सोमवार, अगस्त 21, 2017

समीक्षा

बड़े वितान की कविता है यह

समीक्षा - भवेश दिलशाद

कृति - कांधों लदे तुमुल कोलाहल

कवि - श्री यतींद्रनाथ राही

--------------------


दो कथन प्रचलित हैं। पहला, उम्र परिपक्वता की निशानी होती है और साधना का प्रतीक। दूसरी, कि उम्र के साथ कलाकार चुक जाता है और उसके पास कहने के लिए कुछ शेष या सार्थक बचता नहीं है। श्री राही जी के सद्यः प्रकाशित गीत संग्रह "कांधों लदे तुमुल कोलाहल" से गुज़रने के बाद पाठक को महसूस होता है कि उनके संदर्भ में पहला कथन कोटेबल है। 90 बरस की उम्र पार कर चुके राही जी के गीत छंद, शिल्प और व्याकरण की कसौटी पर एक ओर परिपक्व हैं तो दूरी ओर, कथ्य एवं नवप्रयोगों के मामले में उल्लेखनीय भी हैं।

राही जी की कविताई वास्तव में अनुकरणीय रही है। इस संग्रह से पूर्व करीब आधा दर्जन गीत संग्रह और कुल एक दर्जन कृतियां साहित्य जगत को सौंप चुके राही जी को मैं उन रचनाकारों की सूची में रखता हूं जो अपने जीवन में अपने साहित्यिक प्रदेय के उचित मूल्यांकन की बाट जोह रहे हैं। कुछ मंचों से भी कह चुका हूं और इस संदर्भ में यहां भी कहना चाहता हूं कि आलोचना निष्पक्ष नहीं हो रही है, अपने धर्म का पालन नहीं कर रही है। अन्यथा राही जी जैसे श्रेष्ठ कवियों को उचित प्रतिसाद अवश्य मिल चुका होता। वैसे भी गीत या छन्द के सामने सही आलोचना का संकट कई दशकों से रहा है। गीतकारों के एक वर्ग को इस दिशा में सशक्त हस्तक्षेप करना ही होगा और रचना व रचनाकार के उचित मूल्यांकन हेतु युद्धस्तर पर समवेत होना होगा तभी इस संकट से निजात पायी जा सकेगी।

विवेच्य संग्रह का आस्वादन करते हुए एक सुधी पाठक के मन में जो कुछ घट सकता है, उसे बयान करने की कोशिश करूं तो कहना चाहूंगा कि इस संग्रह के गीत अपने कथ्य से सबसे पहले पाठक को कहीं जोड़ते हैं, कहीं अचंभित करते हैं तो कहीं उद्वेलित भी। साहित्य की भाषा में इस बात को ऐसे कहूं कि राही जी के इन गीतों में विमर्श उठाने, संवाद स्थापित करने और संवेदना को झकझोरने की शक्तियां हैं। तीनों स्तरों पर राही जी की कविता समकालीन काव्य की धरोहर मानी जाना चाहिए।

दूसरी बात, मैं व्यक्तिगत रूप से मानता हूं कि बिम्ब और प्रतीक को लेकर जितनी नवीन योजनाएं राही जी के गीतों में दृष्टिगोचर होती हैं, उतनी वर्तमान के कई बड़े व चर्चित नवगीतकारों के यहां तक नहीं हैं। इस संग्रह के गीतों में एक विशेषता यह भी है कि इनमें कुछ आह्वान गीत पूरे प्रभाव के साथ मौजूद हैं। वास्तव में, आह्वान गीतों की अपनी एक परंपरा हिंदी काव्य में रही है जो पिछले कुछ दशकों से निस्तेज सी हो चुकी है। राही जी के कुछ गीत इस परंपरा के श्रेष्ठ उत्तराधिकारी के रूप में सिर उठाये खड़े होते हैं। राही जी के गीतों का वितान बड़ा है जिसमें परंपरागत गीत भी हैं, श्रंगार गीत भी। आध्यात्मिक गीत भी हैं और सामाजिक गीत भी। विडंबनाओं के गीत भी भी हैं और परिवार के गीत भी। मौसमों, उत्सवों के गीत भी हैं तो वंचितों के अधिकारों के गीत भी। कुल मिलाकर मैं राही जी को संपूर्ण कवि कह सकता हूं और उनकी रचना प्रक्रिया को प्रणम्य घोषित कर सकता हूं। इस कृति को पाठकों व साहित्य जगत से उचित व सम्यक प्रतिसाद मिले, यही शुभकामना है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें