बुधवार, जनवरी 17, 2018

कला

सिनेमा और साहित्य - किश्त पांच


14 जनवरी: कैफ़ी आज़मी की जयंती पर विशेष

हिंदी सिनेमा के संगीत का स्वर्ण युग 1940 के दशक के मध्य से 1960 के पूरे दशक तक मानना सही है। इस समय बेहतरीन कलाकारों ने उत्कृष्ट हुनर से फिल्मी गीतों की दुनिया में न केवल अमिट छाप छोड़ी बल्कि सिनेमा की सांगीतिक पहचान में अविस्मरणीय योगदान दिया। जहां नौशाद जैसे संगीतकार ख़ुमार बाराबांकवी, शकील बदायूंनी जैसे शायरों को फिल्मों से जोड़ रहे थे, वहीं गुरुदत्त, बिमल राय, ऋषिकेश मुखर्जी, राज कपूर जैसे फिल्मकार साहित्यकारों को सिनेमा में योगदान देने के लिए बढ़ावा दे रहे थे।


40 के दशक में ही कम्युनिस्ट विचार भारत में प्रबल हो रहा था और कई शायर व अदीब इससे जुड़ रहे थे। इस तहरीक़ की ख़िदमत के लिए आगे आ रहे थे। सज्जाद ज़हीर और अली सरदार जाफ़री का नाम इस तहरीक़ में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता था। उस समय कैफ़ी आज़मी ने ख़ुद को कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के रूप में समर्पित कर देने का फ़ैसला लिया। कुछ ही समय में इस समर्पण का अंजाम यह हुआ कि उनकी आर्थिक स्थिति इस लायक़ नहीं रही कि वे अपने परिवार के दायित्वों को अंजाम दे सकें। उनकी पत्नी शौक़त आज़मी ने ऐसे में थिएटर में काम करने की शुरुआत की। इसी समय में, शाहिद लतीफ़ ने कैफ़ी साहब को अपनी फिल्म बुज़दिल में दो गाने लिखने का मौक़ा दिया। यहां से शुरू हुआ कैफ़ी आज़मी का फिल्मी सफ़र।

Kaifi Azmi. image source : Google

बुज़दिल फिल्म तो कुछ कमाल न कर सकी अलबत्ता, कैफ़ी साहब के गीतों ने एक सुगबुगाहट ज़रूर पैदा की। फिर, 50 के दशक में यहूदी की बेटी, प्रवीण, ईद का चांद और मिस पंजाबमेल जैसी फिल्मों के लिए कैफ़ी साहब ने लेखन किया लेकिन कामयाबी उनसे दूर-दूर ही रही। हिंदी फिल्मों में कैफ़ी साहब को बड़ा और यादगार मौक़ा तब मिला जब गुरुदत्त के साथ उनका नाम जुड़ा। अस्ल में, संगीतकार एसडी बर्मन के साथ साहिर साहब का कुछ मनमुटाव हो जाने के कारण साहिर गुरुदत्त की फिल्म काग़ज़ के फूल से अलग हो गये थे जो पहले प्यासा में गुरुदत्त के साथ बेहद सार्थक फिल्म कर चुके थे। इस घटनाक्रम के कारण कैफ़ी साहब के गीत - वक़्त ने किया क्या हंसी सितम - लिखा। और, इस गीत की अमरता का सबूत हर संगीत प्रेमी की याद है।

बावजूद संगीत की ज़बरदस्त कामयाबी के काग़ज़ के फूल फिल्म बुरी तरह नाकाम रही जो गुरुदत्त के लिए सदमा भी साबित हुई। लेकिन, यहां से कामयाबी कैफ़ी साहब के नज़दीक आने वाली थी। कुछ ही समय में, चेतन आनंद ने जब उन्हें हक़ीक़त के लिए साथ लिया तो कई तरह की बातें हुईं। बक़ौल ख़ुद कैफ़ी साहब -

काग़ज़ के फूल के बाद लोग कहने लगे थे कि कैफ़ी गीतकार तो अच्छे हैं लेकिन मनहूस हैं। इनके सितारे ख़राब हैं। चेतन आनंद से भी कहा गया कि आप कैफ़ी को क्यूं ले रहे हैं तो चेतन आनंद ने कहा कि मेरे भी सितारे कुछ ठीक नहीं चल रहे इसलिए सोचता हूं कि ख़राब सितारों से जूझ रहे दो फ़नकार साथ मिलकर शायद कुछ बेहतर कर सकें।

