सिनेमा और साहित्य - किश्त तीन
सिनेमाई दुनिया का आकर्षण इतना खतरनाक रहा है कि जो इसकी ओर खिंचा, खिंचता ही चला गया। बहुत हौसला और बहुत संयम चाहिए इस मायाजाल से बचने या छूट जाने के लिए। शब्द चितेरा, गीतों का शहज़ादा, यहां तक कि गीत ऋषि भी कहा गया उस शब्दशिल्पी को, जिसने यह चुनौती स्वीकार की कि एक दिन वह इस मायाजाल से साफ़ निकल जाएगा।
देश आज़ाद हो चुका था और एक काव्य संग्रह हिन्दी में प्रकाशित हुआ कारवां गुज़र गया। इस संग्रह के शीर्षक गीत ने पूरे काव्य परिदृश्य को मोहित कर लिया। विशुद्ध शृंगार गीत भी कहा गया इसे और इसमें दर्शन के तत्व भी खोजे गये। कवि सम्मेलनों का हर मंच इस गीत के बिना न तो संपन्न होता था और न ही सफल। श्री गोपालदास नीरज का यह गीत उनकी ही आवाज़ में, उनकी ही धुन में जिस-जिसने सुना है, उसकी यादों में आज भी गूंजता है कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे..।
इस गीत से नीरज को अपार लोकप्रियता मिली। उनकी लोकप्रियता को भुनाने के लिए हिन्दी फिल्म उद्योग दोनों बांहें फैलाये बैठा था। और हुआ भी यही कि नीरज जा पहुंचे बंबई। नयी उमर की नयी फसल शीर्षक से एक फिल्म बनी और उनका यह गीत मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में जब अवाम तक पहुंचा तो यह वर्जन भी काफी लोकप्रिय हुआ। फिर भी, नीरज की अभूतपूर्व लोकप्रियता का सबूत यह रहा कि कई प्रशंसकों ने बार-बार यही कहा कि जो बात नीरज की आवाज़ में इस गीत में पैदा होती है, वह कहीं और नहीं।
Gopaldas Neeraj source - google |
बहरहाल, नीरज की फिल्मी यात्रा शुरू हो चुकी थी और एक परिभाषा गढ़ने की ओर अग्रसर होने को थी। इस यात्रा में राज कपूर और देव आनंद नीरज के प्रशंसकों और मित्रों में शुमार हुए। देव साहब से तो नीरज की दोस्ती ऐसी जमी कि देव साहब के अंतिम समय तक एक बेहतरीन रिश्ता बना रहा। राज कपूर के महत्वाकांक्षी सिनेमा के लिए एक सिचुएशन थी सर्कस के रिहर्सल और शो के माहौल की। राज साहब कुछ गीतकारों की रचनाओं को खारिज कर चुके थे। ऐसे में, नीरज ने चुनौती को स्वीकार किया और एक रचना ऐ भाई ज़रा देख के चलो, उनके सामने पेश कर दी। राज साहब ने हाथों-हाथ इस गाने को पास किया। राज साहब नीरज की प्रतिभा से प्रभावित रहे। हालांकि दोनों ने साथ में बहुत काम नहीं किया लेकिन राज साहब से नीरज को इज़्ज़त बहुत मिली। एक रोज़ बातों-बातों में बात चल पड़ी और राज साहब ने चैलेंज दे दिया तो नीरज ने वादा करते हुए कहा कि "आप देखना, मैं एक दिन इस फिल्मी दुनिया को छोड़कर साहित्य की दुनिया में लौट जाउंगा"।
एकाध दशक के बाद ही नीरज ने वास्तव में फिल्मी दुनिया को अलविदा कह दिया और कवि सम्मेलनों और साहित्य की दुनिया में लौट आये। लेकिन, लौटने से पहले कई यादगार नग़मे फिल्मों को दे गये। प्रेम पुजारी, गैंबलर, कन्यादान, शर्मीली इत्यादि फिल्मों के कई गाने सभी रसिकों को याद हैं। नीरज का कमाल यह भी था कि फिल्मी गीतों में वह एक बेहद ताज़ा शब्दावली लेकर आये जिसे अक्सर फिल्मकार विशुद्ध साहित्यिक कहकर फिल्मी गीतों के अनुकूल नहीं मानते थे और सीधे नकार देते थे। गीतांजलि, जुही की कली, राजधानी जैसे शुमार लायक शब्द नीरज ने साहित्य की किताबों से निकालकर फिल्मी ज़ुबान में ऐसे ढाले कि श्रोताओं की ज़ुबान पर चढ़े और दिल में उतरे।
नीरज की फिल्मी यात्रा पर ज़रूर ब्रेक लगा लेकिन उनकी काव्य यात्रा सतत चलती रही। वह आज भी सक्रिय हैं करीब 92 साल की आयु में। कुछ साल पहले जब देव साहब का देहांत हुआ तब एक मीडिया समूह के लिए आलेख तैयार करने के लिए मैंने उनसे बात की थी। तब भी उन्होंने यही कहा कि देव साहब नेक इंसान थे और दोस्ती हमेशा बनी रही। देव साहब ने अपनी जो आख़िरी फिल्म बनायी, उसमें भी एक गीत नीरज से लिखवाया था। और नीरज ने मुझे वह गीत पूरा सुनाकर देव साहब को भावुकता से श्रद्धांजलि दी। मेरा सौभाग्य रहा है कि नीरज जी से कई बार मुलाकातें, बातें हुईं। बहुत कुछ सीखने-समझने को मिला उनसे और कुछ इंटरव्यू भी लिये मैंने उनके जो कुछ अख़बारों में छपे भी।
कुछ साल पहले नीरज ने रंगमंच में बतौर अभिनेता भी दस्तक दी थी। लाल किले का आखिरी मुशायरा शीर्षक नाटक में उन्होंने बहादुर शाह ज़फ़र का क़िरदार निभाया था। बहुत उत्साह और उमंग के साथ बताया था मुझे कि शायद मैं पहला एक्टर हूं जिसने 80 बरस से ज़्यादा की उम्र में पहली बार थिएटर में अभिनय किया हो। और मैं सोचता था कि उनकी इस ख़्वाहिश या अभिनेता बनने की ललक का बीज शायद बंबई की उसी फिल्म नगरी की देन है, जिसे बहुत पहले उन्होंने शान के साथ छोड़ दिया था।
अजीब इत्तेफ़ाक है कि प्रेमचंद घुटन महसूस करने के कारण बंबई की फिल्मी दुनिया छोड़ देते हैं, मजाज़ उस चकाचौंध की भयानकता की वजह से उसके हो ही नहीं पाते और एक नीरज है जो उसे अपनाता है, उस दुनिया में अपनी एक अमिट छाप रचता है और फिर एक ज़िद के लिए उसे छोड़ देता है। बहरहाल, नीरज की कलम और आवाज़ का जादू यूं ही क़ायम रहे और वह शतायु हों, यही दुआ है, आमीन।
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