एफ़टीआईआई नेतृत्व... लेकिन राजनीति नहीं आती : मीनाक्षी शेषाद्रि
16 नवंबर 1963 को जन्मीं प्रख्यात अदाकारा और नृत्यांगना मीनाक्षी शेषाद्रि परिचय की क़तई मोहताज नहीं हैं. एक लंबा कालक्रम अमेरिका में जीने के बाद वह हिंदी सिनेमा में वापसी के दौर में हैं. आब-ओ-हवा के लिए उन्होंने फ़ोन पर बातचीत करते हुए कला, साहित्य, सिनेमा और सामाजिक विषयों पर गंभीर और सार्थक विचार रखे. यहां पढ़िए पूरी बातचीत.
भवेश दिलशाद : आप इन दिनों मीडिया से बातचीत कर रही हैं, उसमें हिन्दी का आग्रह स्पष्ट दिखता है. अंग्रेज़ी का कम से कम प्रयोग, वाक्यों का हिंदी में अनुवाद भी. आपकी भाषिक पृष्ठभूमि से बात शुरू करते हैं.
मीनाक्षी शेषाद्रि : मैं अविभाजित बिहार में पैदा हुई और दिल्ली में परवरिश हुई तो हिंदी मेरी अपनी भाषा रही है. चलने, नाचने और गाने के साथ साथ हिंदी मेरे साथ रही है. भौगोलिकता की वजह से मेरी हिंदी ठेठ रही जो बंबई जाने के कारण थोड़ी अशुद्ध हो गयी और अमेरिका जाकर हिंदी बोलने का अभ्यास छूट गया. लेकिन अब फिर हिंदी में बातचीत में मज़ा आ रहा है. वैसे हिंदी के लिए विद्यालय की अध्यापिका को श्रेय देती हूं जिन्होंने कहा था, 'शशिकला तुम्हारी हिंदी, उन दिनों मेरा नाम शशिकला था, तो उन्होंने कहा तुम्हारी हिंदी बहुत अच्छी है, तुम्हें लेखन करना चाहिए.' उन्हीं की प्रेरणा से मैंने हाई स्कूल तक छोटे-छोटे लेख भी लिखे थे.
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भवेश दिलशाद : तो, लेखन का शौक़ आपने जारी रखा?
मीनाक्षी शेषाद्रि : नहीं, उन दिनों यह समझ ही नहीं थी कि इसे सहेजकर रखूं. ऐसा सोचा ही नहीं कि आगे जाकर कोई इसे पढ़ना चाहेगा. पता नहीं कहां चली गयीं वो किताबें, डायरियां...
भवेश दिलशाद : यह तो हमारा नुक़्सान हो गया... आप सिनेमा में वापसी के दौर में हैं तो भाषा के साथ और भी बदलावों से दो-चार हो रही होंगी आप. 28 साल बाद वापसी... सिनेमा उद्योग व कला का परिदृश्य तबकी तुलना में कैसा लगता है?
मीनाक्षी शेषाद्रि : कहते हैं जीवन का नाम ही बदलाव है तो माहौल तो अलग है ही, लोगों का बर्ताव भी अलग है. सिनेमा को उद्योग का दर्जा जिस तरह अब मिल रहा है, हमारे ज़माने में नहीं था. कॉर्पोरेट तौर तरीक़ों से फ़िल्म उद्योग को चलाया जाने लगा है, यह भी मेरे लिए काफ़ी नया है. ओटीटी, सोशल मीडिया और प्राइवेट नेटवर्किंग सब कुछ नया ही है.
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भवेश दिलशाद : लंबे समय तक अमेरिका में रहने के बाद इस माहौल के लिए आपकी मानसिक और तकनीकी तैयारी क्या है?
मीनाक्षी शेषाद्रि : सही है मैं 28 साल के लंबे अंतराल के बाद लौट रही हूं लेकिन मुझे लगता है नये माहौल में ढलना मेरे लिए आसान होगा क्योंकि मैं विदेश में रहकर वहां के हिसाब से भी ढल गयी थी. बिल्कुल उसी तरह कि मैं रात में थी, जैसे ही सवेरा हुआ मैंने आंखें मलकर सूरज की रोशनी से तालमेल बैठा लिया. और आपने तकनीकी तालमेल की बात की तो समय की मांग के हिसाब से मैंने फ़ौरन सोशल मीडिया पर कमर कस ली है. टीम के नाम पर सिर्फ़ एक फ़हीम हैं. हालांकि अभी मैं इस तरफ़ महत्वाकांक्षी नहीं हूं. मैं आज के माहौल को देख रही हूं और उसके हिसाब से अपनी संभावनाएं भी. मैं मानती हूं कलाकार तो वही है जो हमेशा कुछ नये के लिए, बदलाव के लिए तैयार रहता है.
