कागद की लेखी और आंखिन की देखी..
भारतीय साहित्य के निर्माता शीर्षक के अंतर्गत साहित्य अकादेमी, दिल्ली द्वारा 2016 में प्रकाशित एवं श्री प्रभाकर माचवे लिखित पुस्तिका 'कबीर' पर एकाग्र समालोचना।
क्या कबीर का जन्म होता है? यदि मान ले हां - तो एक प्रश्न और उठता है कि कबीर पैदा क्यों होता है? कबीर को समझने और मथने से पहले ज़रा पहले की स्थितियों को समझना अपरिहार्य हो जाता है।
कबीर का समय मोटे तौर पर 15वीं सदी मान लिया जाता है। तब और उससे ठीक पहले तक भारतीय समाज और संस्कृति की क्या दशा थी, इस पर कई विद्वानों ने दृष्टिपात पात किया है और उसके साक्ष्य भी जुटाये हैं। उदाहरण के लिए मुग़ल शासन के संदर्भ में पेलसपार्ट की पुस्तक में जिक्र मिलता है कि समाज के मुख्यतः तीन वर्ग थे जिनमें नौकर, श्रमिक और दुकानदार थे। स्वेच्छा से कार्य करने पर मनाही थी, उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता था, दुकानदार शासकीय कर्मचारियों की क्रूरता से परेशान थे.... और दूसरी तरफ़, साधु समाज भी पाखण्ड से ग्रस्त हो चला था। इस प्रकार के कई साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि मध्यकाल या जिस समय को हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के रूप में समझा जाता है, तब और उससे कुछ पहले से भारतीय समाज में धर्मों के बीच संघर्ष की स्थिति थी, जातियां-उपजातियां बढ़ने के कारण आपसी वैमनस्य बढ़ रहा था, दास प्रथा, सती प्रथा, हिन्दू व मुस्लिम महिलाओं की दुर्गति, परदा प्रथा, बहुविवाह प्रथा जैसे हालात समाज के कलंक बने हुए थे।
दूसरी ओर धर्म के क्षेत्र में भी पाखंड हावी हो रहा था। साध्य की अपेक्षा साधन और साधना पर अधिक बल दिया जाने लगा था जिसकी आलोचना उपनिषद् काल से श्रमण युग तक होती रही थी। कर्मकाण्डों की बाढ़ में धर्म अपने मूल अर्थ को खोने लगा था। शैव और वैष्णव संप्रदाय के बीच कटुता हिंसा और हत्याओं की सीमा तक बढ़ चुकी थी। सारांशतः कहा जा सकता है कि तब समाज और संस्कृति एक गहन अंधकारमय पीड़ा को भाग रहे थे जिससे सर्वथा छुटकारे की खोज एवं स्पृहा लोकमानस में बनी हुई थी।
इन स्थितियों में हिन्दी साहित्य के भक्ति आंदोलन का प्रादुर्भाव होता है। भक्ति आंदोलन की पूर्वपीठिका एवं प्रवृत्ति, संप्रदाय एवं उपासना भेद के अनुसार किये जाने वाले वर्गीकरण के जाल में न उलझते हुए सीधे कबीर और उनके सृजन को लक्ष्य करते हैं।
पूर्ववर्णित स्थितियों से यह तो स्पष्ट है कि भक्ति आंदोलन या भक्ति साहित्य की एक उपयुक्त भूमिका बन चुकी थी। कबीर से पहले इन स्थितियों के विरुद्ध कुछ स्वर सुनायी देते हैं। ज़रा पहले ही गोरखनाथ कह रहे थे - अवधू मन चंगा तो कठौती में गंगा - अर्थात् समाज मन के शुद्धिकरण के प्रति जागरूक नहीं था और गंगास्नान से पाप धुल जाने की एक पाखंडी सोच के जाल में उलझा हुआ था। डॉ हज़ारीप्रसाद द्विवेदी ने आठवी सदी के सहजयोगी सिद्ध कवि सरोरूहपाद या सरहपा के काव्य से भी ऐसे उद्धरण प्रस्तुत किये हैं जो ब्राह्मणाों द्वारा फैलाये जा रहे आडंबरों के विरोध में मुखरता से आपत्ति दर्ज कराते हैं।
सहजयोगी सिद्ध, नाथ-सिद्ध संप्रदाय, हठयोगी संप्रदाय, बुद्ध दर्शन के अनुयायी, औपनिषदिक चिंतन आदि के माध्यम से भक्तिकाल के निर्गुण काव्य की नींव पड़ती है। यहां से कबीर एक प्रकाशपुंज की भांति प्रकट होते हैं। कबीर के जीवन पर आंशिक रूप से और सृजन पर मुख्य रूप से एकाग्र पुस्तक में श्री माचवे एक आवश्यक एवं अनिवार्य पूर्वदृश्य को नज़रअंदाज़ कर गये हैं। श्री माचवे ने चूंकि पुस्तक में स्वकथन भी नहीं प्रस्तुत किया है इसलिए यह निर्धारित कर पाना भी पहेली बन गया है कि इस पुस्तक की अवधारणा व औचित्य वास्तव में क्या है..!
श्री माचवे ने इस पुस्तक में एक तिहाई भाग में कबीर के जीवन पर चर्चा की है और दो तिहाई भाग में कबीर के दर्शन, काव्य, छंद, भाषा आदि पर। पूरी पुस्तक के पाठ से यह तो प्रतीत हो जाता है कि कबीर के दर्शन एवं काव्य पर लेखन करते हुए श्री माचवे एक कुशल लेखक भी दिखते हैं तथा उनका मन इन विषयों में अधिक रमता है। कबीर के सृजन की व्याख्याओं में श्री माचवे प्राचीन संस्कृत वांग्मय से लेकर पाश्चात्य विचारकों के अभिमतों के प्रकाश में कबीर को समझने-समझाने के प्रति मुग्ध भाव से लेखनी चलाते हैं। यही नहीं, इस दो तिहाई भाग में वह कबीर के बारे में अपना एक मत भी रख पाते हैं और किसी स्थापना के स्तर तक भी पहुंचते हुए लगते हैं।
एक स्थान पर श्री माचवे कहते हैं - "कबीर की कविता कभी बासी नहीं होती"। यह एक महत्वपूर्ण कथन है। कबीर को जो स्वर है, वह समाज, देशकाल एवं मानवता की चिरंतन सत्तमा की अनुगूंज है। इस स्वर किसी एक विशेष मत, स्वरूप या भाव को लेकर आसक्ति या पूर्वाग्रह नहीं है इसलिए श्री माचवे का यह कथन युक्तियुक्त भी है एवं ग्राह्य भी। वह एक और महत्वपूर्ण कथन करते हैं - "कबीर की आस्तिकता स्वीकार न करते हुए भी, उनकी कविता में बहुत कुछ बचा रहता है, जो मूल्यवान है। कबीर का आनन्द लेने के लिए कबीरपंथी होना ज़रूरी नहीं। कवि के नाते इसी में उनकी चिरंतन श्रेष्ठता निहित है। वह दिक्कालातीत हैं"।
यहां ध्यातव्य है कि एक कवि की श्रेष्ठता कबीर में किस प्रकार निहित है, उसके दिक्कालातीत होने में। वैसे भी जिसने जीवन भर अपने व्यवहार और संदेशों में संप्रदायों, मठों और पंथों के आडंबर का विरोध ही किया हो, उसे समझने के लिए किसी खास पंथ से जुड़ना ज़रूरी हो जाये तो यह दुर्गुण ही कहलाएगा। इस दृष्टि से श्री माचवे कबीर के बारे में यह अर्थपूर्ण उद्घोष करते हैं और पाठक को उस विचार से जोड़ने के लिए कहीं प्रेरित भी करने की चेष्टा भी रखते हैं कि कबीर को समग्र मन से, बिना पूर्वाग्रह के एवं मानवीय तटस्थता के साथ ग्रहण करना ही श्रेयस्कर है।
कबीर वाणी के दर्शन अध्याय में भी श्री माचवे ने कई परतों को उघाड़ने का उत्तम कार्य किया है। परन्तु यहां वह कबीर के बारे में कोई उद्घोषण करने से बच गये हैं और पूर्व के विद्वानों के विचारों को ही व्याख्यायित या विस्तारित कर पाये हैं।
इस पुस्तक का वह एक तिहाई भाग, जिसमें कबीर के जीवन को लेकर चर्चा है, व्यक्तिगत रूप से मुझे निराशाजनक अधिक लगता है। प्रथमतः बिना किसी शोध के श्री माचवे ने केवल पूर्व में दिये गये विभिन्न विद्वानों के मतों को ही एकत्र किया है। कबीर के जन्मवर्ष, मृत्युवर्ष एवं धर्म जाति आदि के बारे में वह अपना कोई मत स्पष्ट नहीं कर सके हैं। यह प्रमाण है कि उन्होंने इस विषय में किसी शोध का सहारा नहीं लिया है। दूसरी बात यह कि कबीर के धर्म के बारे में मान्यताओं का हवाला देते हुए वह कहीं इस आग्रह के हामी दिखते हैं कि कहीं से कबीर को हिन्दू घोषित करने का रास्ता मिला जाये। वैचारिक रूप से मुझे इन तमाम व्याख्याओं से इसलिए भी असंतोष है कि कबीर के धर्म, जाति, वर्ण आदि पर इतनी चर्चा है ही औचित्यहीन। एक साधु, फकीर, सूफ़ी, संत, या कुछ भी कहें, एक विचारक या सुधारक को इस दायरे में बांधने की या इस नज़रिये से जानने की चेष्टा होना ही नहीं चाहिए। जाति न पूछो साधु की... यह बानी रटने से क्या हासिल अगर इस पर अमल ही न किया जाये? ऐसा करते हुए साहित्यकार उसी समाज का अंग प्रतीत होता है जो समाज मूर्तिपूजा का विरोध करने वाले बुद्ध की ही मूर्तियां बनाता बनाता है या भक्ति के संप्रदायों, पंथों की आलोचना करने वाले कबीर के नाम पर ही पंथ और गद्दी की स्थापना करने लगता है। जाग्रत साहित्यकार को इससे बचने या इसका विरोध करने की दृष्टि रखना चाहिए और इस मोर्चे पर श्री माचवे विफल हुए हैं।
वास्तव में, कुछ वाक्यों की मौलिकता के बावजूद, यह पुस्तक कबीर पर किसी प्रकार के मौलिक लेखन की पुस्तक नहीं है। कबीर पर लिखे गये करीब 50 ग्रंथों का अनुशीलन कर एक सारांश पुस्तक के रूप में इसे प्रस्तुत किया गया है इसलिए श्री माचवे को इस पुस्तक का संकलक कहा जाना चाहिए, लेखक नहीं। संभवतः यह पुस्तक किसी पाठ्यक्रम को लक्ष्य करते हुए तैयार की गयी हो सकती है। यही इस पुस्तक की उपयोगिता भी कही जा सकती है और इसी को इस पुस्तक का सीमित व संकुचित दायरा भी माना जा सकता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें