गुरुवार, दिसंबर 21, 2023

आलेख

बजट भाषण में 'कविता' के सियासी कारण


यह लेख आम बजट 2021 के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया था, जो भोपाल से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्रों देशबंधु और सुबह सवेरे के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था. इस लेख से एक विमर्श पैदा हुआ. उसी 3 फरवरी को एक फेसबुक लाइव पर इसे लेकर चर्चा भी हुई थी, वह भी आप यहां नीचे दी गयी तस्वीर पर क्लिक करके पॉलिटिकल पांडे के फ़ेसबुक पेज पर देख सकते हैं.



मुक्तिबोध साहित्यिकों के साथ आपसी चर्चाओं में अक्सर कहा करते थे 'तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर?' तब इसे दोस्ताना मिज़ाज में एक कवि का गंभीर प्रश्न समझा जाता था. अब? कवियों की सियासत एक अलग बात है, लेकिन सियासी उल्लू सीधा करने के लिए 'कविता' को टूल बनाना एक अलग प्रोपैगैंडा है. 1 फरवरी 2021 को भारतीय संसद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण जी ने बजट भाषण का आगाज़ रबींद्रनाथ ठाकुर की कविता से किया. लेकिन ख़बर के पीछे गूंज इस सवाल के जवाब में छुपी है कि रबींद्रनाथ की ही कविता क्यों चुनी गयी?

यह सवाल अटपटा न लगे इसलिए ज़रा अपनी याददाश्त पर ज़ोर डालिए. निर्मला जी के पिछले दो बजट भाषणों के टेप मिल जाएंगे, सुनिए. पहले भी निर्मला जी भाषण में काव्य पंक्तियां बख़ूबी पिरोती रही हैं. बजट भाषणों में तक़रीबन आधा दर्जन बार कविताएं कोट कर चुकीं निर्मला जी पहले कभी 'रबींद्रनाथ टागोर' से शब्द उधार लेने नहीं गयी थीं. और पहले जिनसे, जो शब्द उधार ले रही थीं, तब क्या उनकी ज़रूरत नहीं थी?

इस बार बजट भाषण में रबींद्रनाथ की कविता आना बहुत स्वाभाविक था ही. आपने ग़ौर से देखा हो तो भाजपा को पिछले कुछ महीनों से रबींद्रनाथ इस क़दर याद आ रहे हैं कि कहीं नाथूराम गोडसे की याद का रिकॉर्ड न टूट जाये! यहां तक कि निर्मला जी के रबींद्र काव्य संदेश पाठ के दौरान लग रहा था जैसे गुरुदेव स्वयं किसी छद्म छवि में वहां विराजमान हों! सोशल मीडिया पर आप इस छवि के बारे में 'भेस धरे टैगोर का...' जैसे सुसंस्कृत काव्य भी पा सकते हैं. तो, यह कहना क्या ज़रूरी है कि किस विश्व भारती, किस विश्वरूप और किस निजविश्व के मुहावरे किस तरह गढ़े जा रहे हैं...

चर्चा यह समीचीन है कि लोक की एक साइकी होती है, जिसे बनाया भी जाता है और जिसमें घर भी किया जाता है. 'राम-राम' जपने से पाप धुलें या नहीं, लेकिन यह भ्रम ज़रूर पैदा किया जा सकता है कि जाप करने वाला साधु ही है. इसे मनोविज्ञान में आप मॉब साइकोलॉजी और इनसेप्शन जैसे​ सिद्धांतों से समझते हैं और समाज के राजनीति शास्त्र में हिटलरी सिद्धांतों से. इसी सैद्धांतिक ज़मीन से आधार को बल देने के लिए कई किस्म के बयान दिये जाते रहे हैं. वित्तीय मामलों में जब कविता का आश्रय लिया जाये, तो सजग पाठक को कान खड़े रखना चाहिए क्योंकि लक्ष्मी और सरस्वती का समवेत स्वर स्वाभाविक नहीं होता.

निर्मला जी के पिछले बजट भाषण भी समय, पार्टी की निजी ज़रूरत और छवि निर्माण के अनुरूप ही काव्योक्तियां चुनते रहे हैं. आपको याद करने या तलाशने का कष्ट न हो इसलिए यहीं देखिए :

हमारा वतन फले-फूले शालीमार बाग़-सा
हमारा वतन डल झील में खिले कंवल-सा
नौजवानों के गर्म लहू जैसा
मेरा वतन, तेरा वतन, हमारा वतन
दुनिया का सबसे प्यारा वतन

यह काव्यांश दीनानाथ नदीम से निर्मला जी ने उधार लिये थे. 2019 में केंद्र सरकार ने कश्मीर को छोटा-सा केंद्रशासित प्रदेश बना दिया था. ऐसा करने के लिए हज़ारों वर्दीधारी कश्मीर में तैनात किये गये थे. यही नहीं, तबसे वहां संचार और सूचनाओं पर जो नियंत्रण किया गया, सो अब तक लगातार बहाल नहीं हुआ. उन पूरे संदर्भों को ध्यान में रखते हुए आप समझिए कि 2020 में निर्मला जी ने कश्मीरी कवि के शब्द क्यों चुने थे!


