फिर सवालों के घेरे में - राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार
भोपाल से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र "सुबह सेवेरे" के 16 अप्रेल 2017 के संस्करण में "अपनी साख गंवाते राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार" शीर्षक से प्रकाशित भवेश दिलशाद लिखित आलेख
एक बार फिर यह विमर्श जन्म रहा है कि क्या राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार अपना औचित्य, अपनी गुणवत्ता और अपनी निष्पक्षता सिद्ध कर पा रहे हैं? 2016 में रची गयीं फिल्मों के संदर्भ में पिछले दिनों घोषित किये गये राष्ट्रीय पुरस्कारों में कुछ विसंगतियां नज़र आने पर इस संवाद ने फिर मुखरता पायी है। इन विसंगतियों में सबसे प्रमुख है, अक्षय कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए पुरस्कार दिया जाना।
अक्षय कुमार प्रशंसनीय अभिनेता के रूप में दर्शकों के चहेते हैं। लेकिन, एक दर्शक किसी फिल्म या कलाकार को स्वीकार करता है, उसे प्रेम देता है तो क्या यह माना जा सकता है कि यह आधार ही पुरस्कार के लिए एकमात्र या सबसे महत्वपूर्ण पैमाना है? विचार तो किया ही जाना चाहिए। स्पष्ट किया जाना चाहिए कि आप मनोरंजन करने वालों को पुरस्कृत कर रहे हैं या कला की किसी विशिष्ट उपलब्धि को। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों का इतिहास देखें तो आप पाएंगे कि यह कला के प्रति समर्पित रहे कलाकारों और कृतियों को केंद्र में रखता रहा है। प्रतिष्ठित कलाकारों ने माना है कि राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की स्थापना का उद्देश्य यही रहा है कि उन फिल्मों को सम्मान दिया जाये जिनमें प्रासंगिकता, मौलिकता, सामाजिक प्रतिबद्धता, तकनीकी श्रेष्ठता, कलात्मक सौंदर्य की गुणवत्ता जैसे तत्व सफलतापूर्वक उभरकर आते हों।
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पहले भी ऐसा होता रहा है जब राष्ट्रीय पुरस्कार सवालों के घेरे में आये। सैफ अली खान, अजय देवगन और संजय लीला भंसाली को औसत या हल्के दर्जे का कलाकार नहीं कहा जा सकता लेकिन जिन फिल्मों के लिए इन्हें पुरस्कृत किया गया, उनके संदर्भ में उनकी प्रतिभा उस स्तर की रही, जिसके लिए उन्हें पुरस्कार दिये गये? विचारणीय यह है।
इन विसंगतियों का कारण क्या है? राष्ट्रीय पुरस्कारों की नियमावली में कई बार स्पष्ट उल्लेख होता है कि निर्णायक मंडल के निर्णय को अंतिम माना जाएगा और उन पर किसी तरह का राजनीतिक दबाव नहीं होगा। लेकिन, क्या इस लिखित नियम का पालन ईमानदारी से हो पाता है? दूसरी बात, निर्णायक मंडल का चयन सरकार का एक मंत्रालय ही करता है तो क्या पिछला नियम प्रभावित नहीं होता? वास्तव में, यह एक भूलभुलैया है जिसमें शब्दजाल ऐसा बिछा है जो आपको हर बार उलझा या भटका देता है।
राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए तय किये जाने वाले निर्णायकों की भूमिका को प्रतिष्ठित एवं सम्मानित फिल्माकर अडूर गोपालकृष्णन ने 2016 के दिसंबर माह में कठघरे में खड़ा किया था। गोपालकृष्णन ने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को लिखे एक पत्र में कहा था कि निर्णायक मंडल का चयन किस योग्यता के आधार पर होता है, इसे सबके सामने रखा जाये ताकि पारदर्शिता आ सके। उन्होंने कड़े शब्दों में कहा था कि कम योग्य लोग ज़्यादा योग्य कलाकारों को जांचें, यह उपयुक्त नहीं है। उन्होंने 2015 के पुरस्कार चयन को लेकर निराशा जतायी थी और कहा था कि इस तरह के चयन से राष्ट्रीय पुरस्कार अपनी गरिमा और औचित्य खो देते हैं। यही नहीं, उन्होंने इसे कला के लिए समर्पित और श्रेष्ठ कलाकारों का नुकसान व अपमान बताया था।
गजेंद्र चौहान को एफटीआईआई में नियुक्त करने वाली व्यवस्था ने शायद इस समय के महान फिल्मकारों में शुमार गोपालकृष्णन के इस पत्र को भी नज़रअंदाज़ कर दिया, इस बार के चयन से ऐसा ही प्रतीत होता है। अयोग्यों या कम प्रतिभाशालियों को बढ़ावा देकर, उन्हें प्रशस्ति देकर कोई व्यवस्था यदि इस मुग़ालते में है कि वह फल-फूल सकती है तो उसे पुरानी कहावत याद रखना चाहिए कि मूर्ख की मित्रता से बेहतर होती है बुद्धिमान की शत्रुता। साख खोते जा रहे राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के लिए नये सिरे से नीति एवं पारदर्शी प्रणाली बनाया जाना समय की मांग है।