भवेश दिलशाद : विद्वान कहते हैं कलाओं का आपसी संबंध होता है. जैसे नृत्य, संगीत, छायांकन आदि के साथ सामंजस्य आपको एक कुशल अभिनेता बनाता है. तो आप आधुनिक माध्यमों का कलात्मक उपयोग कर रही हैं?
मीनाक्षी शेषाद्रि : मेरे पास थोड़ी बहुत जो कला है जैसे अभिनय, नृत्य, संगीत, भाषण आदि तो सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म से मैं इसे लोगों तक पहुंचा रही हूं. अभी जैसे आपकी ग़ज़ल को ही लीजिए, मैं चाहती थी कि हमारी कलाओं के प्रति मेरी जो रुचि है, उन सबको इस माध्यम से सामने ला सकूं. पिछले दिनों आपकी शायरी को लेकर हमने एक इंस्टारील बनायी जो लोगों को बेहद पसंद भी आयी. हाल ही हमने एक पेंटर के साथ भी रील बनायी है. मेरा मंतव्य यही है कि मुझे एक टिपिकल अभिनेत्री न समझा जाये बल्कि कलाओं के लिए मेरे रुजहान, मेरी दिलचस्पियां भी उभरकर आएं. इसमें आनंद मिलता है.
भवेश दिलशाद : सवाल का दूसरा सिरा यह कि रंगमंच में तो अभिनेता को साहित्य का पाठक होना भी सिखाया जाता है. आप साहित्य के साथ जुड़ाव महसूस करती हैं?
मीनाक्षी शेषाद्रि : मैंने स्नातक की डिग्री अंग्रेज़ी साहित्य में की. पोएट्री, ड्रामा, नॉविल आदि विधाओं को मैंने तब गहराई से पढ़ा, समझा. दूसरा यह कि मेरे पिताजी का विश्वास था कि महीने में कम से कम दो किताबें तो पढ़ना ही चाहिए. मुझे विरासत में यह आदत मिली. यह संयोग भी उल्लेखनीय है कि मेरे दोनों बच्चे भी अध्ययन और लेखन में इतने कुशाग्र हैं कि उनसे भी मुझे सीखने को मिला. अमेरिकी शिक्षा व्यवस्था में जिस तरह वे साहित्य को अप्रोच करते हैं, मुझे काफ़ी आकर्षक लगा.
मीनाक्षी शेषाद्रि. छायाचित्र : फ़हीम (Exclusive Photo : M. Fahim) |
"मुझसे तब लोग कहते थे तुम्हें राजनीति खेलना नहीं आता, बड़ी फ़िल्में तुमने गंवा दीं, तुमने 'हीरोज़' को रिझाया, लुभाया नहीं, बस अपनी किताबों और नृत्य में सिमटकर रह गयीं. लोग कहते थे मेरा करियर कुछ और हो सकता था अगर फ़िल्म उद्योग के ऐसे तौर-तरीक़े अपनाये होते. तब मैं बहुत महत्वाकांक्षी नहीं थी... लेकिन इस पारी में थोड़ी अलग हूं, इस बार थोड़ी महत्वाकांक्षी हूं. राजनीति करूंगी यह अभी नहीं जानती पर कल किसने देखा..."
भवेश दिलशाद : यह दिलचस्प है, इसके बारे में कुछ बताइए.
मीनाक्षी शेषाद्रि : वहां उच्च शिक्षा के लिए अनेक प्रकार की प्रवेश परीक्षाएं हैं और लगभग सभी के लिए आपको एक बेहतरीन निबंध या लेख लिखना अनिवार्य होता है, जो साहित्यिक श्रेणी का होता है. मुझे हैरानी है कि मेरे बच्चों ने इतनी कम उम्र में भाषा का ऐसा कलात्मक मुकाम पा लिया है. तो साहित्य है, अध्यात्म है, हमारे परिवार में रहा है. हां यह भी देखिए कि 17 साल की उम्र में फ़िल्मों में आ गयी थी और शायद मैं पहली/एकमात्र अभिनेत्री हूं जिसने फ़िल्मों में काम करते हुए स्नातक और स्नातकोत्तर तक पढ़ाई की.
