शनिवार, अगस्त 19, 2017

आलेख

विभाजन केंद्रित साहित्य में “मलबे का मालिक”


विभाजन पर केंद्रित कथा साहित्य को अध्ययन की सुविधा के अनुसार दो श्रेणियों में दो प्रकार से बांटा जा सकता है। पहली, कहानी और उपन्यास और दूसरी भारतीय तथा पाकिस्तानी।


हिंदोस्तान के सीने पर एक लक़ीर खींची गयी थी और बंटवारे के बाद एक ज़मीन दो हिस्सों में बंट गयी थी। इसके इतिहास से वाक़फ़ियत ज़रूरी है। इस विभाजन की त्रासदी के बीज तकरीबन तीन-चार सौ साल पहले डाले गये थे जो इतिहास के जानकार समझते हैं। फिर कुछ अंग्रेज़ इतिहासकारों की दूषित मानसिकता ने इन बीजों को संरक्षण ही नहीं बल्कि ऐसा विकास दिया कि अंजाम में उगी एक ऐसी विभीषिका, जो शायद दुनिया में धर्मजनित सबसे बड़ी त्रासदियों में शुमार है। बहरहाल, यहां त्रासदी की आंच पर पके साहित्य का मुआयना करना अभीष्ट है।

पहली बात तो यह है कि लगभग हर भाषा में साहित्य का प्रारंभ काव्य से ही हुआ है। संस्कृत परंपरा से जुड़ा हिंदी काव्य इस त्रासदी के समय तक अपने पैरों पर मज़बूती से खड़ा हो चुका था। बावजूद इसके, हिंदी कविता में इतनी बड़ी त्रासदी की पीड़ा, दर्द या उससे जुड़े पहलुओं पर बहुत कम और कम महत्वपूर्ण रचनाएं सामने आती हैं। कुछ फुटकर रचनाओं को छोड़कर। इसी समय में, काव्य से अलग कथा साहित्य ने इस विषय को अपना दिल दिया और जिगर का लहू भी। विभाजन पर केंद्रित कथा साहित्य को अध्ययन की सुविधा के अनुसार दो श्रेणियों में दो प्रकार से बांटा जा सकता है। पहली, कहानी और उपन्यास और दूसरी भारतीय तथा पाकिस्तानी। ऐतिहासिक घटनाओं में अक्सर जुगराफिया सच भी जुड़ा होता है इसलिए इस विषय में आप देखेंगे कि हिन्दी में ऐसा कथा साहित्य अपेक्षाकृत बहुत कम है, बनिस्बत उर्दू, पंजाबी और बांग्ला के। जुगराफिया के मुताबिक पंजाब और बंगाल ने विभाजन का दर्द प्रत्यक्ष रूप से झेला इसलिए स्वाभाविक रूप से इन भाषाओं में यह साहित्य अधिक मुखर है। दूसरी ओर, पंजाब, बंगाल के साथ ही कश्मीर में भी उर्दू का दायरा अच्छा-ख़ासा था इसलिए उर्दू में यह साहित्य प्रमुखता से रचा गया। दूसरी बात यह है कि बांग्ला में भी ऐसा साहित्य पंजाबी या उर्दू की तुलना में कम है और इसका कारण सामाजिक या सांस्कृतिक स्थिति को माना जा सकता है। तथ्यों के अनुसार भारत के बंगाल और पूर्वी पाकिस्तान या कालांतर में बांग्लादेश कहे जाने वाले हिस्से में बांग्ला भाषा और संस्कृति दो संप्रदायों के बीच लगातार एक सेतु रही। तथापि, वहां स्थिति उतनी विकट या भयावह नहीं हुई जितनी उत्तर भारत के उपरोक्त हिस्सों में दिखती है।

इस विषय पर महत्वपूर्ण उपन्यासकारों में: भीष्म साहनी, कमलेश्वर, यशपाल, डॉ राही मासूम रज़ा, कृष्ण बलदेव वैद, कुर्रतुल ऐन हैदर, मुमताज़ मुफ़्ती, नासिम हिजाज़ी, अब्दुल्ला हुसैन, खुशवंत सिंह, अमृता प्रीतम, सुनील गंगोपाध्ययाय, चमन नहाल आदि की रचनाएं दृष्टव्य हैं। उपन्यासों को छोड़ अगर कथा साहित्य पर आलेख को केंद्रित करूं तो कुछ नाम ज़रूर लेना चाहूंगा जिन्होंने इस प्रसंग को कथा साहित्य में विमर्श का मुख्य बिंदु बना दिया। मंटो की खोल दो जैसी और कहानियां, इस्मत चुग़ताई की गर्म हवा व अन्य कहानियां, अमृता प्रीतम, यशपाल, भीष्म साहनी, बदीउज्जमा, गुलज़ार आदि की कहानियों के बीच दो लेखकों महीप सिंह और मोहन राकेश लिखित दो कहानियां क्रमशः “पानी और पुल” और “मलबे का मालिक” एक अलग स्थान रखती हैं।

