शनिवार, जनवरी 20, 2018

कला

सिनेमा और साहित्य - किश्त छह


17 जनवरी : कमाल अमरोही की जयंती और 18 जनवरी : मंटो की पुण्यतिथि पर विशेष

मंटो और कमाल अमरोही में समानता का कोई बिंदु तलाशना बड़ी टेढ़ी खीर है। एक तरफ, मंटो ख़ुद किसी दिलचस्प और मानीख़ेज़ अफ़साने से कम नहीं है, जिसके बारे में इतने क़िस्से कहे-सुने जाते हैं, जितने शायद ख़ुद उसने भी नहीं कहे-सुने होंगे। दूसरी तरफ, कमाल अमरोही हैं जिनकी चार फिल्में और मीना कुमारी के साथ उनका रिश्ता ही जैसे उनकी पूरी शख़्सियत का तर्जुमा है।


मंटो मूल रूप से पहले लेखक है और फिल्मी कलाकार बाद में। या यूं कहूं कि फिल्मी लेखन मंटो की बहुत बड़ी कहानी का एक छोटा सा चैप्टर है। बम्बई क्यूं आये, कैसे रहे और क्यूं गये, मंटो के बारे में ये तमाम जानकारियां जुटाना कोई मुश्किल काम नहीं है। ख़ास बात यह है कि फिल्मों के लिए उनका योगदान क्या रहा। मुख्य रूप से चार फिल्में लिखीं मंटो ने - 'आठ दिन', 'शिकारी', 'चल चल रे नौजवान' और 'मिर्ज़ा ग़ालिब'। 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के लेखन के लिए मंटो सिनेमा और सिनेप्रेमियों के लिए हमेशा शुक्रगुज़ार रहेगा।

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लेकिन क्या मंटो का फिल्मों से जुड़ाव इतना ही समझा जाना चाहिए? नहीं, कहानी और भी है। रेडियो से मन उचटने के बाद फिल्मी दुनिया पहुंचा यह लेखक फिल्मों के साथ-साथ साहित्य लेखन में मुब्तला रहा। 'मिर्ज़ा ग़ालिब' मंटो ने बहुत पहले लिख दी थी, 1948 में पाकिस्तान चले जाने से पहले। हालांकि रिलीज़ वह बाद में 1954 में हुई। इसी तरह मंटो के 1955 में यह दुनिया छोड़ जाने के बाद आज तक मंटो से फिल्में अपना दामन नहीं छुड़ा सकीं।

मंटो की क़िस्सागोई की ज़बरदस्त मुरीद नंदिता दास मंटो के लेखकीय दृष्टिकोण और जीवन को केंद्र में रखते हुए एक फिल्म का निर्माण कर रही हैं। इस फिल्म में मंटो के आत्मकथ्य वाला दृश्य देखने, सुनने और याद रखने लायक़ बन पड़ा है। राहत काज़मी 'मंटोस्तान' नाम से फिल्म बना चुके हैं। श्रीवास नायडू भी मंटो से जुडी एक फिल्म बना रहे हैं। इरफ़ान खान स्टारर 'काली शलवार' नामक फिल्म नब्बे के दशक में बन चुकी है जो मंटो की इसी शीर्षक की कहानी पर आधारित है।

"एक लेखक क़लम तभी उठाता है, जब उसकी संवेदनशीलता पर चोट पहुंचती है... जो सासायटी पहले से ही नंगी है, मैं उसकी चोली क्या उतारूंगा। उसे कपड़े पहनाना मेरा काम नहीं है... अगर आप मेरे अफ़साने बर्दाश्त नहीं कर सकते तो समझ लीजिए कि ये ज़माना ही नाकाबिले-बर्दाश्त है... मैं बनाव-सिंगार नहीं करता, किसी की ज़लालत पर इस्त्री नहीं करता। मैं आईना दिखाता हूं और अगर किसी बुरी सूरत वाले को आईने से ही शिकायत है तो मैं क्या करूं..."

ये मंटो के बयान रहे हैं जिन्हें नंदिता जी ने अपनी फिल्म में बख़ूबी फ़िल्माया है। अस्ल में, मंटो पर छह बार अश्लीलता के जो आरोप लगे और मुकद्दमे चले, उनके बाबत मंटो के बयान भी ख़ासे चर्चा में रहे। मंटो किसी अभिजात्य वर्ग का लेखक नहीं रहा। कभी प्रगतिशीलों से नहीं बनी तो कभी साहित्य के ठेकेदारों के ख़िलाफ़ हुआ। हालांकि मंटो का मानना था कि हर आदमी को प्रगतिशील होना चाहिए। इसके मायने ज़रा एहतियात से समझने होंगे और इन्हें तमाम आडंबरों और पाखंडों और सीमाओं के परे जाकर समझना चाहिए।

उर्दू के जाने-माने लेखक पद्मश्री से सम्मानित काज़ी अब्दुल सत्तार तक की नज़र में हिंदोस्तानी में कहानीकार तो बस दो ही हुए हैं एक प्रेमचंद और दूसरे मंटो। सत्तार का यह कथन भी बारीक़बीनी की डिमांड करता है। वास्तव में, इन दोनों ही कथाकारों ने समाज के सर्वाधिक उपेक्षित एवं पीड़ित एवं तिरस्कृत वर्ग के लिए लेखनी का धर्म निभाया है। ग़ालिब मेमोरियल हॉल में एक बैनर पर एक पश्चिमी लेखक के नाम से हवाले से लिखा है कि अगर ग़ालिब में पश्चिम में पैदा हुए होते तो उन्हें शेक्सपियर का दर्जा प्राप्त होता। सत्तार भी मानते हैं कि प्रेमचंद और मंटो अगर यूरोप में पैदा हुए होते तो आफ़ाक़ी मक़बूलियत यानी वैश्विक ख्याति हासिल कर सकते थे। इसे हमें भारत या भारतीय उपमहाद्वीप का दुर्भाग्य ही समझना चाहिए।

ख़ैर, अब बात कमाल अमरोही की। 'महल', 'दायरा', 'पाक़ीज़ा' और 'रज़िया सुल्तान' इन चार फिल्मों के निर्देशक के रूप में और 'मुग़ल-ए-आज़म' के संवाद लेखकों में से एक के रूप में कमाल साहब का कमाल यादगार रहा है। यूं उन्होंने और दर्जन भर फिल्मों के लिए लेखन किया है लेकिन उनकी पहचान यही पांच फिल्में हैं। सोहराब मोदी से 1940 के दशक से कुछ पहले से जुड़ने के करीब 10 साल बाद उनके निर्देशन में पहली फिल्म आयी 'महल', जो आज तक एक ट्रेंडसेटिंग फिल्म मानी जाती है।

पहली बार सिनेमा में ऐसा हुआ था कि पुनर्जन्म पर आधारित कोई कहानी इतने बड़े स्केल की फिल्म में परदे पर उतरी। एक से एक नायाब गीतों और संवादों से सजी इस फिल्म ने कमाल साहब के लेखकीय और निर्देशकीय कमाल को पूरी तरह सिद्ध कर दिया। बक़ौल ख़ुद कमाल साहब वो ख़ुद एक शायर थे और फिल्मों के लिए एक ऐसी कल्पनाशील कहानी या सब्जेक्ट को तरजीह देते थे जिसमें उनके फ़न और हुनर को तवज्जो ज़्यादा मिल सके।

'दायरा' कामयाब नहीं हुई लेकिन एक दशक से ज़्यादा के समय में बन पायी 'पाक़ीज़ा' उनका शाहकार है। फिर 'रज़िया सुल्तान' उनके निर्देशक की आख़िरी फिल्म रही जो कामयाब और यादगार मानी जा सकती है। अपनी सारी ही फिल्मों में उनके केंद्र में अधूरा प्रेम है, प्रेम की असफलता है, दर्द है या प्रेम का संघर्ष है। कहीं समाज, कहीं हालात, कहीं सियासत और कहीं किस्मत इश्क़ की मंज़िल के आड़े आते हैं। इन कहानियों में जैसे कमाल साहब अपनी ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ पहलुओं को ही टटोलते रहे।

यह कमाल साहब का जन्म शताब्दी वर्ष है लेकिन सिनेप्रेमियों और सिने आलोचकों और सिनेमाई दुनिया ने जैसे उन्हें भुला दिया। सिद्धार्थ भाटिया लिखते हैं -

"इस क्रांतिकारी फिल्मकार का नाम जैसे भूला जा चुका है। पाक़ीज़ा के हवाले से कभी-कभी उन्हें याद किया जाता है लेकिन आम तौर से, सिने इतिहासकार, गुरुदत्त, राज कपूर के प्रति विशेष लगाव रखते हैं और कभी-कभी बिमल रॉय और मेहबूब खान को भी याद कर लेते हैं लेकिन कमाल अमरोही की अनदेखी करते हैं। सच यही है कि हिंदी सिनेमा के इतिहास में अमरोही को हाशिये पर धकेल दिया गया है।"

कमाल साहब पर यह इल्ज़ाम लगता रहा कि वे अपनी फिल्मों के संवादों में कठिन उर्दू या फ़ारसी बहुल उर्दू का इस्तेमाल करते रहे। इस बारे में ख़ुद कमाल साहब ने क़ब्बन मिर्ज़ा के साथ हुई एक वार्ता में कहा था कि उन्होंने बहुत एहतियात बरता और कोशिश करते हुए वह आसान उर्दू शब्द तलाशते थे लेकिन जब किसी लफ़्ज़ के लिए कोई आसान विकल्प नहीं मिलता था तो मजबूरी में उन्हें ऐसे लफ़्ज़ चुनने पड़ते थे। इस वार्ता में उन्होंने उर्दू को भारत की अपनी ज़बान बताते हुए उसे ब्रज भाषा, खड़ी बोली या रेख़्ता की सहोदर निरूपित किया था बजाय फ़ारस से आयी किसी ज़बान के।

बहरहाल, कमाल साहब को भुलाया जाना मुनासिब नहीं है और मंटो को भूल जाना मुमक़िन नहीं है। कमाल साहब और मंटो में दर्द और एहसास की गहराई की किसी सत्ह पर कोई समानता हम निकाल ही सकते हैं लेकिन मेरी नज़र में दोनों में सबसे बड़ा फर्क यह है कि मैं मंटो को मंटो कह सकता हूं, मंटो के लिए बेतक़ल्लुफ़ अल्फ़ाज़ चुन सकता हूं लेकिन कमाल अमरोही के लिए साहब कहना पड़ता है और उनके साथ ज़रा तक़ल्लुफ़ से बात करनी पड़ती है। यही फर्क बड़े मायनों में दोनों के लेखन और फ़न्नी मेआर के अंतर के तौर पर समझा सकता है।

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