शनिवार, दिसंबर 09, 2017

सिनेमा

कट्टरपंथ के निशाने पर फिर कला जगत


अब समाज को तय करना ही होगा कि वह किसके पक्ष में है - कला और स्वतंत्रता के या अराजक व्यवस्था और लचर सियासत के? हम अपने सम्मान, मूल्यों एवं औचित्यों के साथ मज़बूती से खड़े हों या हाथ में तलवार अथवा बंदूक लेकर हर आवाज़ के क़ातिल बन जाएं?


सोच में जब भी हार जाता है
वो मुझे गोली मार जाता है।

पहलाज निहलाणी साहब के विदा होने के बाद प्रसून जोशी जी आये। ऐसा लगा कि अब बेहतर कार्यशैली नज़र आएगी। लेकिन, भंसाली जी की फिल्म से जुड़े नये विवाद के स्पष्ट हो गया है कि सेंसर बोर्ड एक विचारधारा विशेष के कुछ समूहों व संगठनों के इशारे पर ही थिरक रहा है। जोशी जी की चुप्पी, निष्क्रियता एवं अस्पष्टता देखकर लगता है कि वे दिन हवा हो चुके जब राष्ट्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को सेंसर बोर्ड कहा जा सकता था। अब तो यह केवल नॉनसेंस बोर्ड प्रतीत होता है जो अपना औचित्य एवं प्रासंगिकता दरकिनार कर चुका है, प्रतिष्ठा तो ख़ैर बात ही दूर की है।

संजय लीला भंसाली साहब हमारे समय के प्रमुख एवं प्रतिष्ठित फिल्मकारों में शुमार हैं। यह और बात है कि मैं ज़ाती तौर पर पिछले लंबे समय से उनकी फिल्मों से निराश हूं लेकिन उनकी अपनी एक शैली और नज़रिया है, जिसके कारण उनका नाम सम्मान का हक़दार है। भंसाली साहब की आगामी फिल्म पर विवाद हो रहा है। मैं दरअस्ल, एक ऐसे मोड़ के इंतज़ार में था, जो इस विवाद की काली सुरंग में संवाद का प्रकाशद्वार खोले। लगभग दो महीने से चल रही हमाहमी के बाद यह मौक़ा नसीब हुआ।

एक अहम बयान आया बॉम्बे हाईकोर्ट की जानिब से जिसमें साफ कहा गया है -

"यह दुख की बात है कि एक व्यक्ति फिल्म बनाता है और सैकड़ों लोग दिन-रात काम करके उसे पूरा करते हैं, लेकिन लगातार मिल रही धमकियों के चलते फिल्म रिलीज नहीं हो पा रही है। यह एक अलग किस्म का सेंसर बोर्ड है। हम कहां पहुंच गए हैं? कोई खुलेआम धमकी दे रहा है कि जो भी अभिनेत्री को जान से मार देगा, उसे इनाम दिया जाएगा। यहां तक कि एक मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि वह अपने राज्य में फिल्म को रिलीज नहीं होने देंगे। इससे देश का नाम खराब हो रहा है। हमारी चिंता देश के लोकतंत्र एवं छवि को लेकर है।"

इस बयान के पार्श्व में गोविंद पानसरे और नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के मामले में जांच एजेंसियों के रवैये और समाज के बुद्धिजीवी वर्ग के सदस्यों की हत्या जैसी घटनाओं के प्रति दुख एवं रोष भी शामिल है। हाईकोर्ट की उपरोक्त टिप्पणी कुछ ज़रूरी पहलुओं पर सोचने के साथ ही एक किस्म की अराजकता के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए प्रतिबद्ध होने की दिशा दिखाने के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है। तीन बिंदुओं पर फोकस करता हूं -

पहला
कोई संगठन खुलेआम किसी कलाकार की हत्या पर इनाम घोषित कर रहा है और टीवी पर यह बयानबाज़ी दिखायी जा रही है लेकिन उस व्यक्ति के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की जा रही। कलाकार और उसके परिवार को सुरक्षा दी जा रही है।