Book - Mohan Rakesh. Source : Google
वास्तव में कथा साहित्य और उपन्यास में समस्याओं के स्तर पर या चित्रांकन के स्तर पर एक साम्य है। विभाजन के समय जो कुछ हुआ, अपराध और दृश्य के दायरे में, वह सब कुछ समान ही है लेकिन आकार के कारण उपन्यासों में विवरणात्मक शैली दिखायी देती है और कभी-कभी, कहीं-कहीं ऐसा भी लगता है जैसे उपन्यासकार इतिहास लिखने के दबाव में लेखन कर रहा है। कहानियों में ऐसा दबाव कम महसूस होता है। आकार में लघुता के कारण ऐतिहासिकता का विवरण संक्षिप्त हो जाता है और कथावस्तु या भावभूमि पर लेखक फोकस रखता है। पानी और पुल तथा मलबे का मालिक समान समस्या भूमि पर रची गयी दो कहानियां उस समय प्रकाश में आयीं तो इनमें नज़रिये के स्तर पर वैभिन्य दिखायी दिया। सुभाष चंद्र यादव लिखते हैं – “नयी दृष्टियों के कारण कहानियां अनेक आयामी हो जाती हैं और लगने लगता है कि “पानी और पुल” में मूल समस्या विरह न होकर इन्सानों का पारस्परिक शाश्वत प्रेम है और “मलबे का मालिक” में रक्खे पहलवान का बदनुमा अभिशप्त जीवन। समस्या को नये कोण से देखने के कारण व्यंजनाएं बदल गयी हैं।“

श्री यादव से सहमत होते हुए एक स्तर पर मेरी दृष्टि उनसे अलग भी है। “मलबे का मालिक” कथा में वास्तव में सभी पात्र प्रतीकात्मक दिखायी देते हैं। ग़नी को हम अभिशप्त अतीत या गुज़रा हुआ ज़माना मान सकते हैं, वहीं रक्खे पहलवान कलंकित वर्तमान व्यवस्था का प्रतीक है। गनी जब पहलवान से मिलकर जाता है तो मोहन राकेश लिखते हैं कि “सट्टे के गुर और सेहत के नुस्ख़े बताने वाला पहलवान आज वैष्णो देवी के दर्शन की यात्रा का क़िस्सा सुना रहा था”। यह पहलवान के पश्चाताप बोध को प्रकट करने की चेष्टा है। होता भी है कि जब अतीत वर्तमान को कलंकित कहने सामने आ जाता है तो एक ग्लानि होती है। वहीं ग़नी का एक छोटा सा वाक्य और महत्वपूर्ण है – “अच्छा रक्खे पहलवान, याद रखना...” यह वाक्य अधिकांश पाठक पाठ में मामूली मानकर नज़रअंदाज़ कर सकते हैं। लेकिन, कितने अर्थों की व्यंजना है इन दो शब्दों में - याद रखना... जब हम पात्रों को प्रतीक रूप में महसूस कर पाते हैं तो सहसा ही ये दो शब्द गूंज बन जाते हैं। याद रखना मामूली बात नहीं है। इसका उदाहरण यह है कि आज भी हम विभाजन का दर्द महसूस करते हैं और उसके इतिहास व साहित्य को पढ़कर दिल ही दिल में भींग जाते हैं क्योंकि हमने याद रखा है... इसीलिए तो विभाजन की त्रासदी के करीब 70 बरस बाद भवेश दिलशाद का कलम यह शेर उकेरता है -

