कविता की भाषा : Just Thinking Aloud
हिंदी के किसी प्रसिद्ध साहित्यकार ने कहा था - "साहित्य की अगली कुंजी भाषा के हाथ में ही होती है"। भाषा का बर्ताव ही किसी कवि को उसके समकालीनों एवं पूर्ववर्तियों से अलग खड़ा करता है। भाषा को लेकर कई तरह की द्वंद्व की स्थिति भी है। इन तमाम पहलुओं पर एक सोच व समझ की प्रक्रिया लगातार जारी है।
भाषा विकास व परिवर्तन
किसी भी अस्तित्ववान भाषा का गुण होता है कि वह समय के साथ परिवर्तन को स्वीकार करती हुई स्वयं को विकसित करती चली जाती है। न केवल शब्दकोष बढ़ता है, उस भाषा के प्रयोगों तक के स्तर पर बदलाव होते हैं। इधर, कम से कम दो तरह के खेमे बन जाते हैं। पहला, उन लोगों का जो भाषा के इस परिवर्तनशील और विकासशील स्वरूप को खुले दिल से स्वीकार करते हैं और दूसरा, उन लोगों का खेमा है जो भाषा की मूल छवि या प्रकारान्तर से शुद्धता के ही पक्षधर होते हैं। दूसरे खेमे के लोग शायद किसी किस्म के अंतर्द्वंद्व से ग्रसित होते हैं क्योंकि ऐसे लोग भाषा की परंपरा में विश्वास रखते हैं लेकिन उस परंपरा में परिवर्तन को अनदेखा करते हैं।
भाषा एवं साहित्य के इतिहास के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि भाषा अपने आप को किस प्रकार बदलती जाती है। एक ही समय में भिन्न-भिन्न भौगोलिक खंडों में एक ही भाषा के विभिन्न रंग नज़र आते हैं। भाषा के किसी एक रंग में फिर कवि-कवि या लेखक-लेखक के स्तर पर अंतर नज़र आता है। यानी भाषा के विकास की प्रक्रिया में हरेक व्यक्ति के व्यवहार को योगदान होता है। यह एक सूक्ष्म स्तर की प्रक्रिया महसूस होती है।
हर कवि अपने समाज एवं समय के अनुरूप भाषा का प्रयोग करने की चेष्टा करता है। ऐसे में, एक ही समाज एवं समय के दो श्रेष्ठ कवियों को हम पढ़ते हैं तो भाषा व्यवहार में अंतर नज़र आने लगता है। उदाहरण के लिए ग़ालिब जिस समाज, जिस समय में जिस ज़बान में शायरी कर रहे थे, उनके समकालीन भी वही कर रहे थे लेकिन बक़ौल ख़ुद ग़ालिब -
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और
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भाषा का चुनाव
कोई कवि या लेखक भाषा के चुनाव में किस प्रकार की दृष्टि अपनाता है, यह उसका व्यक्तिगत निर्णय होता है। लेकिन, कुछ बिंदुओं पर विचार करने के बाद ही यह दृष्टि तार्किक अथवा सम्यक कहलाती है।
1. संप्रेषणीयता - गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों के एक प्रश्न पर कहा था कि जो देववाणी यानी संस्कृत में मेरे विचारों का प्रचार करेगा, वह मेरा सबसे बड़ा दुश्मन होगा। यह कथन वास्तव में, भाषा के द्वारा संप्रेषण के लक्ष्य को समझने के लिहाज़ से बहुत महत्वपूर्ण है। भाषा वास्तव में माध्यम है अभिव्यक्ति का किंतु उसका लक्ष्य अभिव्यक्ति मात्र ही नहीं है। लक्ष्य है संप्रेषण। संप्रेषण अपने समय के लिए और आने वाले समय के लिए। अपने एवं आने वाले समय के लिए जब हम कुछ संप्रेषित करना चाहते हैं तो बीते समय की भाषा को कैसे थामे रह सकते हैं? बेशक, आधार तो बीते समय से ही मिलेगा क्योंकि भाषा के साथ-साथ संप्रेषण की भी एक परंपरा होती है। लेकिन, उस आधार पर एक नयी इमारत खड़ी करने का हुनर ही लक्ष्य के लिए महत्वपूर्ण है।
2. तरलता - भाषा का चुनाव करते समय लेखक या कवि को इस गुण का ध्यान रखना चाहिए। इस गुण से मेरा तात्पर्य दो प्रवृत्तियों से है - एक सरलता एवं दूसरी प्रवाह। सरलता जहां संप्रेषण के लक्ष्य को सिद्ध करने के लिहाज़ से आवश्यक है, वहीं प्रवाह अभिव्यक्ति की सटीकता के लिहाज़ से। कहा भी गया है कि श्रेष्ठ कवि या लेखक की यात्रा कठिन से सरल की ओर ही होती है।
3. सूक्ष्मता - महीन भावनाओं या विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए भाषा की सूक्ष्मता की आवश्यकता हमेशा बनी रहती है। इसका अर्थ गूढ़ अथवा मृतप्राय शब्दावली प्रयोगों से नहीं है। इसका अर्थ क्षेत्र विशेष के पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग से भी नहीं है। इसका अर्थ है भाषा पर कमांड से। सटीक शब्दों के अर्थवान प्रयोग से एवं भाषा में कल्पनाशीलता उत्पन्न करने से।
4. अन्य - भाषा की शुद्धता निजी दृष्टि विषयक गुण है जिसे कोई श्रेष्ठ मान सकता है, कोई नहीं भी। परिमार्जित, प्रांजल एवं तत्सम भाषा के नाम से भी इसे जाना जाता है। देशज भाषा में कवि या लेखक किसी लोकभाषा के शब्दों को मानक भाषा के साथ संयोजित करता है। यह रचनाकार की प्रतिभा पर निर्भर करता है कि वह कितने सहज एवं सफल ढंग से ऐसा कर पाता है। एक तरह की भाषा को मैं लच्छेदार भाषा कहता हूं जिसमें मुहावरों व कहावतों का रंग सुंदरता के साथ घुला होता है। एक है रंगीन भाषा, जिसमें तथाकथित अपशब्दों का प्रयोग होता है। इसे कुछ लोग अश्लील या मांसल या अमर्यादित भाषा भी कहते हैं लेकिन एक हद तक यह भाषा रंगीन है। कविता में हो या गद्य में, रचनाकार की प्रतिभा से इस भाषा के माध्यम से एकाधिक लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है। माधुर्य, रसवंतता, खुरदुरापन, एवं गूढ़ता भी भाषा के अन्य गुण है जिन्हें अपनी-अपनी समझ के अनुसार चुनने का निर्णय लेने के लिए रचनाकार स्वतंत्र हैं।
कविता की भाषा
कविता की भाषा सबसे पहले, जीवन्त होना चाहि। जैसा पहले कह चुका हूं कि कविता अपने सृजन समय एवं आने वाले समय के लिए जीवित रहना चाहती है तो उसे उसके अनुकूल भाषा का आधार चाहिए ही। कविता की भाषा को आग्रहमुक्त होना चाहिए। इसका अर्थ परंपरा से कटना नहीं बल्कि रूढ़ियों से मुक्ति है। कविता की भाषा को सेतु होना चाहिए। रचना एवं पाठक के बीच, व्यक्ति और व्यक्ति के बीच, एक समाज से दूसरे समाज के बीच और एक समय से दूसरे समय के बीच। कविता की भाषा को कविता के कथ्य के अनुकूल होना चाहिए। कविता की भाषा कवि द्वारा नहीं बल्कि कविता द्वारा ही तय होना चाहिए।
कविता की सर्जना के समय कवि को सिवाय मनुष्य के कुछ और नहीं होना चाहिए। जाति, प्रजाति, संस्कार, वर्ण, धर्म आदि पहचानों को भूलकर यदि कवि किसी कविता को रचता है तो कविता स्वयं अपनी सही और प्रभावी भाषा व लय तलाश सकती है। कविता यदि अपने धर्म और कर्तव्य के प्रति सचेत नहीं है तो उसकी भाषा यूं भी विचार एवं विमर्श के दायरे में नहीं रह जाती। कविता की भाषा में विश्व दृष्टि का समाहार होना चाहिए। कविता की भाषा एकांगी नहीं हो सकती, एकवर्णी या एकपक्षीय तो बिल्कुल नहीं। कविता की भाषा को क्ल्ष्टि नहीं होना चाहिए बल्कि सांकेतिक होना चाहिए। एक ऐसी भाषा जिसमें शब्द शब्दातीत की बहुलता हो, भावातीत की संभावना हो एवं कल्पनातीत की प्रधानता हो। कविता की भाषा को सामर्थ्यवान एवं सशक्त होना चाहिए।
कुछ पहलू और भी हैं जो मातृभाषा, लोकभाषा, मानक भाषा आदि से संबद्ध हैं। कवि को भाषा संबंधी कितना ज्ञान होना चाहिए अथवा उसका अध्ययन कितना विशद होना चाहिए? भाषा को लेकर कवि या लेखक को किन चुनौतियों से जूझना चाहिए और किन प्रश्नों के उत्तरों की खोज करना चाहिए? इस तरह के और मुआमलों पर जल्द हाज़िर होने के वादे के साथ फ़िलहाल इजाज़त चाहता हूं।
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