कविता क्यूं ज़रूरी है? क्यूं लिखी जाये? - 2
कवि होने का दंभ नहीं बल्कि कवि होने के कर्तव्य का निर्वहन श्रेयस्कर है। वास्तव में, कवि का कर्तव्य निर्वहन और कविता का प्रयोजन लगभग समानार्थी हैं। कविता की उपयोगिता क्या है? क्यों चाहिए किसी समाज को कविता? इन प्रश्नों के मूल में इसी तलाश की ज़रूरत है कि कविता और उसका प्रयोजन क्या है..।
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काव्य के प्रयोजन को लेकर भारतीय परंपरा में प्राचीन समय से ही विचार हुआ है और निरंतर जारी है। हर समय में, समयानुकूल विमर्श होता रहा है और कुछ ऐसे तथ्य प्रकट हुए हैं जिन्हें हर समय याद रखा जा सकता है या जो हर समय के लिए वैसे ही रहेंगे यानी मूल्य की तरह स्थापित हुए हैं। काव्य के प्रयोजन को लेकर विभिन्न विद्वानों के विचारों पर एक दृष्टि -
- आचार्य वामन - आनन्द और कवि की कीर्ति। (काव्यालंकारसूत्रवृत्ति)
- कुन्तक - चित्त को आनन्द देना एवं धर्मादि की सिद्धि। (वक्रोक्तिजीवितम्)
- मम्मट - यश, संपत्ति, सामाजिक व्यवहार की शिक्षा, उच्च कोटि का आनन्द, उपदेश। (काव्यप्रकाश)
- कुलपति - यश, संपत्ति, आनन्द। (रस रहस्य)
- सोमनाथ - कीर्ति, आनन्द, लोकमंगल एवं उपदेश। (रसपीयूषनिधि)
- भिखारीदास - तपफल, संपत्ति, यश एवं आनन्द। (काव्य निर्णय)
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - काव्य या कवि कर्म के लक्ष्य को क्रम से तीन भागों में बांट सकते हैं - शब्द विन्यास द्वारा श्रोता का ध्यान आकर्षित करना, भावों का स्वरूप प्रत्यक्ष करना, नाना पदार्थों के साथ उनका प्रकृत संबंध प्रत्यक्ष करना। मेरी समझ में काव्य का अंतिम लक्ष्य तीसरा है। श्रोता के संबंध में यदि विचार करें तो पहले दो विभागों के कारण कविता केवल आनन्द या मनोरंजन की वस्तु प्रतीत होती है। (रस मीमांसा)
- आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी - काव्य का प्रयोजन आत्मानुभूति ही है। ...वह काव्य भी काव्य ही है जिसमें अनुभूति और अभिव्यक्ति की पूर्ण एकरूपता न हो, जिसमें कवि अपनी अनुभूति के प्रकाशन का उपयुक्त और आदर्श माध्यम प्राप्त करने में असफल रहा हो। पर वह रचना काव्य नहीं है, जिसमें वास्तविक अनुभूति का ही अभाव हो। (आधुनिक साहित्य)
काव्य प्रयोजन अथवा उद्देश्य अथवा लक्ष्य को समझने के लिए आधुनिक साहित्य के शीर्ष रचनाकारों के विचारों के अनुशीलन से कुछ और तथ्य भी स्पष्ट होते हैं। भारतेंदु ने आनन्द एवं लोकरंजन के साथ ही साहित्योद्देश्य के रूप में समाज-संस्कार एवं देश वत्सलता की चर्चा की है। समाज की कुरीतियों के विरुद्ध एवं देश की उन्नति के पक्ष में संदेश प्रसारित करना उनकी दृष्टि में साहित्य का परम लक्ष्य है। उनके परवर्ती जयशंकर प्रसाद जी ने भी आनन्द के अतिरिक्त इसी समाज संस्कार को महत्वपूर्ण माना है। प्रसाद जी के शब्दों में –
“काव्य से नैतिकता की सिद्धि केवल उस हद तक होती है कि पाठक अथवा प्रेक्षक अधिक संवेदनशील बनता है और इस प्रकार उसमें जीवन के उच्चतर मूल्यों के ग्रहण करने की क्षमता जागरूक होती है।“
मोहन राकेश कहते हैं –
“कोई भी उच्चकोटि की कलाकृति सचमुच उच्चकोटि की तभी होती है जब वह कई स्तरों पर प्रभावित करने की क्षमता रखती है। जो रचना केवल तथाकथित बुद्धिजीवियों को प्रभावित करती है, उसमें उतनी ही कमी है, जितनी उसमें जो सस्ता मनोरंजन करती है।“
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए जगदीशचंद्र माथुर का कथन है – “कौन ऐसा लेखक होगा जिसकी कलम पर सामाजिक समस्याएं सवार न होती हों, अनजाने या डंके की चोट पर। ...मेरी धारणा है कि कभी-कभी मानसिक और सामाजिक रोगों का जितना ही हास्यास्पद रूप दिखाया जाता है, उतना ही अधिक उसके निदान की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट होता है।“
