शुक्रवार, मार्च 01, 2024

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'तमाशा' को जानिए, जिससे ज्योतिबा फुले ने की थी क्रांति


विचारक, सुधारक, लेखक ज्योतिराव फुले ने गांवों और दूरदराज के गरीबों और निरक्षरों को क्रांतिकारी बनाने के लिए जिस कला (Folk Art) को साधन बनाया था, वह लुप्त होने की कगार पर है. यह लेख मूलरूप से न्यूज़18 के लिए लिखा गया था, जो 11 अप्रैल 2021 को प्रकाशित हुआ था.


लोकनाट्य तमाशा का आकल्पन. 'हिंदी विवेक' से साभार.

विजयी मराठा अखबार ने लिखा था “ब्राह्मणों की ज़मीन के भाड़े बेतहाशा थे… किसानों के पास गांठ में एक पैसा बचना तक मुहाल था! तब किसानों ने तय किया कि वो ब्राह्मणों की ज़मीनों के इतने अत्याचारी ठेके को नहीं मानेंगे. इस तरह से सत्यशोधक समाज ने ब्राह्मणों की गुलामी से किसानों को आज़ाद करवाया.” इस सत्यशोधक समाज की स्थापना ऐतिहासिक समाज सुधारक ज्योतिबा फुले ने की 1873 में की थी. इस सत्यशोधक समाज ने उस समय पिछड़े और दलित समुदायों के उत्थान के लिए ऐतिहासिक कारनामों को अंजाम दिया, जिसका बेहद खास औज़ार ‘तमाशा’ था.

इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में 1973 में छपे एक लेख की मानें तो तमाशा के ज़रिये ही सत्यशोधक समाज ने किसानों और गैर ब्राह्मण नेताओं के बीच एक पुल बनाया और इसी विचार के माध्यम से विद्रोहों को उकसाया. 1919 में सातारा में ब्राह्मण भूमिहारों के खिलाफ कर्ज़दार किरायेदारों की बगावत इसका बड़ा उदाहरण था. आगे है फुले ने किस तरह तमाशा से निशाना साधा. आपको तमाशा की परंपरा के बारे में भी बताएंगे.

सत्यशोधक समाज का हथियार था ‘तमाशा’

महाराष्ट्र में ब्राह्मणवादी विचारधारा और अत्याचारों की आलोचना करना ही फुले की इस संस्था का तरीका था और उद्देश्य था कि ‘शेठजी भटजी’ वाली साहूकारी और अत्याचारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ किसानों और दलित समुदाय को आंदोलित किया जाए. चूंकि यह वर्ग शिक्षित नहीं था और महाराष्ट्र के दूरदराज के इलाकों तक फैला था इसलिए व्याख्यानों और भाषणों से उस तक पहुंचना बहुत मुश्किल था.

ऐसे में, फुले के सत्यशोधक समाज ने लोक नाटक की परंपरा तमाशा को हथियार बनाकर अपने संदेश फैलाने शुरू किए. समाज ने तमाशा की मूल परंपरा में ब्राह्मण विरोधी संदेशों को बेहतरीन ढंग से जोड़ा. ‘सत्यशोधकी जलसा’ के नाम से मशहूर रही इस पहल में तमाशा में नुक्कड़ नाटक के कुछ गुणों को जोड़कर नए ढंग से किसानों से संवाद किया गया था.

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इसमें बहुत खास था मंगलाचरण में ‘गणपति वंदन’. इस वंदना में शोषित समाज को समझाया गया कि वास्तव में गणपति ‘गण के देवता’ हैं, सिर्फ ब्राह्मणों के नहीं. इससे यह समझ विकसित की गई कि गण का महत्व है, गण यानी जनता.

तमाशा की रूपरेखा में सत्यशोधक समाज ने ब्राह्मणों के अत्याचारों, धोखेबाज़ियों और शोषण के बारे में किसानों के बीच काफी प्रचार किया, जिससे ग़ैर ब्राह्मण समाज के कई बुद्धिजीवी और नेता भी प्रभावित होकर समाज के इस मकसद में जुड़े. आख़िरकार किसानों ने अत्याचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना सीखा भी.

तमाशा और इसका इतिहास क्या है?

ख़ास तौर से महाराष्ट्र में लोक नाट्य परंपरा को तमाशा नाम से जाना जाता रहा है. यह काफी हद तक नुक्कड़ नाटक की तरह का कॉंसेप्ट रहा. इसके इतिहास को देखा जाए तो पहली सदी में सातवाहन शासकों के समय से इसके प्रयोग के उल्लेख मिलते हैं. यानी तमाशा का इतिहास कम से कम 2000 साल पुराना तो है ही.

महाराष्ट्र में इस परंपरा का चरम 18वीं सदी में पेशवाओं के साम्राज्य के दौरान बताया जाता है. ढोलकी फड़चा और संगीत बारीचा, तमाशा के ये दो रूप प्रचलित रहे. एक अनुमान के मुताबिक़ माना जाता है कि अब भी महाराष्ट्र में करीब 20 फुल टाइम तमाशा पार्टियां सक्रिय हैं. महाराष्ट्र के गांवों के साथ ही कर्नाटक और गुजरात के सीमांत इलाकों तक ये तमाशा मंडल साल में 200 से ज़्यादा दिनों तक कला का प्रदर्शन करते हैं.

पारंपरिक तौर पर तमाशा में नाचने वाले लड़के यानी नच्या, कविताएं लिखने वाले यानी शाइर और नाटक को संचालित करने वाला सूत्रधार या सोंगद्या प्रमुख होते हैं. पहले इसमें महिलाएं भाग नहीं लेती थीं लेकिन आधुनिक समय में यह बाधा नहीं रही. मराठी थिएटर की शुरूआत 1843 के आसपास से मानी जाती है और ​इतिहासकार साफ़ तौर पर इसे तमाशा से ही विकसित हुई परंपरा बताते हैं.

लोकशाइर बशीर मोमिन कवाठेकर ने एड्स्, दहेज और अशिक्षा जैसी कई समस्याओं को लेकर मशहूर सामाजिक तमाशा नाटक लिखे. 19वीं सदी में जब तत्कालीन बॉम्बे में उद्योगों की शुरूआत हुई, तबसे ही ग्रामीणों का शहर की तरफ पलायन शुरू हुआ था और तबसे ही तमाशा की पहचान शहरों में बनी थी. तमाशा कला को बचाए रखने के लिए महराष्ट्र सरकार एक सालाना पुरस्कार भी देती है. लेकिन थिएटर और शहरीकरण के समय में लोक कला बेहद सिमट चुकी है और अब इसके सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हुआ है.

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