हिंदी लेखिकाओं की आत्मकथाएं : अध्ययन-विश्लेषण
हिंदी साहित्य में पिछले कुछ समय से स्त्री विमर्श जब-तब सबसे महत्वपूर्ण गतिविधि बनता रहा है। महिलाओं के (विशेषकर गद्य) लेखन में कई पहलुओं से पड़ताल की जाती है। आयातित विधा मानी गयी आत्मकथा के क्षेत्र में भी लेखिकाओं ने ज़बरदस्त पहचान बनायी है। इन पर संवाद कम हुए, विवाद अधिक। बहरहाल, लेखिकाओं की आत्मकथाओं के हवाले से कुछ ज़रूरी पहलुओं को इस लेख में टटोलते हैं।
इन आत्मकथाओं का समाज से संबंध
किसी भी इतिवृत्तात्मक लेखन की आलोचना के पहले चरण में रस्मन उसके सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक सरोकारों की पड़ताल की ही जाती है। लेखिकाओं की आत्मकथाओं की विवेचना भी इसी सिरे से शुरू करना समीचीन है क्योंकि महिलाओं का लेखन इस संबंध में एक भिन्न दृष्टि तो रेखांकित करता ही है। शशि देशपांडे का कथन है -
“मैं महिलाओ के विषय में और उनके नज़रिये से क्यूँ न लिखूं? इस तरह लिखने के लिए हमें हमेशा से छोटा महसूस कराया गया, हमारी आलोचना की गयी, पर अब नहीं...”
वास्तव में ऐसा हुआ है। अमृता प्रीतम के आत्मकथात्मक लेखन की बेबाकी के कारण ही उन्हें समाज निकाले का दर्द भोगना पड़ा। कमला दास को अपनी आत्मकथा के बाद बनी परिस्थितियों के कारण यह तक कहना पड़ा कि ‘माय स्टोरी’ काल्पनिक कहानी है। भारत की लगभग हर भाषा की लेखिका को अपने लेखन पर आरोपों, आपत्तियों, प्रश्नों अथवा विरोधों के दंश झेलने ही पड़े हैं। यह इस देश की नियति ही है कि यहां अपमान हर कलाकार ही नहीं बल्कि हर व्यक्ति के हिस्से में आता है। प्रकारान्तर से, हमारी संस्कृति अपमान करने की स्वतंत्रता को संरक्षण देती है।
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नारी अपने पूरे इतिहास के प्रति सचेत होकर, अतीत की तमाम व्यथाओं एवं विसंगतियों को लेकर, काग़ज़-कलम के साथ उपस्थित होती है। लैंगिक असमानता, आर्थिक विवशता, कानूनी भेदभाव और परिवार से लेकर समाज व देश-दुनिया के स्तर तक उसकी दोयम दर्जे की स्थिति, आदि एक महिला लेखक के अवचेतन तथा चेतन को उद्वेलित करती है। स्वाभाविक रूप से, वह संपूर्ण नारी जाति की पीड़ा को घनीभूत करते हुए अपनी पीड़ा में एकांतिक नहीं रह जाती। अफ़सोस तो यह है कि महिलाओं की इस सामाजिक स्थिति में बदलाव सदियों से नहीं हुआ है या बदलाव की गति बेहद धीमी है। इस स्थिति को ‘काग़ज़ी है पैरहन’ में इस्मत चुगताई बेबाकी से बयान करती हैं -
“औरत की खेत-खलिहान और मवेशियों की तरह हिफाजत होती थी, है। मालिक और मल्कियत के लिए अलग-अलग उसूले-जिन्दगी बन गये। मर्द पालनहार पति और ख़ुदाए-मज़ाजी। औरत के फरायज़ मर्द की ख़िदमत... उसके बाद वही अंजाम होता जो बूढ़े नाकारा मवेशियों का होता है।“
इसी तरह का बयान महादेवी वर्मा ने ‘श्रंखला की कड़ियां’ में दर्ज करते हुए लिखा है कि पशु-पक्षियों की तरह मर्दो द्वारा औरत पाली जाती है जो उसके अधिकार की वस्तु ही मात्र रह जाती है। ‘ख़ुदा की वापसी’ में नासिरा शर्मा लिखती हैं -
