मंगलवार, अप्रैल 07, 2020

बात जारी...

क्या औरतें कर सकती हैं मुस्लिम स्टेट का नेतृत्व?


बात जारी... ब्लॉग पर एक नयी श्रेणी, जिसके तहत उन किताबों/लेखों/साहित्य पर संवाद करेंगे, जिसका लेखन किसी समय में किया गया हो, लेकिन उठाये गये मुद्दे/प्रश्न अब भी प्रासंगिक हैं और उन पर समसामयिक संदर्भों में भी समझ विकसित करने की गुंजाइश है. पहली कड़ी में इसी शीर्षक से 1991 में अंग्रेज़ी में पुस्तिका रूप में छपे फ़ातिमा मर्निसी के लेख पर/के बहाने चर्चा.



फ़ातिमा मर्निसी की छोटी सी किताब 'CAN WE WOMEN HEAD A MUSLIM STATE' बहुत बड़े मुद्दे को बख़ूबी समेटते हुए औरतों के बुनियादी हक़ को लेकर एक इनसाइट देती है और फ़ेमिनिज़्म (ख़ासकर इस्लाम संदर्भ में) को समझने के लिए आपका कौतुक और बढ़ता है. अगर आप दुनिया के राजनीतिक संदर्भों से थोड़ा बहुत वास्ता रखते हैं तो समझ सकते हैं कि यह किताब 1991 के आसपास क्यों सामने आती है. पाकिस्तान में लंबी राजनीतिक अस्थिरता के बाद लोकतंत्र की एक तरह से बहाली हुई थी और बेनज़ीर भुट्टो चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बनी थीं. यह 1980 के दशक के आख़िरी सालों में हो रहा था. दूसरी तरफ, 1993 में ख़ालिदा बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनने जा रही थीं और इससे पहले के कुछ सालों में वह बतौर नेता उभर रही थीं.

एक तरफ़, सिंगापुर जैसे ग़ैर मुस्लिम देश में जब हलीमा ​बिंती याकोब जैसी एक महिला राष्ट्रपति के पद पर आसीन होती है, तो ज़्यादा बवाल नहीं होता, लेकिन बांग्लादेश में शेख़ हसीना के शीर्ष पद पर बने रहने के कारण समय समय पर इस्लामी आलिमों का एक वर्ग औरतों के ख़िलाफ़ कोई न कोई राग छेड़ता रहता है. इस पूरे परिदृश्य को लेकर इस्लाम के पितृसत्तात्मक समाज के कुछ बड़े ख़य्यामों ने यह सवाल खड़ा किया कि औरतों के नेतृत्व को धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक़ क़बूल नहीं किया जा सकता. औरतों से यह हक़ छीनने के लिए जो बहस छेड़ी गयी थी, उसे एक आधार देने के लिए एक हदीस का सहारा लिया गया. यह हदीस इस तरह है :

"जो लोग अपने मुआमले एक औरत की निगरानी में या औरत के सुपुर्द करते हैं, वो संपन्नता को कभी नहीं समझेंगे."

यह हदीस वाक़िई एक बड़ा बयान है और धर्म के आधार पर इस हदीस की दलील पर औरतों को उनके हक़ से महरूम किया जा सकता है. लेकिन, बात उतनी नहीं होती, जितनी दिखायी या सुनायी देती है. इस हदीस की व्याख्या को समझने के लिए एक पूरा इतिहास और नज़रिया चाहिए ताकि सही कसौटी पर इसे तोलकर तय किया जा सके, कि यह कितनी बड़ी या संजीदा दलील हो सकती है.

Book Cover Image.

मज़हबी दलील के जवाब में मज़हबी दलीलें


फ़ातिमा की यह आलेखनुमा पुस्तिका इस हदीस का इतिहास टटोलती है, इस हदीस के लेखक और पैग़म्बर के अनुयायी अबू बक़्र के चरित्र और जीवन अनुभव से बने नज़रिये को परखती हैं, साथ ही, पैग़म्बर के ऐसे कई हवाले प्रस्तुत करती हैं, जो औरतों के हक़ में रहे हैं. शेख़ ग़ज़ाली की 1990 में तहलक़ा मचाने वाली किताब का ज़िक्र करते हुए पहली दलील तो फ़ातिमा यही देती हैं कि अगर किसी मुद्दे पर हदीस और क़ुरआन की व्याख्या में अंतर आता है, तो क़ुरआन को तरजीह दी जाये, यही क़ाइदा है क्योंकि यह इस्लाम की दिव्य पुस्तक है, इसके आगे कुछ नहीं.

कुल मिलाकर, यह पुस्तिका क़ुरआन के कई किस्सों और हवालों की चर्चा करते हुए इस हदीस की व्याख्या को समझने के दौरान पाठक को समृद्ध करती हुई इस तार्किक नतीजे पर पहुंचती है कि औरतों को नेतृत्व का हक़ है और इस्लाम में ऐसी कोई मनाही नहीं है कि औरतें शीर्ष राजनीतिक पदों पर न पहुंच सकें. लेकिन, फ़ातिमा इस चर्चा के साथ ही मुसलमान औरतों को चेतावनी देती हैं कि उन्हें इस्लाम की सही व्याख्याओं को समझना होगा, ताकि पितृसत्तात्मक सोच की व्याख्याएं उन्हें उनके बुनियादी अधिकारों से महरूम न कर दें. फ़ातिमा के शब्दों में :

"इन हालात में पुरुष अपनी इस्लामी विरासत से बेख़बर रहने का जोख़िम उठा सकते हैं, लेकिन हमारे पास यह महंगी सुविधा नहीं है."

उपसंहार में और मुद्दों पर बात की गुंजाइश..


एक और अहम पहलू फ़ातिमा इस आलेख में छेड़ते हुए महिलाओं से अपील करती हैं कि वो मोहम्मद साहब की जीवनी और उनके संदेश तो समझें ही, साथ ही उनकी पत्नियों की जीवनी और उनसे जुड़े इतिहास से भी गुज़रें ताकि इस्लाम में औरत को लेकर अंतर्निहित मूल भावना को सही सही समझ सकें. इसके लिए इस आलेख में फ़ातिमा ने मोहम्मद साहब की पत्नियों से जुड़े कुछ वाक़ये भी प्रस्तुत किए हैं और समझाया है कि इस्लाम और मोहम्मद साहब की नज़र में औरतों की जगह और मर्तबा इज़्ज़त का था, हिक़ारत का नहीं. इस बात को एक उदाहरण के उजाले में देखें :

पैग़म्बर मुहम्मद की परंपराओं व शिक्षाओं को शामिल करने वाली किताब 'सहीह मुस्लिम' में, मुहम्मद साहब के साथी रहे अबू हरैरा ने उल्लेख किया है कि "एक शख़्स मुहम्मद साहब के पास आकर बोला : 'तमाम लोगों में मेरे हाथों सबसे अच्छे सलूक़ का हक़दार कौन है?' मुहम्मद साहब ने कहा: 'तुम्हारी मां.' उसने फिर पूछा: उसके बाद? उन्होंने कहा: फिर तुम्हारी मां. फिर उसने पूछा: फिर कौन? उन्होंने कहा: फिर तुम्हारी मां. उसने फिर पूछा: फिर? तब मुहम्मद साहब ने कहा: इसके बाद तुम्हारे पिता." इस उदाहरण के ज़रीये कई विद्वान इस्लाम और क़ुरआन में महिलाओं के रुतबे और उनके तमाम अधिकारों की वक़ालत करते हैं.1