इस अध्ययन के बाद निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि आनन्द कविता का परम उद्देश्य है। न केवल कवि के लिए बल्कि श्रेाता अथवा पाठक के लिए भी जो रचना आनन्द का स्रोत बनती है, वह कविता है। यश, धन, कीर्ति आदि को कविता के बाह्य प्रयोजनों के रूप में समझना चाहिए जिसकी चर्चा अनेक विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से की भी है। ये गौण उद्देश्य हैं या यों कहा जाये कि ये उद्देश्य कवि के नहीं होते, यह कविता एवं कवि के लिए समाज उपलब्ध करवाता है। आनन्द के अलावा कविता के जो प्रमुख उद्देश्य माने जा सकते हैं, वे समाज एवं मानवता के उच्चतर मूल्यों के प्रति सतर्कता एवं जागरूकता हैं।
अब इसका अर्थ यह नहीं निकाला जा सकता कि कविता समाज में परिवर्तन की संवाहक होती है अथवा साहित्य कोई क्रांति लाता है। ऐसा अपवादस्वरूप हुआ हो तो ठीक है, लेकिन साहित्य या कविता इस प्रकार के परिवर्तनों और क्रांतियों में एक अहम रोल अदा ज़रूर करती हैं। वास्तव में, कविता या साहित्य मनोवैज्ञानिक रूप से समाज को तैयार करने का काम करती है। वह समाज के अंतस में उतरकर कभी एक भूमिका, कभी एक रूपरेखा या कभी एक घटना के उपरांत एक उपसंहार का माहौल बना सकती है। मूलतः कविता जो एक सृजन है, वह समाज या अन्य मनुष्यो के भीतर जो कुछ जोड़ती है, विभिन्न रासायनिक एवं मानसिक क्रियाओं के बाद, उसी के दूरगामी परिणाम के रूप में कोई परिवर्तन या क्रांति जैसी घटनाएं दृष्टिगोचर होती हैं।
एक पहलू है अनुभूति और अभिव्यक्ति को लेकर। इस संदर्भ में नंददुलारे वाजपेयी का पूर्ववर्णित लेख पठनीय है जिसमें उन्होंने कई प्रश्नों एवं बिंदुओं का उचित विवेचन किया है। अनुभूति सबके पास है, परंतु सब कवि नहीं हैं बावजूद इसके कि अभिव्यक्ति भी सबके पास है। इस संबंध में समाधान करते हुए वाजपेयी जी संकेत रूप में बहुत कुछ समझाते हैं। प्राकृतिक, वैज्ञानिक या रासायनिक, कारण जो भी हैं, यह तो है कि अनुभूति व अभिव्यक्ति होने के बावजूद अन्य व्यक्तियों एवं कवियों में अंतर है। वास्तव में, इसी भेद को समझना और अभिव्यक्ति में जो पूर्णरूपेण सक्षम नहीं हैं, उनकी भावनाओं, संवेदनाओं, कल्पनाओं अथवा अनुभवों को शब्द देना ही कवि का कर्तव्य है। इसी कर्तव्य का पालन कवि को निष्ठा एवं सतर्कता के साथ करना चाहिए। सच्चे, मौलिक एवं उपयुक्त शब्द अनुकूल अर्थों की परतों के साथ सौंपना कवि की ज़िम्मेदारी है। या यों कहूं कि कविता समाज के मनोभावों की सामूहिक भाषा होती है। कविता भावना व संवेदना के स्तर पर लोगों को आपस में जोड़ती है। इस प्रकार कविता के ये लक्ष्य महान होते हैं जो सृष्टि में सृजन के आनन्द के उत्प्रेरक होते हैं। जो इन महान लक्ष्यों को समझते हुए, कर्तव्य निर्वहन करते हुए, वास्तव में सृजन करता है, वह कवि है और उसका ऐसा सृजन कविता है।
अंततः कविता जीवन के लिए है। जीवन को व्याख्यायित करने के लिए है। जीवन को समझने-समझाने के लिए है, न कि जीवन के किसी एक पक्ष के प्रति राग-द्वेष उत्पन्न करने के लिए। जीवन के तमाम पहलुओं की तरह, कविता के भी कई कोण होने चाहिए। कविता पहले है, कविता का शास्त्र बाद में। कवि की प्रतिभा से कविता जन्मती है जो शास्त्रों में परिवर्तनों का कारण बनती रहती है। कविता गणित नहीं है, मात्र गणना के आधार पर नहीं है। कविता विज्ञान नहीं है, कुछ रासायनिक नियमों के आधार पर नहीं है। कविता कोरा दर्शन भी नहीं है और कविता केवल संगीत भी नहीं है। कविता व्यापक है, अद्भुत है, जीवन की तरह ही विचित्र है और नित-नूतन है क्योंकि कविता सृजन है, सृजन का अनुकरण नहीं है।
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