“एक तरफ कयामत के दिन मुरदों की पहचान मां के नाम से होगी, बाप के वंशवृक्ष से नहीं, फिर उसी औरत को आखिर प्रताड़ित कौन कर रहा है - सियासत, समाज, अज्ञानता।“
ज़ोया हसन कहती हैं कि मुसलमान औरतों की स्थिति को सामाजिक और आर्थिक पहलुओं को नज़रअंदाज़ करते हुए समझना असंभव है। लेकिन यह क्या केवल मुसलमान औरतों के संबंध में कथन है? भारत के हर समाज, हर संप्रदाय की औरतों के साथ यह बात लागू होती है। बल्कि, दुनिया भर की औरतों की आबादी के बहुत बड़े हिस्से पर यह बात लागू होती है। विश्व स्तर की मान्य एवं विजेता खिलाड़ी सेरेना विलियम्स तक महिलाओं के प्रति आर्थिक असमानता के मुद्दे पर अपनी पीड़ा व्यक्त कर चुकी हैं।
समाज के हर मोर्चे पर, हर इकाई में औरत जब संघर्ष कर रही है और सदियों से घुट ही रही है तो जब वह अपनी कहानी कहती है तो स्वाभाविक रूप से समाज के ठेकेदारों को अपना सिंहासन डोलता दिखता है और इसी डर के मारे वे अपनी सत्ता की पूरी सामर्थ्य के साथ विरोध पर उतर आते हैं। 2010 में हिंदी लेखिकाओं के लेखन को लेकर विभूति राय की एक टिप्पणी चर्चा में रही थी जिसमें उन्होंने महिलाओं के लेखन में देह विमर्श को तरजीह दिये जाने के विषय पर लेखिकाओं को छिनाल कह डाला था। मैत्रेयी पुष्पा जी ने इस पर आपत्ति व्यक्त करते हुए कहा था -
“इसमें क्या संकीर्ण है कि अगर औरतें अपनी ज़िंदगी अपने मुताबिक़ जीना चाहती हैं, घर से बाहर निकलना चाहती हैं, आपसे बर्दाश्त नहीं होता तो हम क्या करें, पर आप क्या गाली देंगे। ...हम महिलाओं के सम्मान के लिए बड़ी लंबी लड़ाई लड़कर यहां पहुंचे हैं, लेकिन इस तरह के पुरुष हमें गालियां देते हैं, एक पत्थर मारते हैं और सब पर कीचड़ फैला देते हैं।“
बाद में, राय ने स्पष्टीकरण देते हुए एक तरह से माफ़ी मांग ली थी लेकिन ऐसा एक नहीं कई बार हुआ है। पुरुषों ने स्त्री देह पर बेबाकी से लेखन किया है। जब-तब यह देह खोली गयी है और इस पर विमर्श हुआ है लेकिन स्त्री स्वयं इस देह की बात करती है तो पुरुषों की दुनिया में उसका विरोध होता है। यही समाज की विडंबना है। वास्तविकता यही है कि एक स्त्री का कलाकार या लेखक होना ही पुरुष को किसी चुनौती या खतरे का-सा आभास देता है। लेखिकाओं की आत्मकथाओं की संख्या कम होने के विषय में मैनेजर पांडे ने कहा था “स्त्रियों की आत्मकथाएँ तो इसलिए नहीं है कि उन्हें हमारे सामाजिक ढाँचे में सच बोलने की स्वतंत्रता नहीं है”। डॉ. महेश संतोषी की एक कविता की ये पंक्तियां पुरुष समाज के खोखलेपन को बारीकी से उजागर करती हैं -
आदमी के आदिम दुराचरण का सबसे सनातन दर्पण है
औरत में पवित्रता की खोज
इसीलिए इतिहास के हर युग में
वह रचता रहा सतीत्व पर ऋचाएँ, मंत्र, श्लोक।
जानवरों के साथ-साथ एक दिन
आदमी की जायदाद बन गई औरत
फिर जायदाद जैसी ही देखी गयी
परोसी गयी, भोगी गयी औरत!
आदमी का जंगल राज-हर संस्कृति, सभ्यता,
व्यवस्था को नकारता रहा।
जिस दिन अस्मत ईजाद हुई थी
उस दिन आधी मर गयी थी
दुनिया की हर औरत!
इन आत्मकथाओं ने पुरुष समाज की पूरी व्यवस्था को कठघरे में कहीं न कहीं खड़ा किया है और अपनी पीड़ा की गहरी सच्चाइयों को खुलकर सामने रखा है, इसीलिए ये आत्मकथाएं साहित्य के पुरुष सामंती सोच द्वारा उपेक्षित रही हैं अथवा इनका समुचित मूल्यांकन अब तक प्रतीक्षित है। लेखिकाओं की आत्मकथाएं समाज से सीधे जुड़ी हैं, कई स्तरों पर समाज की कुरूपता को रूपायित करती हैं और समाज को गहरे प्रभावित करती हैं इसलिए इन्हें समाज का स्त्री इतिहास तक माना जा सकता है। स्वाभाविक रूप से इनमें कहीं कुछ विसंगतियां भी हैं, कमियां भी लेकिन यह तो हर कलाकार की कलाकृति में पाया जाने वाला पहलू है।
इन आत्मकथाओं की मनोवैज्ञानिक अंतर्वस्तु
एक त्रासदी, एक कठोर कारावास या एक कठिन समय तक किसी व्यक्ति के मन पर गहरा असर छोड़ जाता है। सदियों की पीड़ा भेगती हुई स्त्री जब अपनी पीड़ा के उफान पर आती है तो वह नदी की बाढ़ से भी अधिक रौद्र होती हुई हर सीमा तोड़कर बहना चाहती है। ऐसे में, कोई लक्ष्मण रेखा या मर्यादा का तर्क सिरे से खारिज कर दिया जाना चाहिए। साहित्य में जब एक महिला आत्मकथा का सृजन करती है तो क्या यही माना जाएगा कि वह इस तरह के आवेग को ही प्राथमिकता देती है? या ऐसी पक्षधरता ही उचित है?
इसे ‘माय स्टोरी’ शीर्षक से आत्मकथा लिखने वाली कवयित्री कमला दास के शब्दों में ठीक से समझा जा सकता है -
“जो कुछ भी हम लिखते हैं, उसमें एक रचनात्मकता होती है। कहाँ वास्तिवकता आती है और कहाँ कल्पनाशीलता, इससे आपको कोई फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए। यह देखना चाहिए कि वो चीज़ हमें छू रही है या नहीं, हमें प्रेरणा मिल रही है या यह हमें हिला रही है या नहीं। बाकी सब बातें बेमानी हैं।“
मन की बात या मन का विज्ञान समझ पाना बहुत दूभर कार्य है। फिर भी, इसके बीज जन्म के तुरंत बाद से मिली परवरिश एवं परिवेश पर एक स्तर पर आश्रित होते हैं। लैंगिक भेदभाव हमारा समाज हर स्त्री को जन्म के साथ ही दे बैठता है। फिर तमाम तरह की असमानताओं एवं सीमाओं का उद्घाटन होता जाता है। एक स्त्री का मन परिपक्व होते-होते पूरी स्त्री जाति के मन का संघनित मन बन जाये, तो आश्चर्य नहीं है। ऐसे ही मन लेखन या कला की ओर प्रवृत्त होते हैं, यह भी माना जा सकता है। इस तथ्य को प्रणय कृष्ण इस तरह व्यक्त करते हैं -
“अच्छी आत्मकथा आपकी ‘निजता’ से वाद-संवाद करती है, आपको ‘आप’ से मिलाती है, आपके ‘आत्मनिर्वासन’ को भंग करती है, आपकी अपनी कहानी में घुलमिल जाती है।“