भवेश दिलशाद : वाह, ये अनुभव विशेषकर कई महिलाओं के लिए प्रेरक होंगे. महिलाओं से जुड़े सवालों से पहले साहित्य के ही कोण से एक प्रश्न और. शास्त्रीय नृत्य में अक्सर पौराणिक चरित्रों/प्रसंगों को अभिव्यक्त करने की परंपरा रही है. आप चार नृत्य शैलियों में पारंगत हैं तो यदि आधुनिक साहित्य से कोई चरित्र/प्रसंग पर नृत्य करना हो तो आप क्या चुनेंगी?
मीनाक्षी शेषाद्रि : इस प्रश्न का उत्तर फ़िलहाल नहीं है मेरे पास. आप सही कह रहे हैं हमारे यहां राधा-कृष्ण या रामकथा के प्रसंगों पर आधारित नृत्य परंपरा समृद्ध रही है. मुझे याद आ रहा है मैंने दिल्ली में पारंगत नर्तकों को देखा था, जिन्होंने कुछ अलग विषयों को लेकर प्रयास किये थे. एक उदाहरण दूं प्रख्यात नृत्यांगना सोनल मानसिंह का. उन्होंने बताया ओडिसी नृत्य में एक प्रणाली है, पाला. जिसमें अनेक कवि/लेखक एक स्थान पर इकट्ठे होते हैं, एक ही विषय पर सभी अपनी रचनाएं देते हैं. मैंने उससे प्रेरणा ली और भरतनाट्यम में प्रयास किया. मैंने एक एक्ट में निद्रा के तीन रूपों और बिम्बों को प्रस्तुत किया. केरल के विद्वानों और प्रेस ने उसे बहुत तारीफ़ की थी. तारीफ़ मेरी हुई पर देखा जाये तो मैंने सोनल मानसिंह के विचार की चोरी (खिलखिलाकर) की.
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भवेश दिलशाद : मेरा ख़याल है इसे चोरी कहकर आप ज़्यादती कर रही हैं.
मीनाक्षी शेषाद्रि : (खिलखिलाहट) अभी तो शास्त्रीय नृत्य में काफ़ी विषय विस्तार हो रहा है. विदेशी भाषा/संस्कृति, पर्यावरण जैसे विषय आ रहे हैं. तो आधुनिक साहित्य का विषय आने की संभावना तो बिल्कुल है. जैसे वैज्ञानिक आविष्कार करते हैं वैसे ही कलाकार अपनी कला में नित नूतन खोज और आविष्कार करते हैं. यह भी आप जानते हैं शास्त्रीय कलाओं का चरम किसी आध्यात्मिक उत्कर्ष को पाना है. मेरी निजी दृष्टि भी रही कि मैं कोई भी विषय लूं, मेरी कला उस ईश्वर, उस मोक्ष से किसी तरह जोड़ दे.
भवेश दिलशाद : आप भले अभिनेता के रूप में अधिक विख्यात हैं लेकिन लगता है आपकी आत्मा नृत्य में बसती है.
मीनाक्षी शेषाद्रि : जी, मेरी मां ही मेरी पहली कलागुरु थीं. मैंने चार साल की उम्र में ही स्टेज प्रस्तुति दे दी थी. नृत्य में मेरा मन ऐसा लगा कि मैंने भरतनाट्यम, कथक, कुचीपुड़ी और ओडिसी चार शैलियां विधिवत सीखीं. 20 साल की उम्र तक वह निपुणता प्राप्त कर ली कि न सिर्फ़ प्रस्तुति दूं बल्कि उपज भी कर सकूं, उससे कुछ रच सकूं, सिखा भी सकूं. यह मेरे लिए अमेरिका में बहुत काम आया. वहां मैंने संगीत और नृत्य का प्रशिक्षण दिया. और हां अमेरिका में जहां से भी जो प्रवासी आये हैं, अपनी कलाएं भी लेकर आये हैं. यानी अमेरिका एक बड़ा सा बर्तन है, जहां सब अपनी-अपनी खिचड़ी साथ पका रहे हैं. तो मैंने कई संस्कृतियों के कलाकारों के साथ मिलकर, उनकी और अपनी कला के तालमेल से भी काम किये. मैं शुक्रगुज़ार हूं ज़िंदगी ने मुझे यह मौक़ा दिया.
भवेश दिलशाद : शास्त्रीय नृत्यांगना और नृत्य गुरु के रूप में आप लगातार सक्रिय रहीं. तो आपका अभिनेता बनना, ऐसा तो नहीं हो सकता इसके पीछे नृत्य कौशल न रहा हो!
