रविवार, फ़रवरी 18, 2018

समालोचना

कविता क्यूं ज़रूरी है? क्यूं लिखी जाये?


थोड़े पहले समय की तुलना में, पिछले कुछ समय से देखा जा रहा है कि क्रिकेट बहुत ज़्यादा खेला जा रहा है, कमोबेश हर खेल, फिल्में ज़्यादा संख्या में बन रही हैं, प्रधानमंत्री जी की यात्राओं की संख्या ज़्यादा हो गयी है और इसी तरह कविता की पुस्तकों का प्रकाशन एवं कविता का सृजन भी थोक के भाव हो रहा है। जब ऐसा कोई भी कार्य अपेक्षा अथवा ज़रूरत से ज़्यादा होता है तो गुणवत्ता और स्मरणीयता पर विचार किया जाता है। उसे उपयोगी माना जाता है, जिसमें इस प्रकार के गुण हों।


कुछ समय पहले तक हैरानी रहा करती थी कि इतने कवि कैसे पैदा हो रहे हैं? तकनीक के इस दौर में क्या कविता की कोई तकनीक रूपी कुंजी हाथ लग गयी है, जिसे समझ लिया और बन गये कवि..! भाषा विज्ञान की तरह क्या कोई काव्य विज्ञान भी अस्तित्व में आ गया है? इन तमाम हैरानियों से दो-चार होते हुए शोध और अध्ययन करना शुरू किया तो गुत्थियां कुछ सुलझीं और कुछ समझ बढ़ी। उस यात्रा का संक्षेप प्रस्तुत कर रहा हूं।

image source: Google search

कवि होना क्या कोई ईश्वर प्रदत्त कृपा है या प्राकृतिक रूप से उत्पन्न किसी प्रतिभा विशेष का कोई परिणाम? कविता एवं कला के संदर्भ में आपने इस विषय पर पहले कुछ सुना-पढ़ा ज़रूर होगा। कुछ पश्चिम विचारकों की राय यह है कि कविता में 10 फीसदी प्रकृति प्रदत्त प्रतिभा का योगदान होता है जबकि 90 फीसदी परिश्रम अथवा अभ्यास का। अब यहां विचारणीय यह है कि 10 फीसदी का पता कैसे चले और प्रश्न यह है कि पता चल भी जाये तो 90 फीसदी परिश्रम अथवा अभ्यास कौन करता है, इसका पता कैसे चले? ऐसा नहीं है कि इन सवालों के उत्तर नहीं हैं। इसके लिए आप पश्चिमी काव्य सिद्धांतों का अनुशीलन कर सकते हैं और उलझते-सुलझते हुए किसी संतोषजनक बिंदु तक पहुंच भी सकते हैं। चूंकि मेरा अध्ययन भारतीय काव्य व काव्यशास्त्र तक रहा है, इसलिए मैं उसके हवाले से कुछ पहलुओं को उकेरना चाहता हूं।

हमारे समय के प्रतिष्ठित एवं लोकप्रिय कवि गोपालदास नीरज का एक दोहा चर्चित हुआ है -

आत्मा के सौंदर्य का शब्द रूप है काव्य
मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य

नीरज स्वयं श्रंगार के कवि के रूप में एक सुदीर्घ यात्रा कर चुके हैं इसलिए स्वाभाविक है कि पहले चरण में वह आत्मा के सौंदर्य का उल्लेख कर रहे हैं। सौंदर्य की परिकल्पना कालिदास से होते हुए अंग्रेज़ी साहित्य के रोमांसिज़्म दौर तक पहुंचती है, जहां वर्ड्सवर्थ और शैली जैसे कवियों के नाम मिलते हैं और फिर हिन्दी साहित्य के मध्यकाल से होती हुई छायावादी काव्य तक पहुंचती है। इस परिदृश्य से इतर, मैं सौंदर्य शब्द को सतत परिष्कार रूप में ग्रहण करना चाहता हूं। आत्मा के परिष्कार की अवधारणा ग्रहण करने से बात अपनी पूरी प्राचीनता के साथ उत्तर आधुनिक समय के संदर्भों से भी जुड़ जाती है।

अब दोहे की दूसरी पंक्ति पर विचार करें। भाग्य की अवधारणा से स्पष्ट हो जाता है कि नीरज जी किसी ईश्वरीय शक्ति की कृपा को स्वीकार कर रहे हैं। ‘कवि होना...’ होना- यह शब्द संकेत है कि कवि होता है, बनता नहीं है। जैसे आप मानव होते हैं, मानव रूप में जन्मते हैं, आप मानव बनते नहीं हैं। यह और बात है कि किसी प्रकरण में मानवीय गुणों का लोप होना पाया जाये। अंततः बात भाग्य और सौभाग्य की। नीरज जी मंच के कवि ज़रूर रहे हैं लेकिन उनकी गंभीरता किसी शक़ के दायरे में नहीं रही। उन्होंने ऐसा कहा है तो यह कोई हवा-हवाई गल्प तो नहीं होगा। वह किस रहस्य तक पहुंचे हैं? कौन सा सत्य उनके सामने खुल गया है, जिसके कारण वह कवि होने को सौभाग्य निरूपित करने को विवश हुए हैं?