लेखिकाओं की आत्मकथाओं में देह एवं संबंधों के विमर्श को फ्रायड के दमित इच्छाओं के सिद्धांत के अनुरूप भी समझा जा सकता है, और ऐसा गलत भी नहीं है। फिर भी, एक स्तर पर ऐसा लगता है कि यह सीधे समाज के पाखंड को चुनौती देने के मकसद से उठाया जाना वाला विद्रोही तेवर है। यह एक लंबी यातना से मुक्त होने की प्रबल इच्छा का परिचायक भी है। भले ही, इससे समाज के कुछ नियम या ढांचे टूटते हैं, लेकिन पूरे होशो-हवास के साथ एक लेखिका जब इस सत्य का उद्घाटन करती है तो वास्तव में, वह विभिन्न स्तरों पर अपनी स्वतंत्रता हासिल करने की छटपटाहट को ही व्यक्त करती हुई प्रतीत होती है। अवंतिका शुक्ल लिखती हैं -
“इन लेखिकाओं के पास पुरुषों की आत्मकथाओं के समान किसी बड़ी परंपरा के निर्माण का दंभ नहीं है, बल्कि एक चेतनायुक्त व्यक्तित्व की पीर है, जो अपनी बीमारी के कारण को समझ रहा है और इलाज कर रहा है पर उसका इलाज दुनिया द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया है। ...इन आत्मकथाओं पर कई बार आरोप लगे कि इन्होंने स्त्री की मुक्ति सिर्फ देह के माध्यम से ही खोजी। बाकी मुद्दों से वे कटी रहीं। पर ऐसा नहीं है, इन लेखिकाओं ने जातिवाद, सांप्रदायिकता, अशिक्षा जैसे मुद्दों पर व्यवस्थित चर्चा की है। पर यौनिकता भी एक महत्वपूर्ण पहलू है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।“
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ज़्यॉ पॉल सार्त्र के अस्तित्ववाद के सिद्धांत का स्त्री लेखन पर एक गहरा प्रभाव दिखता है। एक बेचैनी, एक उष्मा और एक बेखैफ़ मौज इन आत्मकथाओं में पूरी सार्थकता के साथ दर्शनीय है। हिंदी साहित्य में बच्चन की आत्मकथा को श्रेष्ठ माना गया है। इसके बाद विष्णु प्रभाकर की तीन खंडों में आयी आत्मकथा चर्चित रही है। लेकिन लेखिकाओं की आत्मकथाओं को एक वर्ग विशेष की व्सतु निरूपित करने वाली आलोचना ने न्याय नहीं किया है। इससे दो बातें एकदम साफ हैं - पहली, कि हिंदी पट्टी का साहित्य जगत भारत में दूसरी भाषाओं के साहित्य जगत से बहुत पिछड़ा हुआ है और दूसरी यह कि, वह जो पुराना जुमला है कि औरत के मन को समझ पाना ब्रह्मा के बस में भी नहीं है, वह इस प्रकरण में इस अर्थ में सामने आता है कि जब एक स्त्री मन अपना सच खोलकर रखता है तो पुरुष का पूरा अस्तित्व शर्म, भय एवं ग्लानिबोध से भर उठता है और वह आंखें मिलाने की हिम्मत तक जुटा नहीं पाता।
लेखिकाओं की आत्मकथाएं कम क्यों
भारत में पहली आत्मकथा बनारसीदास जैन कृत ‘अर्द्धकथा’ मानी जाती है जिसका समय 17वीं सदी के मध्य का है। किसी महिला द्वारा हिंदी में पहली आत्मकथा का स्पष्ट रूप से कोई जिक्र नहीं है लेकिन 19वीं सदी से आत्मकथात्मक लेखन की ओर महिलाएं प्रवृत्त हुईं। इसकी पूर्वपीठिका में हम मान सकते हैं कि बुद्ध काल की थेरियों, मीरा, आंडाल आदि का लेखन भी आत्मकथात्मक ही था, हालांकि वह इस विधा के सांचे में तराशा हुआ नहीं था। इस लेखन की आधार भाव-संपदा चूंकि भोगा हुआ यथार्थ ही रहा है इसलिए यह दावा किया जा सकता है।