इस्लाम और फ़ेमिनिज़्म


यहां से चर्चा छिड़ती है कि इस्लाम में फ़ेमिनिज़्म के क्या मायने हैं. जिनके जवाबों से हम इस पहलू को समझेंगे, वो सवाल ये हैं : 1. क्या इस्लाम में औरतों की स्थिति अन्य धर्मों के बरक़्स ज़्यादा ख़राब है? 2. क्या 'इस्लामी फ़ेमिनिज़्म' कोई अलग और जायज़ मुहावरा है? 3. क्या इस्लाम में धार्मिक होना और फ़ेमिनिस्ट होना एक साथ संभव है? फ़ातिमा की किताब से इस्लाम में महिलाओं के अधिकारों के ख़िलाफ एक बड़े ख़ेमे के डटे होने के संकेत साफ़ मिलते हैं और यहां से मुस्लिम स्टेट में महिलाओं के तमाम हुक़ूक की लड़ाई के अध्याय खुल जाते हैं.

Creative image of Fatima Mernissi. (Image : AWID)

सबसे पहले, तो ये समझना ज़रूरी है कि दुनिया में औरत और मर्द के बीच का संघर्ष प्रजातीय है यानी लैंगिक भेदभाव किसी धर्म विशेष की नहीं, बल्कि पूरी मानव जाति की है. जब यह संघर्ष इस्लाम या इस्लामी देशों के संदर्भ से जुड़ता है तो धार्मिक आधार, संदर्भ और व्याख्याएं बदल जाती हैं. जैसे यदि इस संघर्ष को भारत के हिंदू समाज में देखा जाएगा तो महिलाओं की स्थिति के लिए हिंदू धर्म के संदर्भ, जातिगत आधार और धार्मिक व्याख्याएं सामने आएंगी. इसी तरह किसी भी एक ख़ास समुदाय में विमर्श के औज़ार बदल जाएंगे, लेकिन समस्या और उसकी मूल भावना में मानव अधिकार के तर्क तो वही रहेंगे.

ईरान बेस्ड फ़ेमिनिस्ट वैलेंटाइन मोगहादम के शब्दों में क़ुरआन एक खुली किताब है और इससे जो सबक़ मिलते हैं, उनके सार में अंतर्निहित है कि 'इस्लाम में दूसरे प्रमुख धर्मों की तुलना में पुरुष प्रभुत्व ज़्यादा या कम नहीं है. ख़ासकर, हिंदू धर्म और यहूदी व ईसाई जैसे दोनों अब्राहमी धर्मों में यही हालात हैं कि औरत को बीवी और मां के तौर पर ही मूर्त कर दिया गया है.' 2

इस उद्धरण से एक और साज़िशी सोच सामने आती है कि औरत को मां, बीवी जैसे जीवन आदर्शों में क़ैद कर दिया गया ताकि वह घर की चहारदीवारी में ज़िंदगी गुज़ार दे. मर्द के लिए पिता या पति जैसे आदर्श उसके पूरे जीवन चरित्र का एक हिस्सा भर हैं, पूरा जीवनादर्श नहीं. वह महत्वाकांक्षा, सफलता, वीरता, न्याय और नेतृत्व जैसे कई आदर्शों के जीवन के लिए मुक्त है. इसी का नतीजा है कि महिलाओं की शिक्षा, जागरूकता, सुरक्षा और समान अवसरों की स्वतंत्रता जैसे अधिकार सदियों के परदे या रूढ़िवादी सोच तले संघर्षरत हैं.

अपनी किताब 'वीमन एंड जेंडर इन इस्लाम' में लीला अहमद ने अरब इतिहास के प्राचीन समय से आधुनिक काल तक महिलाओं पर लैंगिकता पर केंद्रित विमर्श के बारे में संवाद किया है. उन्होंने ज़ोर दिया है कि इस्लाम में लैंगिक संदर्भ, अस्ल में, पुरुष की बनायी वैधानिक व्यवस्था के उत्पाद रहे हैं या पुरुष प्रधान समूहों के प्रभुत्व में रहे हैं. 'नैतिक इस्लाम' ऐसे हाथों में रहने के कारण न्याय, धर्मनिष्ठा और ईश्वर के समक्ष सबकी समानता जैसे संवाद हमेशा पिछड़े रहे हैं.3

क्या 'इस्लामी फ़ेमिनिज़्म' जायज़ मुहावरा है?