और फिर, हक़ीक़त की हक़ीक़त सामने आ गयी। एक से एक बेहतरीन और यादगार नग़मों से सजी इस फिल्म ने कैफ़ी साहब को मज़बूती से स्थापित किया। इसके बाद कैफ़ी साहब ने फिल्मी गीतों की दुनिया में न केवल अपना नाम अमर किया बल्कि बेशक़ीमती इज़ाफ़ा भी किया। साहिर, शकील, शैलेंद्र, मजरूह और हसरत जैसे गीतकारों के बीच कैफ़ी साहब ने अपने गीतों की एक अलग पहचान बनायी।

कुछ विद्वान मानते हैं कि कैफ़ी साहब ने संगठन की प्रतिबद्धता वाली शायरी और फिल्मी गीतों की रचना को बिल्कुल अलग रखा। दोनों का मिश्रण नहीं किया। इस बात से एक हद तक सहमत हुआ जा सकता है लेकिन कुछेक मौक़ों पर इससे असहमति ज़रूरी है। जिसका ज़िक्र किया जा चुका है, काग़ज़ के फूल के गीत पर ही बारीक़ी से नज़र डाली जाये तो यह आज़ादी के बाद भारत के टूटते ख़्वाबों या उस समय बन चुकी एक रंजीदा हालत का बयान पेश करता है। कहीं न कहीं इस गीत की परतों में कुछ इशारे हैं जो इस दर्द और ख़लिश को आवाज़ दे रहे हैं।

हक़ीक़त के गीतों की बात हो या नौनिहाल में जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु पर लिखा गीत हो, कई बार कैफ़ी साहब ने अपने विचार को अपने गीतों में अभिव्यक्त किया। यह ज़रूर कहना होगा कि कैफ़ी साहब ने फिल्मी गीतों की भाषा पर ज़बरदस्त एहतियात से काम किया और उनकी शायरी की भाषा से इन गीतों की भाषा इतनी अलग है कि कोई शख़्स यह निशानदेही नहीं कर सकता कि यह एक ही शायर का कारनामा है। फिल्मी गीतों के लिए उन्होंने एक बिल्कुल आमफ़हम और सादा ज़बना का सहारा लिया है जिसमें जटिलता न के बराबर है और जिसमें रूपकों या प्रतीकों का उलझाव भी लगभग नहीं है। बावजूद इसके उनके लिखे फिल्मी गीत एहसास की सच्चाई, संवेदनशीलता और मार्मिकता जैसे गुणों से सराबोर होने के कारण न केवल श्रोताओं के दिल में उतरते हैं बल्कि एक अदबी मक़ाम भी रखते हैं।

कैफ़ी साहब के फिल्मी गीतों में समाजवादी, राष्ट्रवादी और सामाजिक यथार्थवादी विचार के सूत्र पोशीदा हैं। उनके फिल्मों में योगदान की कहानी को दो फिल्मों के ज़िक्र के बिना मुकम्मल नहीं कहा जा सकता। एक है हीर-रांझा। हक़ीक़त के निर्माण के समय चेतन आनंद ने इस फिल्म का विचार कैफ़ी साहब से साझा किया था। पूरी फिल्म के संवाद मीटर यानी छंद में लिखे गये हैं। अस्ल में, इसके लिए पहले कुछ शायरों को चेतन साहब ने जोड़ना चाहा था लेकिन वे ऐसा कर नहीं सके। बक़ौल ख़ुद कैफ़ी साहब, उन्होंने एक चैलेंज के रूप में इस फिल्म का लेखन किया। शबाना जी इस फिल्म के लेखन और शायरी को अंडररेटेड करार देती हैं, हालांकि इस पर काफ़ी चर्चा हो चुकी है और इसे नवाज़ा भी जा चुका है।

मेरी नज़र में, वैचारिक दृष्टि से कैफ़ी साहब के लेखन का शाहकार है एमएस सत्यु निर्देशित फिल्म गर्म हवा। अगर मैंने कभी कोई ऐसी सूची बनायी जिसमें ऐसी फिल्मों को शामिल किया जाये जिन्हें ज़रूर देखा जाना चाहिए तो गर्म हवा यक़ीनन उसमें शामिल होगी। इस्मत आपा की एक अप्रकाशित कहानी पर यह फिल्म आधारित थी जिसे कैफ़ी साहब ने शमां ज़ैदी जी के साथ मिलकर लिखा और कैफ़ी साहब ने इस फिल्म के लिए शायरी का सृजन किया। विभाजन की पृष्ठभूमि पर आधारित इस फिल्म में सामाजिक यथार्थवाद के साथ ही राष्ट्रवाद और उस पर सांप्रदायिक छाया के जो मानीख़ेज़ दृश्य चित्रित हुए हैं, यादगार हैं।

उस्ताद बहादुर खान के संगीत में वारसी बंधुओं द्वारा गायी गयी वह कव्वाली हो या फिल्म के आख़िर में बैकग्राउंड से गूंजते ग़ज़ल के दो शेर हों -

यूं दूर से तूफ़ान का करते हैं नज़ारा
उनके लिए तूफ़ान वहां भी है यहां भी
धारे में जो मिल जाओगे बन जाओगे धारा
ये वक़्त का ऐलान वहां भी है यहां भी।

गर्म हवा में वास्तव में, सत्यु ने इप्टा से जुड़े कलाकारों के साथ काम किया जिनमें कैफ़ी साहब भी शुमार थे और उनकी पत्नी शौक़त साहिबा भी, बलराज साहनी साहब भी और नवोदित फारुख़ शेख़ भी। यह प्रमुख कारण था कि यह फिल्म एक बुलंद आवाज़ बन सकी, जिसकी गूंज आने वाले समय में भी सुनायी देती रहेगी। इप्टा से कैफ़ी साहब का जुड़ाव कम्युनिस्ट होने के नाते लगातार बना रहा। इप्टा के 50 साल पूरे होने पर कैफ़ी साहब के प्रयासों से ही इप्टा पर केंद्रित डाक टिकट जारी हुआ था।

सरदार जाफ़री साहब ने कैफ़ी साहब की शायरी से इब्ने-मर्यम नज़्म का हवाला देते हुए कहा है कि कैफ़ी साहब जो अपने वक़्त की इमेजरी लेकर आये हैं, वह उनकी अपनी है और शायरी में उनकी तरफ़ से यह इज़ाफ़ा है। फिल्मी गीतों के सिलसिले में मैं अर्ज़ करना चाहता हूं कि अपनी वैचारिकता और इंसानी नज़रिये की हिमायत करती संवेदनशील शायरी को फिल्मों के लिहाज़ से जो सरलता और इमेजरी कैफ़ी साहब ने दी है, वह फिल्मी गीतों की विरासत में इज़ाफ़ा है।

सईद अख़्तर मिर्ज़ा ने अपनी फिल्म नसीम में कैफ़ी साहब को लीड रोल में बतौर अभिनेता पेश किया। और इस फिल्म में बाबरी विध्वंस से जुड़े घटनाक्रमों की पृष्ठभूमि है। इस फिल्म में कैफ़ी साहब की नज़्म राम का वनवास की गूंज सुनायी देती है। यानी कुल मिलाकर, कैफ़ी साहब की शायरी का हिंदी फिल्मों से और हिंदी फिल्मों का कैफ़ी साहब से एक ऐसा रिश्ता रहा है, जिसे भुलाया नहीं जा सकेगा। अपनी मिट्टी से जुड़ा रहा एक शायर, अपनी प्रतिबद्धता को जीता रहा शायर और अपनी फ़नकारी की मिसालें बनाता रहा यह शायर सिनेमा का सच्चा यार रहा जिसे सिनेमा के चाहने वाले हमेशा चाहते रहेंगे। कैफ़ी साहब ने गुरुदत्त के अवसान पर जो शेर कहे थे, उनमें से दो शेरों के साथ इस अध्याय को यहीं विराम देना चाहूंगा -

माना कि उजालों ने तुम्हें दाग़ दिए थे
बे-रात ढले शम्अ बुझाता नहीं कोई
अर्थी तो उठा लेते हैं सब अश्क बहा के

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