शनिवार, दिसंबर 02, 2017

एक फ़नकार

ये वो नज़्म है जो भूली नहीं जाती


29 नवंबर को यौमे-पैदाइश पर ख़िराजे-अक़ीदत


फ़ैज़ और साहिर, मजरूह जैसे शायरों के समकालीन और उर्दू अदब के एक बेहद नायाब शायर अली सरदार जाफ़री; सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड, पद्मश्री और भारतीय ज्ञानपीठ से उर्दू शायर के रूप में नवाज़े जा चुके अली सरदार जाफ़री; तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ की शायरी की शक़्ल रचने वाले बेमिसाल शायर अली सरदार जाफ़री... कई परिचय हो सकते हैं इस फ़नक़ार के लेकिन मेरे लिए नजि़्मया शायरी के शहंशाह का नाम है अली सरदार जाफ़री।


कहां से छेड़ूं फ़साना कहां तमाम करूं... इसी पसोपेश में हूं सरदार और उनकी नज़्मों का ज़िक्र करने बैठा हूं तो। मेरे कुछ दोस्त और अज़ीज़ आपको गवाही दे सकते हैं कि पिछले कई बरसों से सरदार की नज़्म "मेरा सफ़र" मैं अक्सर सुनाता रहा हूं और मुझसे यह नज़्म सुने बिना दोस्तों की बहुत सी महफ़िलें उठी नहीं हैं। बरसों का रिश्ता बन चुका है इस नज़्म से। ज़बानी याद है और कई बार अकेले में इस नज़्म को दुहराता रहा हूं। कभी इसने हौसला दिया है तो कभी यक़ीन, कभी ताक़त तो कभी सूरते-तख़लीक़।

Ali Sardar Jafri. image source: Google

सरदार के ही समकालीन रहे हिन्दी के विराट् कवि नरेश मेहता। मेहता जी ने एक अमर काव्य लिखा है "महानिर्वाण"। इसके पन्ने पलटने पर पता चलता है कि इसमें और सरदार की नज़्म "मेरा सफ़र" में कई स्तरों पर कितना जुड़ाव है। बस भाषा का मिज़ाज अलग-अलग है। मेहता जी अपनी शैली में जिस अमरत्व और कालजयत्व का ज़िक्र कर रहे हैं, इंसान की उसी सत्ता और इंसानियत की उसी जाविदानी को रेखांकित कर रहे हैं सरदार। एक ऐसी नज़्म जिससे गुज़रकर उसे भुलाया जाना एक गुनाह से कम नहीं। मौत से शुरू होती और ज़िंदगी तक आती यह नज़्म अमरता पर मुक़म्मल हो जाती है। यह भारत के हर समय में पल्लवित हुए दर्शन का एक ऐसा कोण है जो इस नज़्म में सरदार ने पूरी शिद्दत के साथ इस तरह बुन दिया है कि एक बारीक़ दर्शन का समझने के लिए आपको मोटे-मोटे ग्रंथ न खंगालने पड़ें।

नज़्मों का ख़याल आते ही हमारे ज़हन में पहला नाम फ़ैज़ का गूंजने लगता है। मैं यह नहीं कहता कि ऐसा होना ग़लत है। और, ये भी एक हिमाक़त ही होगी कि मैं फ़ैज़ और सरदार के बीच किसी किस्म की तुलना करने लगूं। दरअस्ल, बात यह है कि फ़ैज़ की शायरी पूरी तरह से अवामी शायरी है। फ़ैज़ चूंकि सीधे तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े और पाकिस्तान में तो इसके संस्थापकों में रहे तो जनगीतों या नारा बनने वाली शायरी की आवाज़ बने फ़ैज़। उनकी नज़्में भी गायी गयीं और बड़ी सहजता के साथ अवाम में घुल-मिल गयीं।