मीनाक्षी शेषाद्रि : जी, मैं अपने अभिनय के पीछे अपने नृत्य को ही दोषी ठहराती (खिलखिलाकर) हूं. मैंने विभिन्न गुरुओं से विभिन्न शैलियों में नृत्य की शिक्षा ली और उसी वजह से मनोज कुमार जी ने मुझे पहली मुलाक़ात में ही फ़िल्म में साइन किया. उन्होंने कहा 'स्क्रीन टेस्ट की ज़रूरत ही नहीं है'. तो नृत्य ही सब कुछ रहा. हमारे यहां तो वही अभिनेत्रियां उत्कृष्ट स्तर पर जा सकी हैं, जो शास्त्रीय नृत्य में कला संपूर्ण रहीं.
भवेश दिलशाद : हमारे सिनेमा में तो नृत्य, संगीत अनिवार्य अंग की तरह ही रहा है.
मीनाक्षी शेषाद्रि : बेशक. आप देखिए वैजयंती माला, पद्मिनी, रागिनी, कमला, हेमा मालिनी, माधुरी, जुही, ऐश्वर्या, मैं, सभी शास्त्रीय नृत्य सीखकर आये. आपने ठीक कहा भारत ही शायद एकमात्र है, जहां फ़िल्म निर्मिति में नृत्य, संगीत कूट-कूटकर भरा है. पश्चिमी सिनेमा में शायद 5 फ़ीसदी फ़िल्में म्यूज़िकल बनती हैं, हमारे यहां तो 99 प्रतिशत हैं ही. वैसे मैं आपको यह भी बताऊं कि स्कूल में डांस, संगीत स्पर्धाओं में तो भाग लेती ही थी, लेकिन मैंने ड्रामा और एक्टिंग में तभी से गंभीर प्रतिभागिता की थी. बस यह नहीं सोचा था कि यह भविष्य बनेगा. भाग्य ही रहा कि मिस इंडिया बनी और तुरंत ही फ़िल्म का प्रस्ताव आ गया.
भवेश दिलशाद : जी, संयोग होते हैं. अभिनय और कला में कई बरसों का अनुभव. यहां एक जिज्ञासा यह कि संगीत नाटक अकादमी या फ़िल्म एंड टेलिविज़न इंस्टिट्यूट जैसे संस्थान के नेतृत्व का प्रस्ताव संयोग से आपको मिले तो?
मीनाक्षी शेषाद्रि : यह आपने ऐसा सवाल पूछ लिया है कि मेरे कान खड़े हो गये (खिलखिलाकर). एफ़टीआईआई का बहुत नाम है, वहां बड़े-बड़े कलाकार स्टूडेंट रह चुके हैं, लीडर भी. मुझमें क़ाबिलियत है कि नहीं मुझे पता नहीं, लेकिन यह पता है कि राजनीति के मामले में मैं थोड़ी कच्ची हूं.
भवेश दिलशाद : हां, राजनीति से अपना यह संकोच तो आप साक्षात्कारों में पहले बता चुकी हैं.
मीनाक्षी शेषाद्रि : हां, अस्ल में शासन संचालित संस्थानों में पॉलिटिकली करेक्ट रहने या इस तरह मैनेज करने की बाध्यता रहती है. कला संबंधी कोई ज़िम्मेदारी हो तो मैं कर सकती हूं लेकिन ये सब मुझे पता नहीं कि मैं कैसे कर सकूंगी. आपके प्रश्न पर क्या कहूं.. मैं एक योग्य संभावित उम्मीदवार हो सकती हूं, इसमें संशय नहीं है लेकिन... मुझमें कलाकार बनने की प्यास इतनी है, चाव इतना है कि मैं उसे पहले महत्व दूंगी. चूंकि मैंने अपने करियर को ख़ूबसूरत मोड़ पर अलविदा कहा था तो कुछ इच्छाएं अभी बाक़ी हैं.
भवेश दिलशाद : हमारी शुभकामनाएं मीनाक्षी जी. फिर भी आप भले ही कहें कि राजनीति में आपकी रुचि न हो पर राजनीति होती तो हर जगह है. इस दख़लंदाज़ी से बचें कैसे?
मीनाक्षी शेषाद्रि : मैंने अपने करियर में जो कुछ हासिल किया, अपनी कला के बलबूते ही. जो कुछ मेरे नसीब में नहीं था, नहीं था. मुझसे तब भी कई लोग कहते थे तुम्हें राजनीति खेलना नहीं आता, बड़ी फ़िल्में तुमने गंवा दीं, तुमने 'हीरोज़' को रिझाया, लुभाया नहीं, बस अपनी किताबों और नृत्य में सिमटकर रह गयीं. लोग कहते थे मेरा करियर कुछ और हो सकता था अगर फ़िल्म उद्योग के ऐसे तौर-तरीक़े अपनाये होते. तब मैं बहुत महत्वाकांक्षी नहीं थी... लेकिन इस पारी में थोड़ी अलग हूं, इस बार थोड़ी महत्वाकांक्षी हूं. राजनीति करूंगी यह अभी नहीं जानती पर कल किसने देखा...