बीसवीं सदी में, लेखिकाओं की कुछ महत्वपूर्ण आत्मकथाएं आती हैं। इनसे पहले महादेवी वर्मा का जिक्र ज़रूरी है। वास्तव में महादेवी जी ने आत्मकथा के नाम से कोई कृति नहीं सौंपी लेकिन उनका लेखन संस्मरणों एवं निजी अनुभवों की बहुलता के कारण एक आत्मकथा के रूप में समझा जा सकता है। इसके बाद करीब एक दर्जन महत्वपूर्ण आत्मकथाएं गिनायी जा सकती हैं। वास्तव में, जब लेखिका खास तौर से गद्य साहित्य सृजन की सूत्रपात करती है तब उसके केंद्र में स्वयं को ही रखती है। ऐसा अधिकांश मौकों पर होता है। इसलिए यहां से एक सूत्र निकलता है - अमूमन एक लेखिका का संपूर्ण साहित्य उसकी कथा का ही असंयोजित रूप होता है। अंततः वह पाती है कि इसके अतिरिक्त उसके पास अपनी कथा में बहुत कम ही शेष रह गया है।
कथा के केंद्र बिंदु के रूप में नारी रही है। अर्थात कथा के केंद्र बिंदु की आत्मकथा लिखना यूं भी बेमानी है। आत्मकथा तो किसी पात्र की हो सकती है, लगभग हर कथा के केंद्र की कैसे! जैसा कि ऑस्कर वाइल्ड कहते हैं -
"A man's face is his autobiography. A woman's face is her work of fiction."
फिर भी, नॉन फिक्शन लेखिकाओं अथवा महिला कवियों के संदर्भ में गुंजाइश बनी रहती है।
इतर कारणों में सामाजिक बंधन, दबाव एवं पराधीनता के साथ ही आर्थिक स्वतंत्रता का अभाव महिलाओं की आत्मकथाएं कम होने के कारण हैं। एक मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि ज़रूरी नहीं कि हर महिला लेखक आत्मकथा लिखने का जोखिम उठाने का साहस जुटा पाये। क्योंकि आत्मकथा निष्पक्ष रूप से स्वयं के छुपे हुए सत्यों का प्रकाशन करना है। महात्मा गांधी की आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ ने जिस स्तर पर इस अनावरण धर्म को स्थापित किया, बाद के रचनाकारों के लिए आत्मकथा लिखने की मूल प्रेरणा या प्रयोजन यही रहा। संभवतः इसलिए कमला दास ने आत्मकथा को “स्ट्रिपटीज़ एक्ट” माना और फिर उनके बाद प्रभा खेतान जैसी अन्य लेखिकाओं ने भी।
कौशल्या बैसंत्री की आत्मकथा के प्रकाशन के बाद अब यह सवाल मुंह बाये खड़ा है कि दलित महिलाओं की आत्मकथाओं का अभाव क्यों है? दलित विमर्श पहले ही साहित्य में बड़ा महत्वपूर्ण है और इसके साथ स्त्री विमर्श का संयोजन कर दिया जाना एक अलग ही दुनिया की खोज साबित हो सकता है। मराठी की लेखिका उर्मिला पंवार का आत्मकथ्य देखें -
“मैं इस दुनिया मे अपनी जाति, प्रजाति और स्त्रीत्व का अभिशाप लेकर जन्मी थी। एक स्त्री होने के दर्द, विशेषतः एक दलित स्त्री होने की पीड़ा तथा सामाजिक भेदभाव को उजागर करने की मेरी इच्छा ने ही मुझे लेखक बना दिया।“
दलित साहित्य में आत्मकथाओं के अभाव पर गंगा सहाय मीणा का लेख पठनीय है। मीणा आत्मकथा को पूंजीवादी समाज की प्रवृत्ति निरूपित करते हैं। इसके साथ ही, वह एक सूत्र देते हैं कि आदिवासी संस्कृति सामूहिकता को पोसती है, निजता को नहीं। सामूहिकता के संस्कारों में आप आंदोलन एवं सहभागिता का प्रकाशन करते हैं, न कि आत्मकथा का। शायद यह विवेचन जॉन बर्जर के उस कथन की एक और करवट है जिसमें उन्होंने कहा था - Autobiography begins with a sense of being alone. It is an orphan form. मीणा का तर्क और तमाम