बुधवार, फ़रवरी 21, 2018

ग़ज़ल

"दिल में जगह बना लेगा एक-एक शेर"


4 फरवरी 2018 को भवेश दिलशाद की पांच चुनिंदा ग़ज़लों को सौतुक.कॉम ने साहित्य खंड में प्रमुखता से प्रकाशित किया। इन ग़ज़लों पर दिल्ली निवासी युवा कवि, कथाकार एवं बारीक़बीं समीक्षक श्रीमति अनिता मंडा लिखित आलेख विशेष रूप से ब्लॉग के लिए प्राप्त हुआ है, जो यहां प्रस्तुत है -


ग़ज़ल इसलिए भी लोकप्रिय विधा है कि इसे गाया जा सकता है। हिंदी छंदों में जहाँ भक्तिकाल में साहित्य अभिव्यक्ति चरम पर रही, तो छंद एक तरह से भक्ति रचनाओं के लिए रूढ़ हो गये। तो आमजन ने जिस विधा में अपने हृदय के भाव कहे वो ग़ज़ल ही थी, यही कारण है कि भारत में ग़ज़ल अपने आगमन से लेकर ख़ुसरो, कबीर से होती हुई मीर ग़ालिब से समृद्ध होती हुई आती है, उसमें हृदयानुभूतियां अपने चरम पर हैं।

ग़ज़ल बहुत बारीकियों वाली विधा है, इसे साध लेना सहज नहीं है। आजकल जितनी ज्यादा मात्रा में ग़ज़ल लिखी जा रही हैं, उतनी शायद ही कभी लिखी गई हों, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि वह ग़ज़ल है भी या नहीं। क्योंकि सिर्फ व्याकरण निभा देना भर ग़ज़ल नहीं है।

ग़ज़ल क्या है? इसका जवाब हमें भवेश दिलशाद की ग़ज़लों में मिलेगा। इनकी ग़ज़लों से साल भर से परिचय है मेरा और सुखद बात यह कि दिलशाद जी आज की गलाकाट प्रतियोगिता से बाहर हैं। इनकी ग़ज़लों में जो बात मिलती है, वह साधना के बिना नहीं आ सकती। खानापूर्ति के लिए शेर कहकर संग्रह निकालना होता तो शायद अब तक दस-बारह ग़ज़ल-संग्रह भवेश जी के भी आ चुके होते। पर एक-एक शेर आपके ज़ेह्न में जगह बना ले, ऐसा लक्ष्य शायर का लगता है और कहना पड़ेगा कि इसमें इन्हें क़ामयाबी भी मिली है।

ग़ज़ल में मुझे जो बात सबसे अधिक अपनी तरफ़ अधिक खींचती है वह है, इसकी मारक क्षमता। दो मिसरों में ऐसी बात कह देना कि वह आपके दिल में जगह बना ले, यह ग़ज़ल में ही सम्भव है। भवेश दिलशाद जी की ग़ज़लों में यह मारक क्षमता, वक्रता है कि आप बरबस 'वाह' कह दें। कहन की ऊंचाई इन्हें भीड़ से अलग करती है।

दिलशाद जी की शायरी जदीद तेवर लिए हुए है, और यही कारण है कि कुछ शेर कई जगह कोट किये हुए भी पढ़ने को मिल जाते हैं। बिना उपदेशक हुए भी बड़ी बात कह जाने का हुनर आप इस शेर में देखिए -

जड़ की मज़बूती ज़मीं में गड़े रहने में है
यूं न मेआर हवाओं में उछालो अपने।

ख़ुद्दारी की एक ख़ुश्बू जो इंसानी किरदार को महकाती है देखिए -

अब तो हम छीन के लेंगे जो हमारे हक़ हैं
भीख में फेंके हुए आप उठा लो अपने।

कहन में नवीनता किसी भी लेखक, शायर के लिए कसौटी है, इसे बरक़रार रखना बहुत मेहनत वाला काम है, जैसे किसी कहानी के पचास तरीके कहने के हो सकते हैं, वैसे ही एक शेर में शायर किस तरह चमत्कार पैदा करता है उसका एक उदाहरण देखिए -

वो जो दिलशाद था अक्सर ये कहे था बेशर्म
देखना है तुम्हें मल्बूस हटा लो अपने।

सरल भाषा की पहुँच ज़्यादा लोगों तक होती है, उस पर बात भी सबसे जुड़ी हो तो क्या कहने, एक नया मुहावरा सा जुड़ता यहाँ दिख रहा है - 

और कुछ दिन देखता जा देखता रह जाएगा
सूख जाएगी नदी ये पुल खड़ा रह जाएगा।

वर्तमान हालात को बताता हुआ एक शेर जिसमें लफ़्ज़ों का इस्तेमाल भी क़ाबिले-ग़ौर है, देर तक ज़ेह्नो-दिल में ठहरने वाला मफ़हूम है -

गोलमेज़ें जब उठेंगी बात करके प्यास पर
बिसलरी की बोतलों का मुंह खुला रह जाएगा।

शायर के दर्द ज़माना कब समझा है, जो चैन आम इन्सां को हासिल है, वो उसकी बैचेन रूह को कहाँ, यही तो कबीर अपने अंदाज़ में कह गये थे, यही आज भी सच है -

कहके शब-बा-ख़ैर सब सो जाएंगे और रात भर
इक ग़ज़ल के साथ शायर जागता रह जाएगा।

शायर अपनी चेतना से आने वाले वक़्त की दस्तक को समझता है, और बाकियों को भी चेताना चाहता है, ओर इसे ज़रा भी रूखापन लाये बिना कह देना आसान बात नहीं –

हादसे की चाप है दिलशाद साहिब ये ग़ज़ल
जो समझ लेगा वो शायद कुछ बचा रह जाएगा।

यह शेर पढ़ते हुए मुझे पता नहीं क्यों साहिर याद आ गये। एक पर्दे के पीछे पोशीदा नग्न दुनिया की हक़ीक़तें जो टीस एक संवेदनशील मन में पैदा करती हैं वही यहाँ हो रही हैं। पीठ पीछे के कारोबार बताने की ज़रूरत ही नहीं कि हर कोई आज इनका कितना शिकार है, सब कोई अपने दर्द में डूबा इस शेर से जुड़ता है और यही जुड़ाव शायरी का फैलाव है। आमजन तक पहुंच है।

ये हसीन चेहरों के इश्तहार ज़िंदाबाद
और जो पीठ पीछे हैं कारोबार ज़िंदाबाद।

कुछ बगावती तेवर की झलक वो भी तंज़ की नोक पर देखिए क्या असर लेकर आई है –

बोलो कि लोग ख़ुश हैं यहां सब मज़े में हैं
ये मत कहो कि ज़िल्ले-इलाही नशे में हैं।

आम बोलचाल की भाषा में, बिना कोई भारी भरकम शब्द रखे अपनी बात कहने का हुनर बहुत मश्क़ चाहता है, किस नाज़ुकी से इंसानों के बीच की दूरियां यहाँ बताई गई हैं क़ाबिले ग़ौर है -

मेरी मुश्किलों से तुझे है क्या तेरी उलझनों से मुझे है क्या
ये तक़ल्लुफ़ात से मिलने का जो भी सिलसिला है ये ठीक है।

भवेश दिलशाद ने ग़ज़ल में ग़ज़लियत बरक़रार रखी है। नज़ाकत, मासूमियत को बरक़रार रखते हुए भी नई सोच, नये लहजे को आज़माया है। ये ग़ज़लें अदबी ज़हाँ में अपना ख़ास मुक़ाम बनाएंगी। अपने तजरुबात और मश्क़ से शायरी को जिस मेयार तक लाये हैं वो आसान बात नहीं है। यही वजह है कि इनकी ग़ज़लें सीधे दिल की ज़मीं पर जड़ें जमा लेती हैं। यही सलीका, यही अंदाज़, यही ज़दीद खयालात इन्हें नई ऊँचाइयाँ देंगे।

(लेख साभार) - अनिता मंडा

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