भवेश दिलशाद : चलिए कल पर ही छोड़ते हैं यह विषय. अब कुछ बात आधी आबादी की. आपकी तमाम बातों से ज़ाहिर है आप अनेक महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत हैं. नये भारत की आम महिलाओं की चुनौतियां क्या समझती हैं आप?
मीनाक्षी शेषाद्रि : अंग्रेज़ी का एक वाक्य मुझे प्रभावित करता है, जिसका अर्थ है कि आपको समस्या का नहीं समाधान का अंग होने की कोशिश करना चाहिए (Try to be part of the solution not problem). इतनी बड़ी आबादी में सबकी कोई समान समस्या नहीं है तो सभी को अपनी समस्या समझकर आगे बढ़ना होगा. मुझे लगता है आधी आबादी के लिए शिक्षा और उनकी परवरिश में उन्हें यह विश्वास दिलाना कि समानता उनका अधिकार है, इससे बदलाव संभव हो सकता है. जैसे मुझे मेरे माता-पिता ने अवसर देने में कोई संकोच नहीं किया. मैंने जो चाहा सीखा, काम किया. अंजाम यह हुआ कि टीनेज में तो मेरी आमदनी तक शुरू हो गयी थी.
भवेश दिलशाद : सबके पास तो यह सुविधा नहीं है. ऐसे परिवारों, ऐसे समाज से वंचित आबादी बहुत बड़ी है, तब?
मीनाक्षी शेषाद्रि : बिल्कुल. भारत की स्थितियों को लेकर एक शब्द 'विरोधाभास' याद आता है. कुछ बहुत अच्छा भी है तो कुछ बहुत बुरा भी. मेरा ख़याल है अगर कोई यह सोचे कि उसके दायरे बंधे हुए नहीं है, वह ख़ुद को स्वतंत्र महसूस करे तो रास्ते खुल सकते हैं.
मीनाक्षी शेषाद्रि से यह बातचीत आब-ओ-हवा के अंक-10 में प्रकाशित |
भवेश दिलशाद : अंतत: प्रश्न ताज़ा घटनाक्रमों के संबंध में. दुर्दांत बलात्कारों के समाचार देश के कई स्थानों से आ रहे हैं. महिला उत्पीड़न के आंकड़े डरावने हैं. चूंकि आपने दामिनी का किरदार निभाया तो प्रश्न उठता है कि आज की मीनाक्षी शेषाद्रि के मन के भीतर क्या '1993 की दामिनी' कोई द्वंद्व पैदा करती है?
मीनाक्षी शेषाद्रि : मैंने दामिनी का किरदार किया या बलात्कार उस फ़िल्म का विषय ऐसा था या फ़िल्म ने लोगों को सोचने पर मजबूर किया... यह सब एक तरफ़ छोड़ भी दें तो भी मैं यही कहूंगी कि ये जो हो रहा है, घृणित है. यह हिंसा का एक और रूप है और हिंसा वहीं होती है जहां अज्ञानता हो. आज हम भले ही कहें कि भारत एक महान संविधान है, महान देश है पर यहां अज्ञानता बेहद है, जिसकी वजह से विभिन्न प्रकार की हिंसाएं हैं. मैं बस यही सोचती रहती हूं ऐसा क्या हो जिससे हमारे समाज की सोच में बदलाव आये... मैं बीस वाक्य भी बोलूं तो बात यही है कि भ्रष्ट सोच से मुक्ति का रास्ता चाहिए. जैसे गांधीजी पूरे समाज की सोच में बदलाव लोकर आये थे, वैसी ही किसी सोच वाला नेतृत्व हमारे समय की मांग है.
भवेश दिलशाद : मार्के की बातें कहीं आपने. प्रश्न, जिज्ञासाएं कुछ और भी हैं मेरे पास लेकिन अब घड़ी एक संकोच पैदा कर रही है.
मीनाक्षी शेषाद्रि : हां, आधा घंटा सोचा था मैंने पर क़रीब एक घंटे बात कर ली हमने.
भवेश दिलशाद : जी, आपने समय दिया, उसके लिए बहुत शुक्रिया और सिनेमा में आपकी वापसी का हम सभी को इंतज़ार है, हमारी ओर से आपको असीम शुभकामनाएं.
मीनाक्षी शेषाद्रि : जी, आपको भी शुक्रिया.