यह व्यवस्था की स्पष्ट नपुंसकता है। हिंदू हो या मुसिल्म या किसी और धर्म से संबंधित, व्यक्ति हो या संगठन, कोई भी इस प्रकार की धमकी खुलेआम देता है तो साफ़ ज़ाहिर होता है कि निशाने पर लिये गये व्यक्ति के लिए नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था और सत्ता के लिए यह खुली चुनौती है। और ऐसे मामले में यदि सत्ता निष्क्रिय एवं निष्प्रभावी नज़र आती है तो दो ही कारण हो सकते हैं - या तो सत्ता नपुंसक है या फिर इसमें सत्ता की मिलीभगत है।

दूसरा
किसी राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा यह बयान दिया जाना कि हम अमुक फिल्म को राज्य में रिलीज़ नहीं होने देंगे, यह किस तरह की मानसिकता का परिचायक है? अब तक ऐसी कोई पुष्ट खबर नहीं है कि यह बयान उन मुख्यमंत्री जी ने फिल्म देख लेने के बाद दिया है।

कला में राजनीति नहीं होनी चाहिए। लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए, एक संप्रदाय विशेष की भावनाओं को उकसाकर अपना उल्लू सीधा करने के लिए राजनीति का यह कदम घिनौना होता है। ऐसी संकुचित और अपरिपक्व मानसिकता वाले बयान देने वाले राजनेताओं का सार्वजनिक रूप से इम्तिहान लिया जाना चाहिए और उनसे इतिहास, कला एवं साहित्य की समझ संबंधी प्रश्न खुले मंच से पूछे जाने चाहिए। उनकी योग्यता को परखा जाना चाहिए।

तीसरा
फिल्म के कलाकारों और हालिया अतीत में लेखकों व पत्रकारों को हत्या की धमकी दिया जाना, क़त्ल कर दिया जाना लोकतंत्र की किस छवि का निर्माण करना है? देश का नाम और पहचान विश्व में किस तरह से बन रही है?

सहिष्णुता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सर्वधर्म समभाव जैसे शब्द कागज़ी मालूम होते हैं जो भारत की एक ग्लोबल छवि प्रस्तुत करने के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। ऐसे प्रसंग आने पर यह कोरा झूठ साबित हो जाता है। हम एक हिंसक, पक्षपाती एवं सांप्रदायिक सोच का मुज़ाहिरा करते हैं। हाईकोर्ट ने यह भी कहा है कि कलाकारों और बुद्धिजीवियों को धमकाने से देश की छवि खराब होती है। चिंता का विषय यह है कि देश का चरित्र कितना अच्छा है जो इसे छवि की चिंता हो? जो लोग छवि एवं चरित्र का नुकसान कर रहे हैं, वे यह भूल रहे हैं कि बुद्धिजीवी और कलाकार ही इस तस्वीर को अंजाम देते हैं। वैसे भी, अयोग्य चेहरों को पद एवं सम्मान देने वाली यह सरकार अपनी बौद्धिक कंगाली समय-समय पर साबित कर चुकी है।

गांधी जी ने कहा था - "एक लेख का उत्तर दूसरा लेख ही हो सकता है।"

यह भी विचारणीय बिंदु है कि कोई सरकार क्या गांधीजी से सिर्फ स्वच्छता का सबक ही सीखेगी, बाकी कुछ नहीं? अहिंसा, सत्य, स्वाबलंबन आदि शिक्षाएं भी गांधीजी ने दी हैं लेकिन ये क्यों नहीं सीखी जा रहीं? क्या ये सबक किसी सरकार की ब्रांडिंग के आड़े आते हैं? या उस सरकार पर कोई दबाव है कि आप हर अच्छी बात गांधीजी से ग्रहण नहीं करेंगे?

बहरहाल, गांधी जी के कोट की ज़बान में कहूं तो एक फिल्म का उत्तर उसकी समीक्षा व आलोचना या दूसरी फिल्म ही हो सकती है। कोई धमकी या अंकुश नहीं। और जैसा पहले हो चुका है, कलाकार के सीने पर गोली तो कतई नहीं। संस्कृति का हल्ला मचाने वालों को यह समझना चाहिए कि संस्कृति से पहले होती है सभ्यता। अगर आप सभ्य समाज ही नहीं हैं तो आपके मुंह से संस्कृति शब्द सिवाय बकवास के कुछ नहीं है।

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