नदीम साहब 20वीं सदी के रिवायती कवि थे. साहित्य अकादमी से सम्मानित नदीम साहब 1988 में इंतक़ाल फ़रमा गये थे. पंडितों को खदेड़े जाने, आतंकवाद पनपने और उसके बाद की अस्थिर व अत्याचारी फ़िज़ा 1990 के आसपास से कश्मीर की पहचान बनती जाती है. तो नदीम सा​हब उस कश्मीर के थे ही नहीं, जिसे हम आज जानते हैं. फिर 2020 में उस कश्मीर की कविता को किसी भाषण में लाना, जिसे 40-50 बरस पहले किसी कवि ने किसी ख़ुशगवार पल में कलमबंद किया हो, क्या मायने रखता है?

यह एक आत्मरति है. समकालीन कश्मीरी काव्य उठाकर देखिए, न आंख से ख़ून निकल पड़े तो आप पत्थर. लेकिन पत्थरों की हक़ीक़त में कंवल की याद या तो सब्ज़बाग़ होती है या दुख. आत्मगौरव और इतिहास का सिर्फ़ वो रुख़ दिखाने का टूल होता है, ​जो आपकी नज़र के अनुकूल है. इसी 'अनुकूल' को निर्मला जी के भाषणों में बार-बार आवाज़ मिलती रही है.

यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
हवा की ओट भी लेकर चराग़ जलता है

दीनानाथ कौल नदीम का नाम लेकर उनकी कविता कोट करने वाली निर्मला जी ने 2019 में जब बजट भाषण में यह शेर पढ़ा था, तब शायर का नाम नहीं बताया था. बदायूं में पैदा हुए, हल्दवानी में पढ़े और अलीगढ़ में पढ़ते-पढ़ाते रिटायर हो गये मंज़ूर हाशमी का नाम भाषण में नहीं आया था. यक़ीनन भाषण में यह नाम 'अनुकूल' वाली फ़िलॉसफ़ी के दायरे में नहीं था.

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पिछले दोनों भाषणों में निर्मला जी तमिल साहित्य को भी कोट करती रही हैं. 'निर्मला उवाच' में प्राचीन कवि थिरूवल्लूवर का प्रसंग भी बहुत रोचक और सामयिक है. प्राचीन तमिल दार्शनिक और कवि के ग्रंथ थिरूकुरल से इन अंशों को कोट करते हुए निर्मला जी ने एक आदर्श देश की कल्पना बताई थी :

'पिन्नी इन्मय, सेल्वम, विलइवु, इन्बम, एमम... यानी देश को बीमारियों से मुक्त रहना चाहिए, संपन्न होना चाहिए, कृषि में उन्नति, सुख व आनंद, और सुरक्षा समुचित होना चाहिए.'

समय पर ध्यान दें, 1 फरवरी 2020 के भाषण में यह कोट था. वैश्विक महामारी का पहला केस भारत में आ चुका था. उसके बाद तो... मौजूदा और हालिया स्थितियों के मद्देनज़र भी आप इस सिद्धांत के पैमाने पर देश की उन्नति के लिए सरकार को आंक सकते हैं. बहरहाल, यह सूत्र बताने के बाद तुरंत निर्मला जी ने इस तरह​ के दावे भी कर दिये थे कि 'महामहिम प्रधानमंत्री जी' के नेतृत्व में देश ने यह चरम आदर्श पा लिया और हाथी निकलने के बाद जो पूंछ रह गयी है, वो तो चुटकी बजाने की बात है. इसके बाद, समझदार गूगल सर्च इस तरह की खबरें बता रही थी कि निर्मला जी ने अपने भाषण में महामहिम का नाम कितनी बार लिया.

कालिदास ने कहा था : 'जैसे सूरज पानी से वाष्प लेता है और फिर वर्षा के तौर पर लौटाता है, वही धर्म राजा का है.' टैक्स के संदर्भ में इसे भी निर्मला जी ने कोट किया था. यहां कुछ विचार बिंदु हैं, जिन्हें छोड़िएगा मत. कालजयी और लोक काव्य के रचयिता कालिदास राजकवि भी थे, यह भूलना नहीं चाहिए. दूसरे, राजतंत्र के आदर्श को लोकतंत्र में क्या 'जस का तस' अंगीकार किया जाना चाहिए? तीसरे, जनता की दृष्टि राज्य के लिए जो हो, ​लेकिन जब आप स्वयं की तुलना राजा से कर रहे होते हैं, तो लोकतंत्र में विश्वास कितना रह जाता है?

'राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट...' साइकी को समझना होगा. सजग श्रोता, ख़बरदार पाठक और जागरूक नागरिक की तरह सुनना, पढ़ना और बोलना होगा. यह सवाल करते रहना होगा कि 'इस लोकतंत्र में तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर?'

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