यश, धन, कीर्ति एवं स्वीकार्यता, यह सब नीरज जी को कविता के माध्यम से प्राप्त है। तो क्या इसलिए वह ऐसा कह रहे हैं? यदि हां तो यह सब कुछ तो किसी और को कविता के अलावा व्यापार, विज्ञान या अन्य माध्यमों से भी प्राप्त हो सकता है। ऐसे में, इसके पीछे कोई रहस्य अवश्य है जिसे खोजना चाहिए। विचार की धारा में बहते-उतरते हुए एक सत्य का मोती हाथ लग गया है। इस सत्य का उद्घाटन भाषा स्वयं कर रही है। प्रतिभा या ज्ञान के अनेक क्षेत्रों पर दृष्टि डालें - संगीत, शिल्प, गणित, विज्ञान, दर्शन, चिकित्सा, लेखन आदि। ज्ञान के इन क्षेत्रों के लिए भाषा में उपर्युक्त शब्दों में कर्म प्रधान शब्द ही मौलिक हैं। इन मौलिक शब्दों से कर्ता शब्द बनते हैं जैसे संगीतज्ञ, शिल्पी, गणितज्ञ, वैज्ञानिक, दार्शनिक, चिकित्सक, लेखक आदि। अर्थात मूल में ये ज्ञान है जो इन्हें प्राप्त कर रहा है, समझ रहा है या इनका अनुशीलन कर रहा है, वह उस क्षेत्र का अनुयायी या कर्ता कहला रहा है। केवल एक शब्द है - 'कवि'। कवि शब्द से कविता या काव्य शब्द बन रहा है। कविता से कवितज्ञ या काव्य से काव्यज्ञ शब्द नहीं बन रहे हैं। थोड़ी उर्दू और थोड़ी अंग्रेज़ी जानता हूं और आश्चर्यचकित रह गया हूं कि यह रहस्य इन दोनों भाषाओं में भी छुपा हुआ है। POET से POETRY बन रहा है और शायर से शायरी। PHILOSOPHY, SCIENCE, ART आदि शब्दों से PHILLOSPHER, SCIENTIST एवं ARTIST जैसे कर्ता शब्द बनते हैं। उर्दू में भी फ़न से फ़नकार, फ़ल्सफ़ा से फ़ल्सफ़ी और अरूज़ से अरूज़ी जैसे शब्द बनते हैं। अर्थात कविता के संदर्भ में, कर्म नहीं कर्ता मौलिक है, प्रधान है।

कवि जो सृजित कर रहा है, वह कविता है। अन्य में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि गणितज्ञ जो सिद्धांत दे रहा है, वह गणित है या दार्शनिक जो उद्घाटन कर रहा है वह दर्शन है। यहां स्थिति भिन्न है। गणित, दर्शन व अन्य ज्ञान प्रकृति में रहस्य रूप में ही सही, पहले ही विद्यमान है। जो इस ज्ञान तक पहुंच रहा है वह ज्ञानी है। मात्र कवि ही एक ऐसी प्रतिभा है जो पहले से विद्यमान किसी ज्ञान का रहस्योद्घाटन नहीं कर रहा है। वह रच रहा है, वह सृजन कर रहा है। संभवतः इसी कारण शास्त्रों में शब्द को ब्रह्म माना गया है क्योंकि शब्द में रचने का, सृजन कर पाने का गुण है। अस्तु, कवि होना सौभाग्य है क्योंकि कवि एक मौलिक सर्जक है। मानव होना भाग्य है क्योंकि मानव भी प्रजनन के माध्यम से रचना करता है, जो अन्य जीव भी करते हैं लेकिन इस सृजन के अतिरिक्त एक और सृजन कवि करता है जो अन्य कोई जीव नहीं करता।

इस भूमिका के बाद स्वतः स्पष्ट है कि कवि वह है जो इस विराट् बोध को प्राप्त कर चुका है। कवि वह है, जो रच पा रहा है, सृजन कर पा रहा है। यदि पूर्व में हो चुकी रचना को ही किसी और प्रकार से अभिव्यक्त किया जा रहा है, तो वह कविता नहीं है। रचने का ढोंग संभव भी नहीं है। रचना एक वास्तविक क्रिया है। प्रसव वेदना की तरह ही, एक वेदना वहन कर ही रचना संभव है। अर्थात कविता वह है, जो एक वास्तविक रचना है। यह रचना पाठक अथवा श्रेाता तक पहुंचकर उसके भीतर भी कुछ नया जोड़ती है। जो किसी और के अंतस में कुछ योग नहीं करती है, वह कविता नहीं है। पुनःश्च कवि होना सौभाग्य है परंतु, सौभाग्य का दंभ श्रेयस्कर नहीं है, कर्तव्य बोध एवं निर्वहन श्रेयस्कर है।

क्रमशः

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें