मंगलवार, अप्रैल 04, 2017

समालोचना

हिन्दी साहित्य के इतिहास का पुनर्लेखन - एक विमर्श


हिन्दी के अकादमिक प्रांगणों में कुछ समय से हिन्दी साहित्य के इतिहास के पुनर्लेखन को लेकर एक गहमागहमी का माहौल बना हुआ है। कोशिशें किस स्तर पर हो रही हैं, यह स्पष्ट नहीं है लेकिन विमर्श और संवाद कई स्तरों पर हो रहे हैं।


इस विषय में पहला प्रश्न तो यही है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास को फिर से लिखने की आवश्यकता क्या और क्यों है? इस बारे में जो तर्क दिये जाते हैं, उनमें सामान्य रूप से यही बात निकलकर आती है कि अंतिम उल्लेखनीय इतिहास के बाद से साहित्य का एक पूरा कालखण्ड अपने मूल्यांकन की बाट जोह रहा है। अर्थात् कुछ समय पहले ही जो साहित्यकार शीर्ष पर पहुंचे हैं, वे अपना नाम हिन्दी साहित्य के इतिहास में दर्ज करवाने के इच्छुक हैं। जैसा कि आप जानते हैं कि हिन्दी साहित्य का सर्वाधिक प्रामाणिक इतिहास आचार्य शुक्ल द्वारा लिखित है जो छायावाद के प्रमुख कवियों का नाम लेकर समाप्त हो जाता है। इसके बाद तो कई इतिहास लिखे गये परन्तु आधुनिकतम वह इतिहास, जिसे सर्वाधिक स्वीकार्यता व प्रामाणिकता प्राप्त हुई हो, वह डॉ नगेंद्र लिखित है। यह भी प्रयोगवादी व प्रगतिशील आंदोलन के उल्लेख के साथ समाप्त हो जाता है। संभवतः डॉ रमेशचंद्र शाह तक के समय के साहित्यकारों के कुछ प्रमुख नाम इसमें सम्मिलित हैं। तो उनके बाद के साहित्यकार उल्लेख से वंचित हैं।

दूसरा तर्क इस प्रश्न को लेकर यह है कि इतिहास लेखन के प्रति नयी चेतना जाग्रत हुई है और साहित्य के इतिहास और उसके प्रति दार्शनिक दृष्टि को नये ढंग से रेखांकित किये जाने का समय है। इसे आप कोरी जुमलेबाज़ी भी कह सकते हैं और गंभीर होकर इसे किसी विशेष राजनीतिक धारा की प्रेरणा भी समझ सकते हैं। फिर भी, इतना हल्ला हो रहा है तो कोई आधार तो होगा। वास्तव में, श्री हरमेंद्र सिंह बेदी ने "साहित्य इतिहास दर्शन" की भूमिका में कुछ बिंदु रेखांकित किये हैं जिसे लेकर एक पूरा वर्ग हिन्दी साहित्य के इतिहास के दोबारा लिखने के लिए प्रेरित हुआ है। इसके मूल में प्रमुख बात यह है कि कोई भी विचार या विचारधारा अकस्मात तो उठ खड़ी होती नहीं। उसकी एक विकास यात्रा होती है। आज के भारत में अनेक विचार अपनी जड़ें जमाये हुए हैं और इस संदर्भ में हिन्दी साहित्य के विकास पर कोई महत्वपूर्ण या प्रामाणिक कार्य नहीं हुआ है। अस्तु इन विचारों और साहित्य के परस्पर संबंध एवं परस्पर प्रभाव के अध्ययन की आवश्यकता के चलते इतिहास लेखन पुनः किये जाने की लहर दौड़ पड़ी है।

अब बात है कि साहित्य के इतिहास का पुनर्लेखन प्रामाणिक कैसे हो? इस विषय में उत्तर की आवश्यकता तो है नहीं क्योंकि यह एक आदर्श पर ही आधारित है। उदाहरणार्थ इतिहास लिखा जा रहा है तो निष्पक्ष तथा सम्यक् दृष्टि हो, गहन पड़ताल व शोध हो, एक सटीक दर्शन बोध हो, समाजशास्त्रीय एवं राजनीतिक स्थितियों का आंकलन हो और उस इतिहास के प्रति साहित्य और इतिहास दोनों क्षेत्रों के मूल स्रोत के प्रति तथा उसकी लोकप्रियता के प्रति समभाव-समादरपूर्ण व्याख्या हो, आदि-आदि। परन्तु, ऐसा संभव हो पाता है? यदि हो पाता तो कितने ही साहित्येतिहास उल्लेखनीय हो गये होते और शायद पुनर्लेखन की आवश्यकता अनुभव ही न होती। भाषा साहित्य और देश के पहले अध्याय में डॉ हज़ारीप्रसाद द्विवेदी महत्वपूर्ण कथन करते हैं -

आपने जब एक सामान्य भाषा को बनाने की ठानी है तो आप से आशा होती है कि आप यहीं नहीं रुकेंगे। यह भी बाहरी बात है। और भी आगे चलिए। एक साहित्य बनाइए। गलतफहमी दूर कीजिए। ऐसा कीजिए कि एक सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय को समझ सके। एक धर्मवाले दूसरे धर्मवाले की क़दर कर सकें। एक प्रदेश वाले दूसरे प्रदेश वाले के अन्तर में प्रवेश कर सकें। ऐसा कीजिए कि इस सामान्य माध्यम के द्वारा आप सारे देश में एक आशा, एक उमंग और एक उत्साह भर सकें।

देश की एक सामान्य भाषा के विषय में लिखी गयीं डॉ द्विवेदी जी की ये पंक्तियां प्रतीकार्थ में यह समझाती हैं कि वैमनस्य नहीं सामरस्य और सामंजस्य की दृष्टि होना अधिक उपयोगी है। साहित्य और साहित्य के इतिहास के विषय में भी इस दृष्टि को ही लक्ष्य किया जाना चाहिए। आचार्य शुक्ल ने "हिन्दी साहित्य का इतिहास" ग्रंथ के वक्तव्य में इतिहास लेखकों के हाथ कारगर कुंजी देते हुए कहा है कि -

भिन्न-भिन्न शाखाओं के हज़ारों कवियों की केवल कालक्रम से गुंथी वृत्तमालाएं साहित्य के इतिहास के अध्याय में कहां तक सहायता पहुंचा सकती थीं? सारे रचनाकाल को केवल आदि, मध्य, पूर्व, उत्तर इत्यादि खंडों में आंख मूंदकर बांट देना - यह भी न देखना कि खंड के भीतर क्या आता है, क्या नहीं, किसी वृत्तसंग्रह को इतिहास नहीं बना सकता।

साहित्य के इतिहास के लेखन के समय चुनौती यही होती है कि आप रचनाकारों के नामों के उल्लेख को ही इतिहास मान रहे हैं या रचनाओं के आधार किसी प्रवृत्ति, किसी चेतना और किसी धारा को समझा पा रहे हैं। रचनाकारों का नामोल्लेख शुक्ल जी के मत से केवल वृत्तसंग्रह होता है, इतिहास नहीं। इन दृष्टियों से वर्तमान में साहित्य का इतिहास लिखा जाना अत्यंत दुष्कर कार्य है।

एक पहलू और है। साहित्य लोक और समाज की प्रवृत्तियों से उपजता है और वापस लोक और समाज की प्रवृत्तियों में कुछ हलचल मचाता हुआ उसी में विलीन हो जाता है। ठीक वैसे ही जैसे पानी बर्फ बनता है और फिर बर्फ उसी पानी में पिघल जाती है। यहां ध्यातव्य यह है कि साहित्य इतिहास के लेखकों का लोक साहित्य के क्षेत्र में गहन अध्ययन एक आवश्यकता है? "हिन्दी साहित्य का वृहत् इतिहास" ग्रंथ के एक खंड की भूमिका में श्री राहुल सांकृत्यायन इस बिंदु को उठाते हुए कथन करते हैं -

हिन्दी साहित्य के इतिहास के सम्यक् अनुशीलन के लिए लोकसाहित्य की पृष्ठभूमि से परिचित होना एक आवश्यक कर्तव्य हो जाता है। अतः हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों का यह धर्म है कि वे लोकसाहित्य के परिप्रेक्ष में हिन्दी साहित्य के अनुशीलन तथा शोध का प्रयास करें।
सांकृत्यायन जी एक नया शब्द भी थमा जाते हैं - शोध। आप पुनः हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने के लिए उत्सुक हैं, स्वागतेय है परन्तु, क्या आप दावे के साथ प्रस्तुत हैं कि आपके पास पर्याप्त शोध संपदा है? क्या आप निश्चयपूर्वक यह कथन कर सकते हैं कि पूर्ववर्ती इतिहासों के अतिरिक्त आपके पास व्यक्त करने के लिए शोधों के आधार पर कुछ नये परिणाम या विश्लेषण हैं? इन प्रश्नों का उत्तर यदि हां है, तो आप साहित्य का इतिहास लिखने के लिए शुभकामनाओं के साथ अग्रसर हो सकते हैं।

हिन्दी साहित्य के इतिहास के पुनर्लेखन की योजना के अंतर्गत चर्चित साहित्यिक पत्रिका साहित्य सागर ने करीब एक दशक पूर्व एक महत्वपूर्ण सिलसिला प्रकाशित किया था। कीर्तिशेष संपादक श्री कमलकांत सक्सेना के संपादन में इस पत्रिका छत्तीसगढ़, पंजाब, मालवा, उत्तराखंड आदि अंचलों के हिन्दी साहित्य के इतिहास पर प्रामाणिक सामग्री का प्रकाशन किया था जिसे प्रशंसा एवं प्रोत्साहन दिया गया था। वास्तव में, लोक और समाज से साहित्य के जुड़ाव की दृष्टि इस इतिहास माला में दृष्टिगोचर हुई थी। लोकभाषाओं और हिन्दी के अंचलों से हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की इस परिकल्पना में एक दृष्टि थी, दर्शन था और एक विस्तार भी था। पिछले कुछ समय में प्रस्तुत हुए साहित्येतिहास के प्रयासों में यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहा, ऐसा कहा जा सकता है।

हिन्दी साहित्य के इतिहास के पुनर्लेखन के क्षेत्र में कई चुनौतियां हैं जिनको स्वीकार कर ही इस प्रकार का कदम उठाया जाना समीचीन होगा। इन चुनौतियों से नज़र नहीं बचायी जा सकती क्योंकि पूर्ववर्तियों की तुलना में अब ये अधिक गूढ़ एवं कठोर हैं।

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