निराला की प्रतिनिध काव्य रचनाएं: अध्ययन
वसंत पंचमी का अर्थ एक ज़माने से मेरे लिए निराला जयंती ही रहा है। तो, इस मौके पर आलेखनुमा यह अध्ययन एक बार फिर स्मरण हो रहा है। कॉलेज के दिनों में निराला और ‘राम की शक्ति पूजा’ के संबंध में जुटाये ये नोट्स, एक अभूतपूर्व कवि और कालजयी रचना को समझने में मदद कर सकते हैं।
Sooryakant Tripathi Nirala. image source: Google |
1933 में जब ‘मतवाला’ का प्रकाशन हुआ, तब निराला ने उसके लिए दो पंक्तियां लिखीं -
“अमिय गरल शशि सीकर रविकर राग-विराग भरा प्याला
पीते हैं जो साधक उनका प्यारा है यह मतवाला।“
किन्तु, न ‘मतवाला’ इन पंक्तियों को सार्थक करता था, न हिन्दी का और कोई तत्कालीन पत्र। इन पंक्तियों के योग्य थी केवल निराला की कविता, जिसमें एक ओर राग-रंजित धरती है – “रंग गयी पग-पग धन्य धरा”, तो दूसरी ओर, विराग का अंधकारमय आकाश है – “है अमा निशा उगलता गगन घन अंधकार...”।
कवि जो कुछ लिखता है, उसे पहले कल्पना में ही देखता है, इसीलिए कल्पना को त्याग कर कविता रचना संभव नहीं, किन्तु एक कल्पना वह होती है जिसमें कवि यथार्थ जीवन को देखता है, औरों की तुलना में अधिक गहरायी से देखता है। दूसरी कल्पना वह होती है जो यथार्थ को धुंधला कर देती है, उस पर खूबसूरती का मुलम्मा चढ़ाती है। निराला की कल्पना इस धरती से दूर कोई मनोरम अपार्थिव लोक नहीं रचती। वह पृथ्वी की दृढ़ आकर्षण-शक्ति से बंधी हुई है -
“बुझे तृष्णाशा विषानल झरे भाषा अमृत निर्झर,
उमड़ प्राणों से गहनतर छा गगन लें अवनि के स्वर।“
इस धरती के सौंदर्य से निराला का मन बहुत दृढ़ता के साथ बंधा है। आकाश में उड़ने वाले रोमांटिक कवियों और धरती के कवि निराला में यही अन्तर प्रमुख है।
पृथ्वी का गुण है गन्ध। अपने सबसे परिष्कृत सुखद रूप में यह गन्ध फूलों के माध्यम से सुलभ होती है। जैसे कीट्स ने ‘नाइटिंगेल’ और शैली ने ‘स्काईलार्क’ पक्षियों को अमर कर दिया, वैसे ही जुही, बेला या नर्गिस का नाम लेते ही निराला का स्मरण हो जाता है। चांदनी रात, मलयानिल, उपवन, सर-सरित, गहन गिरि-कानन - इन सबके केंद्र में ‘जुही की कली’। गंगा के कगार, आकाश में नक्षत्र, चंद्रमा, विश्व का तारतम्य सघन - इन सब का केंद्र ‘नर्गिस’। धरती पर लू के झोंके, आकाश में जलता सूर्य, चारों ओर धूल, कवि का अशांत मन और इन सबके केंद्र में ‘वनबेला’। निराला को फूलों से ऐसा ही प्रेम था। प्रकृति के केंद्र में धरती की सुगंध।
निराला उल्लास और विषाद के ही कवि नहीं, संघर्ष और क्रांति के कवि भी हैं। प्रेमचंद और निराला का ऐतिहासिक महत्व यह है कि उन्होंने समझा कि भारतीय स्वधीनता आंदोलन की धुरी है – ‘किसान क्रांति’। साम्राज्यवाद के मुख्य समर्थक सामन्तों के खिलाफ ज़मीन पर अधिकार करने के लिए किसानों का संघर्ष।
अनेक छायावादी कवियों के गंभीर लेखन के विपरीत निराला की रचनाओं में हास्य और व्यंग्य की मात्रा काफी है। इस तरह की रचनाओं में ‘कुकुरमुत्ता’ का स्थान अन्यतम है। छायावाद के विरोधियों, जनता को धोखा देने वाले राजनीतिज्ञों, देश की प्रगति रोकने वाले तरह-तरह के निहित स्वार्थों पर निराला व्यंग्य करते ही थे। किन्तु, ‘कुकुरमुत्ता’ जैसी रचनाओं में वह कुछ छायावादी मान्यताओं पर भी व्यंग्य करते हैं जो उन्हें प्रिय थीं, यद्यपि उन्हें संशय की निगाह से वह पहले भी देखते थे। ‘कुकुरमुत्ता’ ब्रह्म के समान अनेक रूप धारण करता है। वही विष्णु का सुदर्शन चक्र है, यशोदा की मथानी है, सुबह का सूरज और शाम का चांद है। भास-कालिदास ने उसमें गोते लगाये हैं और हाफ़िज़, रबींद्रनाथ किनारे खड़े देखते रहते हैं। ‘कुकुरमुत्ता’ अगर ब्रह्म के समान व्यापक न होगा तो उसमें कोई गोते कैसे लगाएगा? उसके किनारे खड़े होकर टुकुर-टुकुर ताकेगा कैसे? ‘कुकुरमुत्ता’ में प्रच्छन्न व्यंग्य स्वयं निराला की ब्रह्म संबंधी विचारधारा पर आश्रित है।
ब्रह्म और माया वाले सिद्धांत के प्रति निराला के मन में संशय बहुत पहले से था। इस संशय की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति उनकी ‘अधिवास’ कविता में है। “कौन तम के पार, रे कह” - इस तरह के गीतों में सच्चिदानंद ब्रह्म का पक्ष छोड़कर अंधकार, शून्य या प्रकृति को एकमात्र सत्य मानकर निराला उससे संसार और मनुष्य का संबंध जोड़ते हैं। अधिकांश प्रकाश-प्रेमी छायावादी कवियों की तुलना में निराला की रचनाओं में प्रकाश से अधिक अंधकार है। ‘राम की शक्तिपूजा’ उनकी सबसे ओजपूर्ण रचना है और उसमें अंधकार भी अन्य कविताओं की अपेक्षा अधिक है।
‘राम की शक्तिपूजा’, जैसे उदात्त काव्य और ‘कुकुरमुत्ता’ जैसी व्यंग्य-हास्य रस की रचना में आकाश-पाताल जैसा अन्तर है, फिर भी इनकी एक सामान्य विचारभूमि है। राम के मन में जो संशय है – “स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर फिर संशय” - इस संशय का संबंध कहीं उस संशय से भी है जिसे निराला ने ‘अधिवास’ में प्रकट किया था। राम ब्रह्म हैं, माया ब्रह्म की शक्ति है, वेदान्ती का लक्ष्य माया का आवरण पार करके ब्रह्म तक पहुंचना होता है, ब्रह्म शक्ति की पूजा क्यों करें? यदि मान लें कि राम मनुष्य हैं या मानव चरित कर रहे हैं तब प्रश्न होगा कि मनुष्य ब्रह्म की पूजा न करके माया की पूजा क्यों करता है? इस प्रश्न का उत्तर स्वयं निराला के इस प्रश्न से मिलेगा – “कौन तम के पार, रे कह...”। इसलिए रावण से युद्ध में पराजित होकर संशयचित्त राम शक्ति की साधना करते हैं।
कालिदास और रबींद्रनाथ के काव्य संसार में मन को लुभाने वाली रंगीली है, उसमें करुणा की नीलिमा भी है किन्तु निराला के काव्य-लोक का अंधकार उसमें नहीं है। उस अंधकार से परिचित हैं भवभूति और शेक्सपियर। कालिदास, रबींद्रनाथ की काव्य परंपरा और भवभूति-निराला की काव्य परंपरा में यही मौलिक अंतर है।
‘कुकुरमुत्ता’ के प्रारंभिक वर्णनात्मक अंश के बाद – “अबे सुन बे गुलाब” से ‘कुकुरमुत्ता’ का भाषण आरंभ होता है। गुलाब को रूमानी कविता का प्रतीक मानकर निराला की तर्क श्रंखला की परिणति वहां होती है जहां कुकुरमुत्ता कहता है -
“ख़्वाब में डूबा चमकता हो सितारा
पेट में डण्ड पेलते चूहे, ज़बां पर लफ़्ज़ प्यारा”
तर्क की दूसरी श्रंखला में बिम्बों की प्रधानता है जिनके द्वारा ब्रह्म के समान ‘कुकुरमुत्ता’ अपनी विराट सर्वव्यापी सत्ता की घोषणा करता है। निराला वक्तृत्वकला का उपयोग हास्य-व्यंग्य के लिए, वीर भावना जगाने के लिए, परस्पर विरोधी लगने वाले उद्देश्यों की सिद्धि के लिए कर सकते हैं। हिंदी में यह कला अन्यत्र दुर्लभ है। ‘पेशोला की प्रतिध्वनि’ जैसी रचनाओं में प्रसाद का वार्णिक मुक्तछंद निराला के अनुकरण पर लिखा गया है, वक्तृत्वकला भी निराला से प्रेरित है।
निराला के भावतत्व को उनकी मेधा पूर्व निश्चित सीमाओं में बांधे रहती है। मेधा उनकी भावभक्ति से पराभूत नहीं होती। पूरी कविता में सुघर स्थापत्य का सौंदर्य - जिसके तीन श्रेष्ठ उदाहरण हैं – ‘तुलसीदास’, ‘सरोज-स्मृति’ और ‘राम की शक्ति-पूजा’।
शेक्सपियर के नाटकों की तरह एक है बाह्य संघर्ष, दूसरा मुख्य पात्र का आंतरिक संघर्ष। कला दोनों की अविच्छिन्न एकता प्रदर्शित करने में है। ‘तुलसीदास’ रीतिवादी श्रंगारपरक संस्कृति से संघर्ष करते हैं किंतु इस संस्कृति के अनुकूल संस्कार उनके अपने मन में हैं -
“बंध के बिना, कह, कहां प्रगति?
गतिहीन जीव को कहां सुरति?
रति-रहित कहां सुख? केवल क्षति-केवल क्षति!”
इस तर्क योजना से उन्हें मुक्त कराती है रत्नावली।
‘सरोज-स्मृति’ में ऐसी मुक्ति कवि के लिए संभव नहीं है। निराला के मन का द्वंद्व श्रंगार और वैराग्य को लेकर नहीं, जीवन संघर्ष की सफलता और असफलता को लेकर है -
“कन्ये मैं पिता निरर्थक था
कुछ भी तेरे हित न कर सका।“
बहुत सीधे-सादे ढंग से निराला ने अपने मन की ग्लानि व्यक्त की है। इस ग्लानि के आगे उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया हो, तो उसे मानसिक द्वंद्व की संज्ञा देना गलत होगा। निराला के मन में एक ओर तीव्र ग्लानि है, दूसरी ओर अपनी साहित्यिक सिद्धि में प्रबल विश्वास भी है। “मैं कवि हूं, पाया है प्रकाश” आदि कविता की आरंभिक पंक्तियों में उन्होंने यह विश्वास प्रकट किया है। ग्लानि और इस विश्वास में द्वंद्व है।
शोक-गीत हिंदी में तो कम ही लिखे गये हैं। यूरोपीय भाषाओं में ऐसा शायद ही कोई प्रभावशील गीत हो जिसे कवि-पिता ने अपनी पुत्री के निधन पर लिखा हो। मित्र या प्रियतमा पर लिखे हुए शोक-गीतों में कवियों ने प्राकृतिक सौंदर्य के चित्रण से, पौराणिक गाथाओं की वनदेवियों के अवतरण से अपनी अभिव्यंजना को अलंकृत किया है। निराला की इस रचना में इस तरह के अलंकरण का अभाव है। इसके विपरीत रूढ़िवादी समाज के चित्रण में निराला का एक विक्षुब्ध अट्टहास है, शेक्सपियर के महानाटकों में गंभीर भावाभिव्यक्ति के साथ हास्य और व्यंग्य के मिश्रण की तरह।
यूरोपीय गीतों की परंपरा है कि अन्त में कवि के दुख को हल्का दिखाकर आशा का संदेश सुना दिया जाये। ‘तुलसीदास’ को ज्ञान प्राप्त हो जाता है और आकाश में प्रभात किरण फूट पड़ती है। ‘राम की शक्तिपूजा’ में एक कमल का फूल चोरी जाने से विघ्न पड़ता है किन्तु राजीवलोचन राम कमल की जगह अपने नेत्र निकालकर रखने को होते हैं कि दुर्गा उनका हाथ पकड़ लेती हं। शक्ति पूजा सफल होती है, शक्ति राम में प्रवेश करती हैं। किंतु, पुत्री से वियुक्त पिता को न ‘तुलसीदास’ का ज्ञान धैर्य बंधा सकता है, न ‘राम की शक्ति पूजा’। निराला को अपना वह समस्त कवि जीवन व्यर्थ लगता है, जिसकी परिणति है सरोज का निधन।
निराला ने गतकर्म सरोज को अर्पित कर दिये, फिर नया कर्म आरंभ किया। उन्होंने ‘राम की शक्ति पूजा’ लिखी। ‘सरोज-स्मृति’ में निराला का आधा दुख सरोज की मृत्यु के कारण है, आधा उनके अपने संघर्षों के कारण। उन्होंने जो लिखा था -
“दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूं आज, जो नहीं कही!”
वह दुख की कथा सरोज के जन्म से पूर्व शुरू हुई थी और सरोज की मृत्यु के बाद तक चलती रही। उसी की एक कड़ी है ‘राम की शक्ति पूजा’।
आत्मग्लानि का स्वर यहां भी है – “धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध”। निराला के राम तुलसी के राम से भिन्न और भवभूति के राम के निकट हैं – “धिक् माम् अध्यत्मः”, भवभूति के राम कहते हैं। आत्मग्लानि का स्वर तो है लेकिन संघर्ष मानो और भी तीव्र हो उठा है।
राम पराजित हैं। राम के मन में ग्लानि है किंतु राम के एक मन और है जो पराजित होना नहीं जानता -
“वह रहा एक मन और राम का जो न थका...”
‘राम की शक्तिपूजा’ से पहले निराला ने अपने इस दूसरे मन को न पहचाना था। ‘तुलसीदास’ का एक ही मन है, जो पुराने संस्कारों पर मुग्ध होता है, उनसे लड़ता है। ‘सरोज-स्मृति’ के निराला का एक ही मन है जो गर्व करता है कि ज्योतिस्तरणा के चरणों में रहकर उसने प्रकाश देखा है, स्वयं को निरर्थक पिता होने के लिए धिक्कारता है और अंत में अपने गतकर्मों से क्नया का तर्पण करता है। किंतु ‘राम की शक्ति पूजा’ में राम के दो मन हैं। संघर्ष और तीव्र हो गया है। वेदना की किरणों ने वज्रकठोर अन्तर को बीच से तोड़कर उस के दो हिस्से कर दिये हैं। अबसे निराला का मन ग्लानि, पराजय और विक्षेप के नाटक देखेगा जो दूसरे मन को आंदोलित करेंगे किंतु – “वह रहा एक मन और राम का जो न थका” - वह अथक, अपराजेय, अविचलित मन इस ग्लानि, पराजय और विक्षेप के सम्मुख सदा उठा रहेगा - साक्षीरूप दृष्टा के समान।
‘तुलसीदास’ और ‘सरोज-स्मृति’ का छंद मूलतः एक है -
“बंध के बिना, कह, कहां प्रगति?
गति हीन जीव की कहां सुरति?”
या
“देखता रहा मैं खड़ा अपल
वह शरक्षेप, वह रण-कौशल.”
‘राम की शक्तिपूजा’ में निराला जो स्वर सुनते हैं, वह इस लघु संयत छंद की सीमाएं तोड़ देता है। उसी के अनुरूप ज्योति के पत्र पर लिखे हुए चित्र हैं: राम, रावण, अंगद, विभीषण आदि के चित्र। इन चित्रों की पृष्ठभूमि में इतना गहन अंधकार है कि फलक की ज्योति सब ढंक गयी है। राम रावण का यह अपराजेय समर लिखा तो गया है ज्योति के पत्र पर किंतु अक्षर सब अमावस के अंधेरे के हैं। अंधकार उगलता हुआ आकाश, सिंह के समान गरजता सागर, रावण का अदृश्य खलखल अट्टहास - ये बिंब हैं जिनमें ‘सरोज- स्मृति’ की वेदना परिवर्तित और घनीभूत हो गयी है। ‘राम की शक्तिपूजा’ में निराला की आंखें भीतर एक नये लोक में खुल गयी हैं, जहां संसार के छायाचित्र ही दिखायी देते हैं। वह अपनी फैंटेसी की दुनिया में पहुंच गये हैं जहां संसार का दुख दर्द निचुड़कर सूक्ष्म सघन बिंबों के रूप में दिखायी देता है।
‘राम की शक्तिपूजा’ में दो कविताओं का सारतत्व है: ‘तुलसीदास’ और ‘सरोज- स्मृति’ और इनके अलावा उसमें नयी सामग्री है: एक पराजित मन और दूसरी, अपराजित मन के अस्तित्व की सघन अनुभूति।
मिल्टन और दांते के महाकाव्यों में जो गरिमा नरक के वर्णन में है, वह स्वर्ग के चित्रण में नहीं, निराला के इस महाकाव्यात्मक खंड में जो गरिमा राम की ग्लानि, उनकी पराजय, महावीर के अंतरिक्ष-अभियान के चित्रण में है, वह पूजा के चित्रण में नहीं। निराला साधक हैं, पूजक नहीं। रणभूमि में शत्रु से जूझते हुए ही साधना संभव है।
‘राम की शक्तिपूजा’ से, 1936 में निराला काव्य साधना का पहला चरण समाप्त होता है। ‘नये पत्ते’ की रचनाओं से 1946 में दूसरा चरण और शेष रचनाएं 1961 तक तीसरे चरण की हैं। निराला के समकालीन और उत्तरकालीन कवियों में विचारधारा की जैसी अस्थिरता, भावबोध की जैसी चंचलता दिखायी देती है, वैसी निराला में नहीं है। पहले चरण में उदात्तता, ओजपूर्ण एवं अलंकृत, दूसरे में संघर्ष प्रधान, विषादमय, उल्लासपूर्ण रचनाएं व ग़ज़लें और तीसरे चरण में मृत्यु एवं विक्षोभ की रचनाएं विशेष हैं।
(नोट: ये नोट्स हिंदी के विख्यात आलोचकों की पुस्तकों एवं लेखों के अंशरूप हैं।)
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