पहलू विचारणीय हैं और किसी स्तर पर इनसे सहमत होने का मन भी होता है लेकिन जैसा अभी कहा कि दलित महिलाओं की आत्मकथाओं से संभवतः एक अनछुए यथार्थ विश्व का खुलासा हो सकता है जो साहित्य की खोज भी माना जा सकता है इसलिए निजी मत से, इस लेखन को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, न कि तर्कों की दीवार खड़ी करना चाहिए। एक और इच्छा जागती है कि पिछड़े मुस्लिम वर्ग की किसी महिला की बेबाक आत्मकथा भी प्रकाश में आये तो शायद हम दर्द की एक और अथाह गहराई को समझ सकें और अपनी सभ्यता, संस्कृति एवं इतिहास की कलुषता को जान सकें। दर्द से रूबरू होने की यह तमन्ना अपने आप में सुधार के अवसरों जैसी लगती है।
लेखिकाओं की आत्मकथाएं - दृष्टिकोण
जैसा कि शुरुआत से ज़िक्र किया जाता रहा है कि महिलाओं की आत्मकथाओं के प्रति साहित्य जगत का दृष्टिाकेण पक्षपाती रहा है। पुरुषों के वर्चस्व वाले साहित्य जगत ने इस सृजन के मूल्यांकन में कभी सामंती, कभी ब्राह्मणवादी, कभी सत्ता-शक्तिवादी तो कभी धर्म-संस्कृतिवादी रवैया अपनाते हुए इनके महत्व को खारिज करने का ही काम किया है। लेकिन, नकारे जाने के इस उपक्रम अथवा प्रायोजित एकपक्षीय षडयंत्र के बरक्स कुछ स्वर प्रबलता से इनके पक्ष में भी उठे हैं।
ऐसा भी नहीं है कि महिलाओं द्वारा लिखी गयी आत्मकथाओं को सभी महिलाओं ने खुले दिल से सराहा या स्वीकार किया हो। महिला आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा तो इन तक पहुंच ही नहीं पाया है और जो पहुंचा है, उनमें से भी एक बड़े वर्ग ने इसको तवज्जो नहीं दी है। ये महिलाएं पुरुष के समाज की परतंत्र महिलाएं हैं या कुलीनता और संस्कारों की पीपरी बजाने वाली संस्कृति की अनुचर। वह संस्कृति जो सारे आदर्श, मर्यादाएं, आचार संहिताएं एवं सांचे महिलाओं के लिए गढ़ती है। पिंजरे के पंछी की यानी हालत ऐसी हो गयी है कि वह यह भूल चुका है कि उड़ान उसका अधिकार है और स्वभाव भी।
अब एक पहलू है शिल्प। महिलाओं के आत्मकथा साहित्य की भाषा महिलाओं के पक्ष की भाषा है। यह भाषा महिलाओं की देह को सामंती या ठकुरसुहाती की भाषा से अलग ढंग से विवेचित करती है। इस भाषा में पीड़ा का आधार है। इस भाषा में नारी की पीड़ा के प्रति सहानुभूति और सम्मान की दृष्टि मिलती है जो पुरुषों के लेखन में अपवाद स्वरूप पायी जाती है। राही मासूम रज़ा जैसे श्रेष्ठ लेखक तक ‘आधा गांव’ में नारी के प्रति बरती जाने वाली भाषा के प्रति न्याय नहीं कर सके। दूसरी ओर, गुलशेर शानी का ‘काला जल’ नारी के प्रति बरती जाने वाली भाषा के साथ संवेदनशील होने का प्रमाण है। अरविंद जैन अपनी किताब ‘औरत होने की सज़ा’ में लिखते हैं -
“काला जल’ की स्त्री ‘आधा गांव’ पहुंचते ही, एक यौन रूपक में बदल दी जाती है। स्त्री और देह के प्रति ऐसी रीतिकालीन, अपमानजनक भाषा-परिभाषा सचमुच शर्मनाक है। साहित्य के आधुनिक युग में भी नारी के उपभोग्या रूप का रस ले-लेकर, कब तक चित्रण-वर्णन करते रहेंगे?”
महिलाओं की आत्मकथाओं का स्वरूप राजनैतिक कम है और आत्मकेंद्रित अधिक। परंतु इस आत्मानुभूति में एक पूरी प्रजाति की एकात्मता के दर्शन अवश्य निहित हैं। ये आत्मकथाएं एक स्तर पर, ‘पर्सनल इज़ पॉलिटिकल’ की बेहतरीन मिसालें हैं। ये कृतियां एक समाज नहीं बल्कि विश्व की महिलाओं के मन की पड़ताल करने के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ हैं। इनका उचित एवं सम्यक दृष्टि से मूल्यांकन किया जाना चाहिए केवल साहित्य के निकष पर, न कि किसी दृष्टि विशेष से संबद्ध होकर।
महिलाओं की आत्मकथाओं को देह मुक्ति विमर्श का ब्योरा ही करार देने वाले कतिपय लेखकों ने विस्फोट, उन्मुक्तता और स्वतंत्रता की ललक को भली.भांति नहीं समझा। एक ज्वालामुखी के गर्भ में झुलसने की नियति को युगों से एक श्राप की तरह पीने वाली स्त्री के मन में कितना लावा कितनी तीव्रता के साथ स्फोट को आतुर होगा? सदियों से पिंजरबद्ध एक पक्षी के पंखों में कितना आसमान होगा? इस स्वतंत्रता एवं उन्मुक्तता की इच्छा को कम आंकना, सीमा मानना या इसे मर्यादाओं का उल्लंघन कह देना कतई समीचीन नहीं है। इस सिलसिले में कहने को बहुत कुछ और है और कहा भी जाना चाहिए लेकिन फ़िलहाल कमला दास की अनूदित कविता की कुछ पंक्तियों के साथ अपनी बात एक और क्षितिज की दिशा संकेत रूप में मोड़ देना चाहता हूं -
जब कभी निराशा की नौका,
तुम्हें ठेल कर अंधेरे कगारों तक ले जाती है.
तो उन कगारों पर तैनात पहरेदार,
पहले तो तुम्हें निर्वसन होने का आदेश देते हैं.
तुम कपड़े उतार देते हो,
तो वो कहते हैं, अपना मांस भी उघाड़ो.
और तुम त्वचा के साथ अपना मांस भी उघाड़ देते हो,
फिर वो कहते हैं कि हड्डियाँ तक उघाड़ दो,
और तब तुम अपना मांस नोच नोच फेंकने लगते हो,
जब तक कि हड्डियाँ पूरी तरह से नंगी नहीं हो जातीं.
उन्माद के इस देश का तो एक मात्र नियम है उन्मुक्तता,
और वो उन्मुक्त हो,
न केवल तुम्हारा शरीर,
बल्कि आत्मा तक कुतर कुतर खा डालते हैं.
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हिंदी साहित्य में लेखिकाओं की कुछ महत्वपूर्ण आत्मकथाएं
- चंद्रकिरन सौनरेक्सा - पिंजड़े की मैना
- प्रभा खेतान - अन्या से अनन्या
- मैत्रेयी पुष्पा - गुड़िया भीतर गुड़िया
- रमणिका गुप्ता - हादसे
- मन्नू भंडारी - एक सच ये भी
- कौशल्या बैसंत्री - दोहरा अभिशाप
- सुशीला राय - एक अनपढ़ आत्मकथा
- कुसुम अंसल - जो कहा नहीं गया
- कृष्णा अग्निहोत्री - लगता नहीं है दिल मेरा
- पद्मा सचदेव - बूँद बावड़ी
- अजीत कौर - खाना बदोश
- शीला झुनझुनवाला - कुछ कही : कुछ अनकही
- कमला दास - माय स्टोरी
- रसीदी टिकट - अमृता प्रीतम
- शौक़त कैफ़ी - यादों की रहगुज़र
- कानन देवी - शोबारे आमी नोमी
- दुर्गा खोटे . मी दुर्गा खोटे
- शांता आप्टे - ज़ाउ मी सिनेमात
- सुधा कौल - द टाइगर लेडीज़ : ए मेमॉइर ऑफ कश्मीर
- लीला नायडू - लीला : ए पैचवर्क लाइफ
- इस्मत चुगताई - काग़ज़ी है पैरहन
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