मैं अटारी से जिसे देख के रोया शब भर
चांद उसने वही लाहौर से देखा होगा।

मोहन राकेश ने इस कथा की रचना में कुशलता दिखायी है और संवादों व कुछ ब्मिबात्मक विवरणों से इतिहास को और इतिहास के परिणाम को उकेरा है। इस कथा में, इतिहास के वर्णन का दबाव शायद इसलिए भी नहीं दिखायी देता है क्योंकि यह कथा विभाजन के करीब डेढ़ दशक बाद आयी और तब तक विभिन्न माध्यमों से हम उस समय को भली-भांति जान ही चुके थे। दृष्टव्य है कि बदीउज्जमा की कथा अंतिम इच्छा इससे पहले प्रकाशित हुई थी और इसलिए इस कहानी पर कुछ आलोचकों ने यह आरोप भी लगाया था कि लेखक ने ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य उपस्थित करने में काफी स्याही खर्च की है। जबकि हम समझ सकते हैं कि किसी भी घटना या माध्यम का क्रमिक विकास होता है और शुरुआती स्तर वह सब कुछ ठहरकर या विस्तार से कहने की चेष्टा करता ही है ताकि पाठकों के लिए सुग्राही हो सके। मोहन राकेश आदि को परवर्ती रचनाकार होने के कारण इस मामले में लाभ मिला ही है। विभाजन के विषय पर कथाकारों ने साहित्य सृजन की पूर्वपीठिका तैयार कर दी थी, उसी का परिणाम है कि बाद के रचनाकारों को कथा लेखन में मौलिक प्रयोग करने, बिम्बों व प्रतीकों के सहारे बात करने और विषय को आगामी परिणामों के स्तरों से जोड़ने की सहूलतें तो मिलीं ही।

कहानी “मलबे का मालिक” का सबसे बड़ा प्रतीक है कुत्ता जो कहानी के अंत में नमूदार होता है। पहले भी यह कहानी पढ़कर सोचा करता था कि मोहन राकेश ने इस कुत्ते को किस अर्थ में लिया होगा? अब तक सोचता हूं और मेरा विचार है कि मोहन राकेश जैसे ही पहलवान का ग्लानि भाव दर्शाते हैं, वैसे ही यह कुत्ता कहानी में प्रवेश करता है, यानी संभवतः मोहन राकेश किसी वफ़ादार और रक्षक व्यवस्था के आशावाद से इस कहानी को समाप्त करना चाहते रहे होंगे। यह अलग बात है कि अब यह कुत्ता अपनी वफ़ादारी में फेल हो चुका और हराम की जायी, एक मौक़ापरस्त व आवारा ताकत का प्रतीक बन बैठा है। संभवतः इस कथा के तमाम पात्रों के प्रतीक और भी निकाले जा सकते हैं क्योंकि यह पाठक के अंतर्पाठ पर भी आश्रित होता है। फिर भी, मैंने अपनी दृष्टि को समय सापेक्ष रखते हुए और लेखक की अंतर्वृत्तियों को समझने की चेष्टा करते हुए यथासंभव तार्किक रखने का प्रयास किया है।

अस्ल में, श्रेष्ठ साहित्य में हमेशा तहदारी होती है फिर चाहे वह कथा हो या काव्य। “मलबे का मालिक” और विभाजन से जुड़ी अन्य बेहतरीन कहानियों ने समय के साथ कई परतों को खोला है। फिर आने वाले समय का पाठ ऐसे साहित्य की और परतें खंगालता रहेगा। विभाजन केंद्रित साहित्य, खासकर गद्य में, मेरा प्रिय विषय रहा है। और उपरोक्त नामों व शीर्षकों में से ज़्यादातर मैंने पढ़े हैं। फिर नाटकों का भी एक पहलू है जिसमें असग़र वजाहत लिखित "जिस लाहौर नहीं वेख्या.." हमेशा ज़हन में रहने वाला है। गुलज़ार की कुछ नज़्में, अमृता की नज़्में विभाजन का दर्द और विडंबना लेकर पाठक के दिल से टकराती हैं तो दिल में हफ़्तों सीलन बनी रहती है। इस पूरे परिदृश्य में, मैं कह सकता हूं कि “मलबे का मालिक” मेरी नज़र में तब भी ख़ास थी और अब भी है। तब जब पढ़ी थी, करीब 15 बरस पहले, उन दिनों रंगमंच में सक्रियता पूरे जोश के साथ थी और कुछ साथियों के साथ मिलकर इस कहानी के नाट्य रूपांतरण की योजना बनायी थी, रीडिंग सेशन्स भी हुए थे लेकिन कुछ योग ऐसे बने कि हो न सका। एक बार जीवन में फिर यह कोशिश ज़रूर करना चाहूंगा। हालांकि विभाजन से जुड़े कथा व उपन्यास साहित्य पर कुछ चर्चित संकलन जैसे “सिक्का बदल गया” आदि पूर्व में प्रकाशित हो चुके हैं लेकिन फिर भी एक संभावना इस क्षेत्र में भी बनी हुई है। मालिक ने चाहा तो... इस दिशा में भी प्रयास करने का मन रहा है। फ़िलवक़्त क़िस्सा हुआ तमाम, बेहतरीन क़िस्सों की यादों को सलाम।

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