कोई ध्येय सिद्ध हुआ हो! मुझे ख़याल नहीं. यह ख़याल करना तो होगा क्योंकि अब तो टीवी, वीडियो, ओटीटी, ऑनलाइन कंटेंट से जुड़े शिक्षा ढांचे में फ़िल्म और अधिक प्रासंगिक है.

शिक्षा पर विमर्श, सिनेमा पर विमर्श समय के साथ विकसित हुए हैं, तो बाज़ार से छुटकारे की ओर क़दम उठाने होंगे. 'विकास के राजनीतिक नारे' से इतर बेहतर मनुष्य के विमर्श पर ऊर्जा लगानी होगी. बेहतरी के लिए मूल्य चुकाने होंगे. फिर बक़ौल महादेवी, "राजनीति शक्ति चाहती है, त्याग नहीं. कर्तव्य से जो मिलता है वह महत्व का है."

(यह वक्तव्य वेब पत्रिका शब्द सृष्टि के फरवरी 2022 अंक में प्रकाशित हुआ था.)

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