दूसरी तरफ़, सरदार की नज़्में अपने आकार में, अपनी लय में और अपनी सूरत में ज़रा ज़्यादा मुश्किल मालूम होती हैं। अब यह मुश्किल नाजायज़ नहीं है क्योंकि इनमें गंभीरता और बारीक़बयानी कम नहीं। सरदार की नज़्मों ने नारों की शक़्ल अख़्तियार नहीं की। किसी पार्टी या विचारधारा विशेष का झंडा लेकर जुलूस की अगुआ नहीं बनीं लेकिन ये अवाम की नज़्में नहीं हैं, ऐसा नहीं है। अवाम में गयीं, लेकिन अदब के साथ, बेतक़ल्लुफ़ी के साथ नहीं, रखरखाव के साथ। सज्जाद ज़हीर कहते हैं -

"सरदार जाफ़री की बड़ी कविताओं में बड़ी दीवारी चित्रकारी का आनंद है। उनके शब्द शक्तिशाली हैं, उनकी लय जोश से भरी हुई है, निश्चित रूप से उनकी शैली उपदेशकों जैसी है... क्या रूमी की मसनवी का, मीर अनीस के मर्सियों का, इक़बाल के शिक़वे का, शेक्सपियर के नाटकों का अंदाज़ उपदेशकों जैसा नहीं है..?"

प्रभाव के स्तर पर सरदार की नज़्में उतनी ही कामयाब हैं जितनी फ़ैज़ या किसी और कामयाब शायर की हैं या हो सकती हैं। सरदार ने अपनी नज़्मों में अपनी विश्व दृष्टि को भरपूर जगह दी है और उनकी नजि़्मया शायरी के हवाले से स्पष्ट कहा जा सकता है कि वह समाजवाद जैसी अवधारणा में विश्वास रखते रहे और पूंजीवाद के ख़िलाफ़ रहे। "एशिया जाग उठा", "हाथों का तराना" जैसी नज़्में इस बयान की तस्दीक़ करती हैं।

"पत्थर की दीवार", "भूखी मां भूखा बच्चा", "अनाज" और "एक ख़्वाब और" जैसी नज़्मों के रूबरू आते ही कोई भी पाठक सरदार की आवाज़ की सच्चाई को दिल में ख़ंजर की तरह उतरता हुआ पाता है। अपने समय के सच को पकड़कर शब्दों में घोल देना और आने वाले समय के लिए कई इशारे उन शब्दों के बीच के ख़ाली वक़्फ़ों में छुपा देना सरदार की शायरी का एक ऐसा पहलू है जिसकी बदौलत दुनिया उन्हें याद रख सकेगी। सिद्दीकुर्रहमान किदवाई के शब्दों में -

"... दरअस्ल, प्रगतिशील आंदोलन इसी युग का प्रतीक है और सरदार जाफ़री की शाइरी के बग़ैर इस इतिहास को मुक़म्मल नहीं कहा जा सकता। इसी सिलसिले में उनकी नज़्म "नयी दुनिया को सलाम" इस युग के शे'री सरमाये में एक ख़ास मुक़ाम रखती है। ऐसी कोई दूसरी मिसाल उस ज़माने में हमें नहीं मिलती।"

चन्द मिसरों की नज़्मों से लेकर चन्द पन्नों तक की नज़्मों तक, सरदार हमेशा मेरे लिए उन ज़रूरी शायरों में रहे हैं और रहेंगे जो मेरे दिल के बहुत क़रीब हैं। मैंने जिनसे ज़िंदगी के कुछ दर्स हासिल किये हैं और कर रहा हूं। इन तमाम नज़्मों के शायर सरदार को सलाम करते हुए मैं फिर दुहराना चाहता हूं कि "मेरा सफ़र" एक ऐसी नज़्म है, जिसे अदब और शायरी के हर चाहने वाले को अपनी ज़िंदगी में ज़रूर पढ़, समझ और कंठस्थ कर लेना चाहिए।

..और सारा ज़माना देखेगा हर क़िस्सा मेरा अफ़साना है
हर आशिक़ है सरदार यहां हर माशूक़ा सुल्ताना है...

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