इस सवाल का जवाब है, नहीं. ऐसी किसी टर्म का इस्तेमाल उसी विमर्श का हिस्सा है जैसे आप 'इस्लामी आतंकवाद' या 'हिंदू आतंकवाद' जैसे शब्द ईजाद करते हैं. जैसे आतंकवाद को किसी धर्म से जोड़कर प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए, वैसे ही औरतों के हक़ की लड़ाई एक वैश्विक संवाद है, इसे धर्म विशेष में बांधने के अपने ख़तरे और सियासत है, जिसे समझना चाहिए. ऐसा करने से दुनिया की मुस्लिम महिलाओं और दुनिया की मुख्यधारा की महिलाओं के संवाद के बीच एक खाई बन जाती है.

A text page Excerpt from Fatima's book.
इस्लाम और महिलाओं जैसे केंद्रीय विषय पर मशहूर लेखक और फ़ेमिनिस्ट डॉक्टर फ़ातिमा सीदत का मानना है कि क़ुरआन के आधार पर नारीवाद किस तरह अस्तित्व रखता है, इसके बारे में बातचीत ज़रूरी है. 'फ़ेमिनिज़्म एंड इस्लामिक फ़ेमिनिज़्म' लेख में सीदत ने समझाया है कि 'इस्लामिक फ़ेमिनिज़्म' जैसे शब्द विन्यास मुस्लिम जगत को अलग-थलग कर सार्वभौमिक नारीवादी आंदोलनों और बाक़ी दुनिया से विलग कर देते हैं.4

तार्किकता के बावजूद यह टर्म अब भी इस्तेमाल की जा रही है, यहां तक कि विकिपीडिया पर 'इस्लामिक फ़ेमिनिज़्म' शीर्षक से एक पूरा विस्तृत पेज है. इसके अलावा महिलाओं के अधिकारों के विमर्श में ईस्ट और वेस्ट के साथ ही धार्मिक और सेक्युलर जैसे अंतर भी डाले गये हैं, लेकिन 'ऐसे विभाजनों को इस्लामी नारीवाद खारिज करता है. इस तरह की दरारों को उपनिवेशवाद ने सींचा और बाद में, इस्लामियों की कट्टर और विरोधी ताक़तों ने इनका राजनीतिकरण किया'.5

इस्लामी फ़ेमिनिज़्म के मुहावरे का एक और कारण मुस्लिम आबादी का ग़ैर मुस्लिम यानी पश्चिमी देशों में बसे होना है. पश्चिमी देशों की मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई की अपनी चुनौतियां हैं क्योंकि उनके अधिकारों को उनके धार्मिक परिदृश्य में समझने के नज़रिये और व्यवस्थाएं पश्चिमी देश अपनाते रहे हैं. ऐसे में 'पश्चिमी देशों में बहुसांस्कृतिक नीतियां अस्ल में, इस्लाम की पुरुषप्रधान संरचना पर आधारित हैं, इससे होता यह है कि नारी पर पुरुष के प्रभुत्व को थोपे जाने से महिलाएं अक्सर असुरक्षित हो जाती हैं और कभी कभी तो धर्म के नाम पर हिंसक बर्ताव की भी अनदेखी कर दी जाती है.' 6

धार्मिकता और फ़ेमिनिज़्म का सवाल


अस्मा बर्लास अपनी किताब 'बिलीविंग वीमन' में क़ुरआन की 'अनरीडिंग' की समझ की बात करते हुए कहती हैं कि अब तक क़ुरआन की व्याख्या पुरुषवादी रही है, जिसे भूलकर इस्लाम में लैंगिक समानता के आधारों को समझने की ज़रूरत है.7 इस्लाम में, अस्ल में, जब औरतें अपने अधिकारों की बात करती हैं, तो सबसे पहले उन्हें धर्म के अखाड़े में पहलवान की तरह उतरने की ज़रूरत होती है, जहां वह महिला विरोधी पहलवानों के गैंग को धूल चटा सकें. इसी कारण, फ़ेमिनिज़्म जब इस्लाम या इस्लामी देशों में पहुंचता है तो धर्म आधारित विमर्श के बग़ैर उसका गुज़ारा होता नहीं. फ़ातिमा मर्निसी ने भी इसी तरह धार्मिक दलीलों को धार्मिक दलीलों से ही काटकर औरतों के हक़ की राह मुनव्वर करने की कोशिश की.

इसका दूसरा पहलू ये है कि औरतें अगर अपने अधिकारों की बात करती हैं, तो एक बड़ा ख़ेमा है जो उन्हें अधार्मिक, धर्मविरोधी या धर्म के लिए ख़तरा तक क़रार दे देता है. इसका उदाहरण यह है कि मोहम्मद की पत्नियों की भूमिका पर ऐतिहासिक संदर्भों में चर्चा करने वाली फ़ातिमा की मशहूर किताब 'द वील एंड द मेल एलीट : ए फ़ेमिनिस्ट इंटरप्रिटेशन ऑफ इस्लाम' को मोरक्को, ईरान, अरब देशों और फ़ारस की खाड़ी इलाके में प्रतिबंधित कर दिया गया था.8

यह समस्या बड़ी है क्योंकि किसी भी रूढ़िवादी और परंपरागत समाज में खुली खिड़कियां कम होती हैं और ऐसे में कई शब्दों को उसके वास्तविक अर्थों में नहीं बल्कि भ्रामक अर्थों में समझा जाता है. जैसे सेक्युलर. न सिर्फ़ फ़ेमिनिज़्म बल्कि किसी भी विमर्श में हमेशा एक ख़ेमा सेक्युलर शब्द को धर्म विरोधी या अधार्मिक के अर्थ से ही जोड़ता है, यह भूलकर कि एक सेक्युलर राज्य का मतलब ही यही होता है कि वह धर्म की आज़ादी सुनिश्चित करता है.

'लैंगिकता के इस्लामी विमर्श जो संलग्न हैं, वो महिलाओं और ख़ासकर, उलझी हुई पहचानों से ग्रस्त मेरे जैसी महिलाओं, द्वारा प्रस्तुत की गई चुनौतियों पर प्रतिक्रिया देने की कोशिश कर रहे हैं. वो महिलाएं जो अपने फ़ेमिनिज़्म का सामंजस्य अपने अक़ीदे के साथ चाहती हैं.'9

मूलत: ईरान से ताल्लुक रखने वाली कानून की विद्वान और मशहूर फ़ेमिनिस्ट लेखिका ज़ीबा मीर होसैनी का यह बयान न सिर्फ़ विचारणीय है बल्कि इस्लाम के विद्वानों के सामने एक बड़ी चुनौती है. इस्लाम में औरतों की स्थिति और उनके अधिकारों को लेकर एक ऐसा माहौल और आदर्श तय करने का समय लगातार बना हुआ है, जिसे धर्म का कोई अखाड़ा नकार न सके. और जब तक ऐसा नहीं होता, औरतों के हक़ की लड़ाई जारी रहना चाहिए. जब तक मर्दों के 'तक़्सीम चौराहे' दुनिया में रहें, तब तक औरतों की 'तहरीर चौक' का वजूद भी लाज़िम है.

संदर्भ सूची
1, 4. - 'इस्लामिक फ़ेमिनिज़्म' - विकिपीडिया लेख
2, 3, 7, 9. - द लाइब्ररी ऑफ कांग्रेस द्वारा प्रकाशित प्रिसिला आफ़ेनहार कृत 'वीमन इन इस्लामिक सोसायटी'
5, 6. - 2008 में मार्गट बादरान का गार्जियन पर लेख 'इस्लाम्स अदर हाफ' (Islam's Other Half)
8. - राकेल एविता सरस्वती का लेख Fatima Mernissi: Going Beyond The Veil To Fight Misogynist Interpretations Of Islam

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें