शुक्रवार, मार्च 08, 2024

Beyond The Review

Laapata Ladies : लेडीज़ के लापता किरदारों को खोजती फ़िल्म


'बुड़बक होना शर्म की बात नहीं है, बुड़बक होने पर गर्व करना शर्म की बात है.' इसे कहते हैं फ़िल्म. इंटरवल हो या फ़िल्म ख़त्म होने पर सिनेमाहॉल से निकलने का वक़्त, दर्शकों की ज़ुबान पर बस यही एक तसल्ली, 'वाह क्या फ़िल्म है'. फ़िल्म ऐसी कि जैसे, जैसे नानी की कोई भूली-बिसरी कहानी मिल जाये, जैसे बचपन की कोई ख़ास स्केचबुक अरसे बाद हाथ लगे, जैसे बुआ या मौसी के हाथ का बरसों पुराना स्वाद अचानक ज़ुबान पर आये, जैसे पेट भर जाये, मन भर जाये. 'लापता लेडीज़' देखने के बाद जो कैफ़ियत रही, उसे बतलाऊं तो जैसे, जैसे दिल में घुलते महादेवी के गीतों की कोई किताब, जैसे प्रभा अत्रे का 'जमुना किनारे मोरा गांव' वाला राग खमाज, जैसे सुधा मूर्ति की हज़ारों टांकों की दास्तान...


Laapata Ladies Poster : Instagram

कोई भी कलाकृति हो, उसकी आलोचना से पहले उसका आस्वाद है. यदि वह कृति आपको रस से सराबोर करती है, तभी उसका कथ्य और शिल्प विचार योग्य है. किरण राव निर्देशित 'लापता लेडीज़' देखने के बाद हर पीढ़ी की आंखों में एक सुकून, चेहरे पर एक संतोष देखकर महसूस होता है कि रस का साधारणीकरण कमाल का हुआ. इसके लिए न केवल निर्देशक बल्कि परदे पर अपने अभिनय से कथा को प्रवाहित और काग़ज़, कैमरे व एडिटिंग डेस्क पर बैठकर फ़िल्म को आकल्पित-रूपांकित करने वाले सभी कलाकारों को भरपूर दाद पहुंचनी चाहिए. एकबारगी ऐसा लगेगा या स्वस्थ मनोरंजन चाहने वाले एक आम दर्शक को महसूस होगा कि फ़िल्म हल्के फुल्के ढंग-से एक दिलचस्प कहानी कहती है, बच्चों की तरह आपको रुलाती हंसाती है और संदेश देने का अपना काम भी कर जाती है. फ़िल्म का यही बड़ा उद्देश्य और सरोकार है, जो पूरा हो जाता है. लेकिन यह फ़िल्म कहती क्या और कैसे है?

धोबी घाट जैसी क्लिष्ट और गंभीर फ़िल्म बना चुकीं किरण 'लापता लेडीज़' में अपने भीतर के कलाकार की नये सिरे से शिनाख़्त करती हैं. पिछली फ़िल्म उनके हुनर का उदाहरण थी और यह फ़िल्म हुनर की सफ़ाई के रूप में सामने आती है. एक होता है कलात्मक ढंग से बुनना और एक होती है इतनी सहज बुनाई कि कोई जोड़, कोई गिरह, कोई लोच नज़र न आये. यही लगे कि बुनने वाले के हाथ बुनाई के लिए ही बने हैं. फ़िल्म इसी तरह की सहज कारीगरी दिखायी देती है और इसके क्रेडिट में लेखकों का भी बड़ा हिस्सा है. एक बेहतरीन कहानी को स्पष्ट पटकथा और परिवेशगत सटीक संवादों से परदे पर साकार किया गया है.

कथा काल्पनिक होते हुए भी पात्र और घटनाएं देखी-सुनी-सी लगती हैं. हर पात्र के साथ दर्शक ख़ुद को कनेक्ट कर पाता है. आंचलिकता की महक उसके मन से उठने लगती है. साथ ही एक दिलचस्पी बनी रहती है कि अब ऐसा होने वाला है या वैसा होगा क्या? अस्ल में, यह औरतों की कहानी है और औरतों की ही ज़ुबानी है, ऐसा कहा जा सकता है. फ़िल्म का ट्रेलर भी अगर आपने देखा है तो यह तो आपको पता ही है कि घूंघट की वजह से दुल्हन ट्रेन से उतरते वक्त बदल गयी है. बदलकर आ गयी दुल्हन को उसके घर पहुंचाने और जो छूट गयी, उसे खोजने के माजरे के बीच पूरी फ़िल्म चलती क्या बहती है. आपके दिल में उतरती है और बहुत महीन बातें आपके दिल दिमाग़ में छोड़ जाती है.

फ़ेमिनिज़्म के पहलू

औरतों के घूंघट, बुर्क़ा और परदादारी के विषय पर कटाक्ष करने वाली यह फ़िल्म लाउड क़तई नहीं है. ग्रामीण या आंचलिक जीवन की कुप्रथाओं पर डंडे बरसाने वाले लेखों, हर प्रथा के लिए मर्दानगी या पुरुष प्रधान समाज को कारण और आरोपी बताने वाली कविताओं या किसी मुद्दे पर तख़्तियां लेकर सड़क पर उतर जाने वाले एक्टिविज़्म के बरअक्स यह फ़िल्म एक नया रास्ता बनाती है. पारंपरिक लोगों को एक व्यावहारिक ढंग से कैसे समझाया जा सकता है, यह इस फ़िल्म के मूल स्वर में है.

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प्रताड़ना के बाद पुरुषों को छोड़ चुकी महिला का पात्र है, मंजू माई. यह पात्र पुरुष प्रधान समाज से सीधे अखाड़े में दो-दो हाथ करने वाले फ़ेमिनिज़्म का प्रतीक बनता है. बदली हुई जो दुल्हन आयी है जया, यह पात्र महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए सकारात्मक सोच और बदलाव के लिए रास्ता बनाने वाले फ़ेमिनिज़्म का प्रतीक है. गुमी हुई दुल्हन यानी फूल का पात्र दुर्भाग्य और स्थितियों व नये परिवेश से प्रेरित होकर स्वाबलंबी बनाने की दिशा का बोध देता है और अन्य महिला पात्र भी पुरुष समाज में महिलाओं की भूमिका पर चर्चा करते हुए नज़र आते हैं.

दैहिक इच्छाओं और संबंधों, महत्वाकांक्षाओं के लिए समान अवसरों और मनमर्ज़ी के कपड़े पहनने जैसी स्वतंत्रताओं की पैरवी जो फ़ेमिनिज़्म करता है, उसके संदर्भ शहरी या पाश्चात्य जीवन संदर्भ में समझे जा सकते हैं, लेकिन भारत जैसे अनेक अविकसित एशियाई देशों में फ़ेमिनिज़्म के सामने 21वीं सदी में भी ग्रामीण या क़स्बाई महिलाओं की रोज़मर्रा की समस्याएं बड़ी चुनौतियां हैं. लड़कियों की शिक्षा, जागरूकता, परवरिश, पोषण, बाल विवाह, दहेज, घरेलू हिंसा, शोषण और श्रम के मोर्चे पर शहरी फ़ेमिनिस्टों की बढ़ती बेरुख़ी भी समस्या बनती जा रही है.

व्यवस्था पर कटाक्ष

फ़िल्म के लगभग सभी महिला पात्र सामाजिक व्यवस्थाओं के शिकार, पीड़ित हैं लेकिन इसे अपनी नियति मानकर सरलता से जीते हुए भी. अपने स्तर से थोड़ा ऊपर उठने की हर पात्र की जिजीविषा को व्यवस्था विरोध के रूप में समझा जा सकता है. यही नहीं, सियासत पर भी ये महिला पात्र तंज़ करते हैं. घटना के संदर्भ में बहुत मासूमियत के साथ शब्द आते हैं, 'पहले गांव का नाम इंदिरानगर था, फिर अटलनगर हुआ, फिर मायापुरम...' जैसे संवाद रोचकता से वोटरों की ज़ुबान पर आ जाते हैं. या एक विधायक के ऊटपटांग भाषण का दृश्य सरल कटाक्ष हैं.

बुड़बक होने पर गर्व करना शर्म की बात है, जैसे जुमले संवादों में आते तो किसी और प्रसंग में हैं लेकिन गौर किया जाए तो वर्तमान के सियासी (ख़ासकर सत्ता समर्थकों) हालात या माहौल को लेकर तंज़ की तरह सुनाई देते हैं. सियासत, समाज और अशिक्षा की एक पूरी साज़िश के साथ जो परिवेश बनता है, वह किस तरह लड़कियों के भविष्य, समझ और प्रतिभा के साथ अन्याय करता है, एक दमनकारी छलावा साबित होता है, यह फ़िल्म की परतों से छुपा हुआ है, लाउडस्पीकर पर चिल्लाया नहीं गया है.

Laapata Ladies Still

आलोचना के पक्ष

पिछले कुछ समय में समस्या प्रधान फ़िल्में हों, विषय प्रधान, ड्रामाई या फिर बायोपिक, लगभग सभी में एक शोर, एक बयानबाज़ी या एक आक्रामकता महसूस होती रही है. बहुत सी फ़िल्में तो साफ़ तौर से सियासी एजेंडों की वजह से ही बनती हुई नज़र आ रही हैं. ऐसे में एक साफ़ सुथरी, संदेशपरक फ़िल्म बहुत उम्मीद जगाती हुई आती है. इस​ फ़िल्म का सबसे उजला पक्ष भी यही है और मोहभंग करता भी कि हर पात्र अच्छा है या उतना बुरा नहीं है, जितनी वास्तविकता होती है. रिश्वत लेने वाला, भ्रष्टाचार की कल्पना से ही लार टपकाने वाला पुलिस अफ़सर भी अंत में नर्मदिल, संवेदनशील नायक साबित हो जाता है. दुल्हन बनी दो किशोरियां या नवयुवतियां तक़रीबन हफ़्ते भर तक अनजानों के बीच हैं, लेकिन उन्हें किसी भयानक दुर्घटना या दुर्व्यवहार का सामना नहीं करना पड़ता.

यह आशावाद एक आदर्शवाद है. यदि इस कथा को किसी परिचित स्थान से जोड़ दिया जाता तो यह इस फ़िल्म की बड़ी कमज़ोरी हो जाती. एक का​ल्पनिक स्थान 'निर्मल प्रदेश' की ज़मीन पर गढ़ना ठीक रहा. यह यूटोपियन सेटिंग यानी 'लापतागंज' वाला कॉंसेप्ट कोरे आदर्शवाद के आरोप का जवाब बन सकता है. एक पक्ष है, गीत-संगीत जिसके लिए जवाब नहीं मिलता. फ़िल्म का सबसे कमज़ोर पक्ष संभवत: यही है. बेहतरीन लोकगीत और लोकसंगीत के साथ कविताई की बड़ी गुंजाइश का लाभ न उठाया जाना खलता है. पात्र के हिसाब से थिएटर का प्रचलित फॉर्मूला अपनाने वाले रवि किशन कहीं-कहीं कुछ बनावटी अभिनय भी करते दिखते हैं. इसके उलट छाया कदम और गीता अग्रवाल जैसे अभिनेता अपनी परिपक्वता दिखाते हैं. यह बात सही है कि '12वीं फ़ेल' फ़ेम गीता को एक इमेज से हटकर रोल भी करने होंगे. दूसरी ओर, स्पर्श, प्रतिभा, नितांशी जैसे नये कलाकार छाप छोड़ते हैं. विशेष तौर से स्पर्श की भाव-भंगिमाएं अधिकांश दृश्यों को लाजवाब बनाती हैं. कहानीकार बिप्लब गोस्वामी और फ़िल्म लेखक स्नेहा भरपूर दाद के हक़दार हैं.

महिलाओं की, महिलाओं के द्वारा यह फ़िल्म सिर्फ़ महिलाओं के लिए नहीं है, यही इसकी लोकतांत्रिक भावना है. आप सिनेमाप्रेमी हैं तो ज़रूर देखिए और समझकर देखिए यह चित्र, जिसमें अंतर्मुखी विमर्श है जैसे एक अच्छा साहित्य अपने पाठक के मन में सदियों गूंजता है, इसमें एक लय है जैसे अच्छा संगीत श्रोता के साथ सदियों बहता है और ऐसा बहुत कुछ है. इस फ़िल्म को देखने के बाद अपने परिवेश में झांककर देखिए कि कितनी महिलाएं अपने मन से 'लापता' हैं, अपने समाज में, अपने परिवार में रहते हुए. हिंसा और लाउड विज़ुअल्स के इस दौर में यह फ़िल्म एकदम अलग खड़ी दिखती है. बेशक पटाखा, पहेली से लेकर बालिका वधू जैसी कुछ पूर्ववर्ती फ़िल्मों की परंपरा इसके साथ ज़रूर जोड़ी जा सकती है.

शुक्रवार, मार्च 01, 2024

आलेख

'तमाशा' को जानिए, जिससे ज्योतिबा फुले ने की थी क्रांति


विचारक, सुधारक, लेखक ज्योतिराव फुले ने गांवों और दूरदराज के गरीबों और निरक्षरों को क्रांतिकारी बनाने के लिए जिस कला (Folk Art) को साधन बनाया था, वह लुप्त होने की कगार पर है. यह लेख मूलरूप से न्यूज़18 के लिए लिखा गया था, जो 11 अप्रैल 2021 को प्रकाशित हुआ था.


लोकनाट्य तमाशा का आकल्पन. 'हिंदी विवेक' से साभार.

विजयी मराठा अखबार ने लिखा था “ब्राह्मणों की ज़मीन के भाड़े बेतहाशा थे… किसानों के पास गांठ में एक पैसा बचना तक मुहाल था! तब किसानों ने तय किया कि वो ब्राह्मणों की ज़मीनों के इतने अत्याचारी ठेके को नहीं मानेंगे. इस तरह से सत्यशोधक समाज ने ब्राह्मणों की गुलामी से किसानों को आज़ाद करवाया.” इस सत्यशोधक समाज की स्थापना ऐतिहासिक समाज सुधारक ज्योतिबा फुले ने की 1873 में की थी. इस सत्यशोधक समाज ने उस समय पिछड़े और दलित समुदायों के उत्थान के लिए ऐतिहासिक कारनामों को अंजाम दिया, जिसका बेहद खास औज़ार ‘तमाशा’ था.

इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में 1973 में छपे एक लेख की मानें तो तमाशा के ज़रिये ही सत्यशोधक समाज ने किसानों और गैर ब्राह्मण नेताओं के बीच एक पुल बनाया और इसी विचार के माध्यम से विद्रोहों को उकसाया. 1919 में सातारा में ब्राह्मण भूमिहारों के खिलाफ कर्ज़दार किरायेदारों की बगावत इसका बड़ा उदाहरण था. आगे है फुले ने किस तरह तमाशा से निशाना साधा. आपको तमाशा की परंपरा के बारे में भी बताएंगे.

सत्यशोधक समाज का हथियार था ‘तमाशा’

महाराष्ट्र में ब्राह्मणवादी विचारधारा और अत्याचारों की आलोचना करना ही फुले की इस संस्था का तरीका था और उद्देश्य था कि ‘शेठजी भटजी’ वाली साहूकारी और अत्याचारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ किसानों और दलित समुदाय को आंदोलित किया जाए. चूंकि यह वर्ग शिक्षित नहीं था और महाराष्ट्र के दूरदराज के इलाकों तक फैला था इसलिए व्याख्यानों और भाषणों से उस तक पहुंचना बहुत मुश्किल था.

ऐसे में, फुले के सत्यशोधक समाज ने लोक नाटक की परंपरा तमाशा को हथियार बनाकर अपने संदेश फैलाने शुरू किए. समाज ने तमाशा की मूल परंपरा में ब्राह्मण विरोधी संदेशों को बेहतरीन ढंग से जोड़ा. ‘सत्यशोधकी जलसा’ के नाम से मशहूर रही इस पहल में तमाशा में नुक्कड़ नाटक के कुछ गुणों को जोड़कर नए ढंग से किसानों से संवाद किया गया था.

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इसमें बहुत खास था मंगलाचरण में ‘गणपति वंदन’. इस वंदना में शोषित समाज को समझाया गया कि वास्तव में गणपति ‘गण के देवता’ हैं, सिर्फ ब्राह्मणों के नहीं. इससे यह समझ विकसित की गई कि गण का महत्व है, गण यानी जनता.

तमाशा की रूपरेखा में सत्यशोधक समाज ने ब्राह्मणों के अत्याचारों, धोखेबाज़ियों और शोषण के बारे में किसानों के बीच काफी प्रचार किया, जिससे ग़ैर ब्राह्मण समाज के कई बुद्धिजीवी और नेता भी प्रभावित होकर समाज के इस मकसद में जुड़े. आख़िरकार किसानों ने अत्याचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना सीखा भी.

तमाशा और इसका इतिहास क्या है?

ख़ास तौर से महाराष्ट्र में लोक नाट्य परंपरा को तमाशा नाम से जाना जाता रहा है. यह काफी हद तक नुक्कड़ नाटक की तरह का कॉंसेप्ट रहा. इसके इतिहास को देखा जाए तो पहली सदी में सातवाहन शासकों के समय से इसके प्रयोग के उल्लेख मिलते हैं. यानी तमाशा का इतिहास कम से कम 2000 साल पुराना तो है ही.

महाराष्ट्र में इस परंपरा का चरम 18वीं सदी में पेशवाओं के साम्राज्य के दौरान बताया जाता है. ढोलकी फड़चा और संगीत बारीचा, तमाशा के ये दो रूप प्रचलित रहे. एक अनुमान के मुताबिक़ माना जाता है कि अब भी महाराष्ट्र में करीब 20 फुल टाइम तमाशा पार्टियां सक्रिय हैं. महाराष्ट्र के गांवों के साथ ही कर्नाटक और गुजरात के सीमांत इलाकों तक ये तमाशा मंडल साल में 200 से ज़्यादा दिनों तक कला का प्रदर्शन करते हैं.

पारंपरिक तौर पर तमाशा में नाचने वाले लड़के यानी नच्या, कविताएं लिखने वाले यानी शाइर और नाटक को संचालित करने वाला सूत्रधार या सोंगद्या प्रमुख होते हैं. पहले इसमें महिलाएं भाग नहीं लेती थीं लेकिन आधुनिक समय में यह बाधा नहीं रही. मराठी थिएटर की शुरूआत 1843 के आसपास से मानी जाती है और ​इतिहासकार साफ़ तौर पर इसे तमाशा से ही विकसित हुई परंपरा बताते हैं.

लोकशाइर बशीर मोमिन कवाठेकर ने एड्स्, दहेज और अशिक्षा जैसी कई समस्याओं को लेकर मशहूर सामाजिक तमाशा नाटक लिखे. 19वीं सदी में जब तत्कालीन बॉम्बे में उद्योगों की शुरूआत हुई, तबसे ही ग्रामीणों का शहर की तरफ पलायन शुरू हुआ था और तबसे ही तमाशा की पहचान शहरों में बनी थी. तमाशा कला को बचाए रखने के लिए महराष्ट्र सरकार एक सालाना पुरस्कार भी देती है. लेकिन थिएटर और शहरीकरण के समय में लोक कला बेहद सिमट चुकी है और अब इसके सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हुआ है.

आलेख

डार्विन, मार्क्स और ग़ालिब की 19वीं सदी!


(27 दिसंबर 2022 को मूल रूप से न्यूज़18 हिंदी की वेबसाइट पर यह लेख प्रकाशित हुआ था. ग़ालिब की याद के दिन छपे इस लेख में यह नवाचार है कि ग़ालिब के समकालीन दो क्रांतिकारी विचारकों के बरअक्स उनकी शायरी को समझा जाये.)


Hindi.News18.Com से साभार


19वीं सदी में दुनिया के कई कोनों में पीड़ा जीवन का जैसे केंद्र थी. कहीं मज़दूरों का शोषण, कहीं औपनिवेशिक युद्ध व षडयंत्र, कहीं गुलामी तो कहीं दकियानूसी सांप्रदायिक ताकतों का वर्चस्व. मानव समाज बुरी तरह छटपटा रहा था. इसके बरअक्स, 19वीं सदी पूरी दुनिया के लिए बड़े इन्क़िलाब की सदी है. भारत में मुग़ल साम्राज्य का पतन और अंग्रेज़ी सत्ता का वर्चस्व कायम हो रहा था, तो पश्चिम में दो बड़ी क्रांतियां हो रही थीं. एक, चार्ल्स डार्विन अपने जीवविज्ञानी सिद्धांतों के ज़रिये कर रहे थे तो दूसरी, एंगेल्स और कार्ल मार्क्स अपने उन दार्शनिक सिद्धांतों से, जिनके मूल में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषण के नज़रिये से इतिहास को समझा जा रहा था. आंडबर, पूंजीवाद, उपनिवेशवाद के विरुद्ध विद्रोह के सुरों के बीच मानवाधिकार, प्रगतिशील विचार और समानता जैसे मूल्य बीच बहस में आ रहे थे. इस पूरे परिप्रेक्ष्य में मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी को यक़ीनन एक बड़ी घटना के रूप में दर्ज करने और समझने की ज़रूरत बनी हुई है.

निस्या-ओ-नक़्दे-दोआलम की हक़ीक़त मालूम
ले लिया मुझसे मेरी हिम्मते आली ने मुझे

अतार्किकता को ग़ालिब कई जगह अपनी शायरी में निशाना बनाते हैं. स्वर्ग-नर्क की अवधारणा पर सवाल खड़े करने जैसे उनके रवैये उन्हें कबीर, राबिया और ललदैद (ललद्यद) जैसे सूफ़ी संत कवियों की परंपरा में लाते हैं, तो ऐसे ही बयान उन्हें न्यूटन के बाद की सदी में वैज्ञानिक सोच का कवि भी साबित करते हैं. उनकी जीवन यात्रा में चूंकि अभाव, दुख, असफलता, आरोप और असम्मान के कई प्रसंग रहे इसलिए एक मोहभंग तो उनकी शायरी में स्वाभाविक था ही, लेकिन यह सहज नहीं था कि वह एकदम से प्रगतिशील भी नज़र आये. इस लिहाज़ से भी ग़ालिब के रचनाकर्म को प्रकाश में लाने के कुछ रास्ते तो हैं ही.

समाजी, सियासी और सांस्कृतिक उथल-पुथल

भारत में राजनीतिक उथल-पुथल का आलम यह था कि मिर्ज़ा ग़ालिब अपनी आंखों से बहुत कुछ टूटता देख रहे थे. ब्रितानी सत्ता पिछली सत्ताओं के कई प्रतीकों, दिल्ली की पहचान रहे कई नामों और पहचानों को तबाह कर रही थी. दिल्ली के लिए ग़ालिब की तड़प हो या उनके दिल में दिल्ली की टूटन, कई शेरों में पुरअंदाज़ बयान होती रही.

रोज़ इस शहर में एक हुक्म नया होता है
कुछ समझ में नहीं आता कि क्या होता है

वास्तव में, ये अशआर उस दौर के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संकटों के इशारे के रूप में इतिहास के हिस्से भी समझे जा सकते हैं.

न हो बहरज़ा बयाबां नवर्दे-वहमे-वजूद
हनोज़ तेरे तसव्वुर में है नशेब-ओ-फराज़

इससे पिछले शेर में जिस तरह शहर को हम जिंदगी या नियति के तौर पर समझ सकते हैं, उसी तरह इस शेर के भी आध्यात्मिक पहलू हैं. एक दार्शनिक व्याख्या के ख़िलाफ़ ये पंक्तियां समझी जाती हैं, लेकिन मजाज़ी तौर पर इस शेर को इन अर्थों में भी देखा जा सकता है कि हमारे दिमाग में असमानता को पोसने वाले संस्कार कई सच्चाइयों को स्वीकार करने में रोड़ा बन जाते हैं. हम एक रटी हुई ज़ुबान बोलते हैं. यक़ीनन इस तरह की सोच 19वीं सदी के जनजीवन में प्रमुख लक्षण के तौर पर थी. 19वीं सदी भारत में बड़े सांस्कृतिक परिवर्तन के लिहाज़ से भी उल्लेखनीय थी.

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बजट भाषण में 'कविता' के सियासी कारण

ग़ालिब की उम्र के पूर्वार्द्ध के समकालीन राजा राममोहन राय औेर उत्तरार्ध के समकालीन ज्योतिबा फुले के सुधारात्मक विचारों की एक लहर थी. ऐसे समय में एक शायर का प्रगतिशील हो जाना क्या मायने रखता है? यह बड़ी घटना इसलिए भी था कि ‘ग़ज़ल’ जैसी विधा को तब तक ऐसे काव्य रूप का दर्जा न मिल सका था, जिसमें समाज, सियासत या समय की कड़वी सच्चाइयों को दर्ज किया जाए. ‘पर्दा प्रथा’ के उस दौर में ग़ज़ल को नाज़ुक, रूमानी ख़याल, एक ‘पर्दादार शर्मीली और सुंदर औरत’ के हवाले से ही बखाना जाता रहा. एक बड़ा वर्ग अब तक इस तरह की सोच की पैरवी करता है. उस समय तो ग़ज़ल या शेर में इस तरह के विषयों को उठाना ही किसी क्रांति से कम न था! ‘हुआ है शह का मुसाहिब’ जैसे शेर इस बात की गवाही देते हैं. मिर्जा ग़ालिब की शायरी में उनका समय और समाज तल्ख़ी के साथ दर्ज होने से भी परहेज़ करता नहीं दिखता.

बादशाही का जहां ये हाल हो ग़ालिब तो फिर
क्यों न दिल्ली में हर एक नाचीज़ नवाबी करे

यह भी याद रखना चाहिए कि 19वीं सदी में ही हिंदी और उर्दू के बीच दीवार खड़ी करने की कोशिशें की जा रही थीं. पहले बंगाल की ज़मीन से दोनों भाषाओं के बहाने अंग्रेज़ों की ‘डिवाइड एंड रूल’ पॉलिसी सामने आती है, धीरे-धीरे आधिकारिक भाषा फ़ारसी का विरोध, लिपि पर वबाल और फिर सदी के उत्तरार्ध में खड़ी बोली आंदोलन में तेज़ी. इस पूरे विषय में उपनिवेशवाद की सांप्रदायिक साज़िश को भी ग़ालिब भांपते हैं और उनके कुछ प्रसंग इस सिलसिले में मिलते हैं, जब वह भाषाओं को लेकर सत्ता से लगभग टकराते हैं. परिवर्तन और क्रांतियों के ऐतिहासिक समय में ग़ालिब अपने इल्हाम, ईगो और विद्रोही तेवरों के चलते ख़ुद भी इतिहास होते जाते हैं.

पश्चिम के आंदोलनों की रोशनी में ग़ालिब

ऐतिहासिक तौर पर धर्म की बड़ी सत्ता रही. इस सत्ता ने दुनिया के इतिहास में सर्वाधिक नरसंहार और रक्तपात किया. जब भी इसे चुनौती दी गयी, यह तिलमिलाती सी दिखी. गैलिलियो से लेकर न्यूटन तक. न्यूटन के एक सदी बाद चार्ल्स डार्विन इस सत्ता को हिलाता है. जीवन के विकास के सिद्धांत के ज़रिये दुनिया के बनने की तमाम धार्मिक मान्यताओं को ढकोसला साबित करता है. देखते ही देखते खलबली मच जाती है. विज्ञान की लौ से सांप्रदायिकता के अंधेरे जलने लगते हैं. उस वक़्त इंटरनेट जैसी कोई चीज़ होती तो ग़ालिब की शायरी के मुरीदों में डार्विन का इक़रारनामा भी होता!

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है

दुनिया उस वक़्त चूंकि बहुत बड़ी थी इसलिए किस कोने में, कौन, किसका हमख़याल था या रहा, अरसे में मालूम चलता. नियति यह थी कि उस सदी के दूसरे क्रांतिदूत मार्क्स तक ग़ालिब का यह शेर पहुंच गया. अंग्रेज़ी सत्ता भारत के कुछ चुनिंदा कवियों के कलाम को अनुवाद करवाकर इंग्लैंड पहुंचाया करती थी. ऐसी ही किन्हीं फाइलों में यह ‘जन्नत की हक़ीक़त’ मार्क्स को मिल गयी. वह क़ायल हो गया. अपरिचय की स्थिति में भले ही मार्क्स ने ग़ालिब से अपने आंदोलन पर समर्थन मांगा और बुढ़ापे में थके ग़ालिब ने उल्टे उन्हें नसीहतें भले ही भेज दीं लेकिन इस क़िस्से से दोनों के बीच एक तार यह पकड़ा जा सकता है कि सोच में कहीं दोनों टकरा रहे थे.

ज़बाने अहले ज़बां में है मर्ग़ ख़ामोशी
ये बात बज़्म में रोशन हुई ज़बानिए शम्अ

मार्क्स जिस तरह आवाज़ उठाने की अपील कर रहा था, उसे ग़ालिब पहले ही दर्ज करते हुए मिल जाते हैं. इस प्रसंग से अर्थ थोड़ा साफ होना चाहिए. ‘जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है’, जैसे तेवर उछालने वाले ग़ालिब को डार्विनिस्ट या मार्क्सिस्ट कहना क्या जायज़ होगा? अपने निधन से चार साल पहले बीमारी और बुढ़ापे की हालत में 1865 में एक ख़त में ग़ालिब ने लिखा :

"मुझे ख़ुदा ने इतना न दिया, वरना आरज़ू थी कि मैं तमाम दुनिया की मेहमाननवाज़ी करता और अगर पूरी दुनिया को कुछ न खिला-पिला पाता, तो कम से कम इस शहर में तो कोई भूखा नंगा न रहता."

एक दर्दमंद दिल के इस ख़याल को क्या हमें वैचारिक साम्यता के तौर पर देखना चाहिए? ग़ालिब को इस तरह मार्क्सिस्ट साबित करना मज़ाक होगा. मार्क्सवादी विद्वान एजाज़ अहमद ने भी जब ग़ालिब की शायरी के अंग्रेजी अनुवाद किये तो उन्होंने भी ऐसे किसी पुरज़ोर दावे से परहेज़ ही किया. अस्ल में, एक तो ग़ालिब पूर्ववर्ती हैं, दूसरे उनके परिवेश के समाजी और सियासी हालात के साथ ही जीवन की उलझनें और दर्शन के अंतर भी महत्वपूर्ण हैं. बेशक सोच या ख़याल का टकराना एक घटना के तौर पर देखा जा सकता है, फिर भी इस आधार पर कोई वैचारिक संबंध घोषित करने से पहले पर्याप्त शोध व प्रमाण ज़रूरी होंगे.

‘बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे’ जैसे तेवर वाला यही शायर ‘मैं हूं अपनी शिकस्त की आवाज़’ और ‘कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक’ जैसे तसव्वुर और भी शिद्दत से रखता है. एक एक्टिविस्ट और एक शायर में यही फ़र्क भी है. एक स्टैंड या मोर्चे पर डटे रहने के बजाय शायर एक ज़िंदा-जावेद, धड़कता दिल होता है. शायरी को स्टैंड नहीं पूरी ज़िंदगी क़रार देता है. दिल-दिमाग़-रूह के तमाम रंगों को महसूसता हुआ. जो आम इंसान के हक़ में लड़ता है, वही आम इंसान की तरह टूटकर कहता है, ‘रोएंगे हम ज़ार-ज़ार कोई हमें रुलाये क्यूं’. इस तरह कह पाना डार्विन या मार्क्स के बस में था? ग़ालिब किसी ख़ेमे, किसी धारा या किसी वर्ग के नहीं बल्कि भरपूर जीवन यात्रा के शायर थे, हैं.

शनिवार, दिसंबर 23, 2023

Beyond The Review

'युद्ध-यात्रा' विमर्श : हमारे युद्ध और युद्धों की हमारी यात्रा


(यह लेख 16 दिसंबर 2021 को न्यूज़18 हिंदी की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ था, जिसे भोपाल से प्रकाशित 'देशबंधु' ने भी संपादकीय पन्ने पर जगह दी थी. यह लेख धर्मवीर भारती कृत 'युद्ध यात्रा' की समालोचना के साथ ही विमर्श के बिंदु उठाता है.)



पाकिस्तान दुनिया का संभवत: पहला और इकलौता ऐसा देश था, जो एक धर्म के आग्रह या ज़िद के आधार पर बना, कमलेश्वर ने ‘कितने पाकिस्तान’ में इसकी गंभीर और ठोस विवेचना की थी. यह पश्चिमी पाकिस्तान से जुड़ा विमर्श था. पूर्वी पाकिस्तान में इस्लाम यानी धर्म के बरक्स बांग्ला यानी सभ्यता अधिक दृढ़ थी. जड़ों से जुड़कर जब विचार का पल्लवन होता है, तो क्रांति होती है और ऐसा ही एक मोड़ ठीक पचास साल पहले इतिहास में आया था.

“अपने भाषण में शेख मुजीब ने स्पष्ट कहा कि पाकिस्तान का हमारे लिए कोई विशेष अर्थ नहीं. वह भी अन्य विदेशी राष्ट्रों की तरह एक विदेशी राष्ट्र है. बांग्लादेश पूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र है, जहां प्रजातांत्रिक पद्धति चलेगी और मज़हब के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा.”

यह दक्षिण एशिया में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के लिए ऐतिहासिक क्षण था. 25 मार्च 1971 को पश्चिम पाकिस्तान के ऑपरेशन सर्चलाइट से एक युद्ध शुरू हुआ था, जिसे भारत-पाकिस्तान के बीच तीसरा युद्ध भी कहा जाता है, और मुक्ति संग्राम भी. उसी साल 16 दिसंबर को संग्राम की परिणति यह थी कि बांग्लादेश एक मुक्त राष्ट्र के तौर पर घोषित हुआ.

एक शिशु के जन्म के लिए नौ माह का गर्भ और असहनीय प्रसव पीड़ा होती है और जब एक राष्ट्र को जन्म लेना हो, तो यह पीड़ा पूरी मानवता एक विराट् स्तर पर महसूसती है. यहां अमानुषिकता के विरुद्ध मानवता का संघर्ष इतिहास रचता है. उस समय के अनेक सृजनधर्मियों ने चीन्हा था कि वह इतिहास का गर्भकाल था. धर्मवीर भारती ने न केवल उस काल को दर्ज करने का बीड़ा उठाया, बल्कि उनकी जिजीविषा और दृष्टि थी कि संग्राम को आंखों देखकर देश-दुनिया तक पहुंचाया जाये. उन्होंने निश्चय किया कि वह आंखों को कैमरा व शब्दों को स्क्रीन बना देंगे.

धर्मयुग के संपादक के रूप में ख्यातिलब्ध भारती ने युद्ध के मोर्चे पर जाकर, सैनिकों, मुक्तिवाहिनी के जवानों, सेना के आला अफसरों आदि के साथ संग्राम के अंतिम 10 से 15 दिन जिस तरह गुज़ारे, उसी का शब्द चित्र है ‘युद्ध यात्रा’. 1971 और 1972 में ये तमाम बातें धर्मयुग के पन्नों पर छपी थीं, जिन्हें नये सिरे से पुस्तकाकार 2020 में उस समय प्रकाशित किया गया, जब समूची मानवता एक वायरस जनित हालात के विरुद्ध युद्ध कर रही थी, भारत में बांग्लादेशियों की मौजूदगी और बेदखली को लेकर शासन व नागरिकों के बीच संघर्ष थे, भारत और चीन के बीच सीमा पर तनाव की स्थिति थी और भू-राजनीति बता रही थी कि चीन किस तरह बांग्लादेश को भारत के विरुद्ध इस्तेमाल कर सकता है. अघोषित युद्ध काल में बीते युद्ध की यात्रा के पन्नों से बिंधने पर कहीं मन में रह जाता है कि बाहरी युद्ध अलग है, भीतरी युद्ध बहुत अलग.

“भारतीय होने के नाते आज सारे संसार के समक्ष मैं सर ऊंचा करके पूछ सकता हूं कि है कोई ऐसा देश, जिसके जवानों ने बिना अपना कोई स्वार्थ आरोपित किये अपने बन्धु देश की मुक्ति के लिए उसकी धरती को अपना रक्तदान किया हो?”

भारती उस युद्ध की यात्रा में इस भाव को खोज सके, तत्कालीन मुक्तिवाहिनी के ​मुस्लिम और हिंदू जवान बन्धुत्व के भाव को जी सके, वे हज़ारों भारतीय सैनिक रक्तदानी हो सके, तो इसका एक बड़ा कारण यही था कि युद्ध केवल बाहरी स्तर पर लड़ा जा रहा था, भीतरी नहीं. हालांकि ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ के लेखक भारती इस युद्ध यात्रा में राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय राजनीति, अर्थशास्त्रीय समीकरणों और तत्कालीन विदेश नीति जैसे बिंदुओं पर न तो मुखर दिखते हैं और न ही इनके संकेत देने में दरियादिली दिखाते हैं. जहां आग और धुएं, लाशों और धमाकों के बीच भारती को ‘क़ायदे आज़म जिन्ना’ लिखा हुआ कोई बोर्ड दिखायी देता है; या जहां ‘मां काली की क़सम, बोलो नारा ए तक़बीर’ जैसा मिला-जुला नारा सुनायी देता है; और जहां-जहां भारतीय होने के नाते जंग के लड़ाकों की वीरगाथा वर्णित है, वहां ‘गुनाहों का देवता’ वाले भारती का रोमांसिज़्म अधिक नज़र आता है.

जॉर्ज बर्नार्ड शॉ पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के बीच युद्धों को जिस तरह एक प्रोफेशन और सोल्जर को एक प्रोफेशनल की तरह स्थापित कर चुके थे, उस दृष्टिकोण के सामने यह संग्राम कथा वाक़ई किसी रोमांचक फ़िल्म की पटकथा से कम नहीं दिखती. गुलेल से हेलीकॉप्टर ध्वस्त कर देने या एक हंसोड़-से ग्रामवासी का अपनी सेना के लिए दुश्मन सेना से मार खाकर भी संदेश ले आना-ले जाना, जैसे क़िस्से पटकथा में रोचकता बनाये चलते हैं. पुस्तक के रूप के बारे में हिंदी में ‘रिपोर्ट’ लिखा गया है और अंग्रेज़ी में ‘ट्रैवलॉग’. भूलवश या अनजाने हुआ हो, लेकिन सच है कि यह पुस्तक दोनों शैलियों का मिश्रण है. रिपोर्ताज के पैमाने पर इसमें कमियां निकलेंगी और केवल यात्रा वृत्तांत के पैमाने पर भी. मिश्रण के रूप में यह पुस्तक उदाहरण बन जाती है.

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युद्धों के वृत्तांत या रिपोर्ताज पहले भी लिखे जाते रहे हैं. 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के संदर्भ में शिवसागर मिश्र के ‘लड़ेंगे हज़ार साल’ को भुलाया नहीं जाना चाहिए. इसका शीर्षक ही मनुष्य की ‘युद्धवृत्ति’ और ‘युद्धनियति’ का सूचक है. रिपोर्ताज को तो युद्ध की ही उपज माना गया. रेणु ने दूसरे विश्वयुद्ध के संदर्भ में धर्मयुग में ही लिखा था : “गत महायुद्ध ने चिकित्सा के चीर-फाड़ विभाग को पेनसिलिन दिया और साहित्य के कथा विभाग को रिपोर्ताज.” ‘नेपाली क्रांति कथा’ के लेखक का यह वाक्य इतना दूरदर्शी था कि फिर साहित्य में रिपोर्ताज का पल्लवन कथा शैली में होता रहा और इसमें युद्ध जैसी स्थितियों की कहानी कहना श्रेयस्कर रहा.

जब हमारी खोज प्रेम की ही होती है, तो हम कहानी युद्ध की क्यों कहते हैं? क्या शांति का मार्ग युद्ध से बचकर संभव नहीं है? ऐसे अनेक शाश्वत प्रश्न खड़े हो जाते हैं, जब हम युद्ध की किसी भी कथा या यात्रा से रूबरू होते हैं. भारती भी इस यात्रा के अंतिम पन्नों तक आते-आते युद्ध के दृश्यों से हताहत अनुभव कर एक पूरे पन्ने में लिख पाते हैं कि युद्ध किसी भी लक्ष्य के लिए हो, कोई भी करे, रक्त गाथा निर्दोष बच्चों, विवश औरतों और सभ्यता की नींव को पुख़्ता करने वाले किसानों, शिल्पियों, कामगारों की छाती पर ही लिखी जाती है. भारती जहां लिखते हैं, “किसी ने यह क्यों नहीं लिखा कि परम घृणा भी कहीं हमें अपनी घृणा के लक्ष्य से बड़े रहस्यमय ढंग से जोड़ जाती है?” या जहां वह अमानुषिक प्रवृत्ति को समझने के लिए उस विचार प्रक्रिया के भीतर न पैठ पाने की बेचैनी दर्शाते हैं, वहां ‘अंधा युग’ के भारती के उन शब्दों के दर्शन होते हैं, जो आपको हाथ पकड़कर चिंतन तक ले जाते हैं.

युद्ध पर चिन्तन की आवश्यकता हमेशा रही है, हमेशा रहेगी. और यह वाक्य लिखते हुए वह कवि मन बहुत व्यथित होता है, जो ‘जंग तो ख़ुद ही मसअला है एक, जंग क्या मसअलों का हल देगी?’ कहने का हामी रहा है. यह सच है कि युद्ध होते रहेंगे लेकिन हमें इसे भी सच बनाना होगा कि हम युद्ध के विरुद्ध आदर्शों के लिए जीवट नहीं मरने देंगे. हम कहेंगे :

तू और करता रहेगा तरह-तरह की जंग
मैं वहशतों से सौ फ़ीसद निकल भी जाऊंगा
तू सरहदों को वतन मानता रहेगा दोस्त
इधर मैं प्यार में बेहद निकल भी जाऊंगा

शेख मुजीब ने भुट्टो के उस इसरार को ख़ारिज कर दिया था कि पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच कुछ विशेष संबंध बने रहें ताकि पाकिस्तान की परिकल्पना और उसके आधार पर औचित्य का प्रश्न न खड़ा हो. यह प्रसंग भारती ने पाकिस्तान के प्रति घृणा से भरे एक भारतीय हृदय के साथ इस तरह लिखा कि मुजीब का इनकार एक सामूहिक घृणा हो या उसकी निजी विजय हो. यहां ‘कनुप्रिया’ सिरजने वाले भारती का कवि हृदय किस अवकाश पर चला गया? एक सृजनधर्मी मन और मानवीय मूल्यों के पैरोकार भाव को यहां क्यों लक़वा मार गया? बाहरी स्तर पर लड़ा जा रहा युद्ध भीतर कैसे घुसपैठ कर गया?

“कौन सा है वह उद्देश्य, लक्ष्य या धर्म, जिसके पीछे हम लड़ें? कौन सी है वह नैतिकता, जो हमें आज भी परस्पर लड़ने की आज्ञा दे सकती है?… क्यों नहीं समझता मनुष्य अपना स्वार्थ, जो सबका स्वार्थ हो?”

तब जबकि पश्चिम पाकिस्तान से बांग्लादेश की मुक्ति का संग्राम संपन्न हो चुका था, मन-हृदय मुक्त क्यों नहीं हुआ? ‘तूफ़ानों के बीच’ रिपोर्ताज में रांगेय राघव की तरह भारती ने उपरोक्त मानुषिक और प्राकृतिक प्रश्नों को तवज्जो क्यों नहीं दी? भारती की ‘युद्ध यात्रा’ इन अर्थों में महत्वपूर्ण है कि यह चिन्तन के लिए उकसाने और बहस के लिए आमंत्रित करने वाली कृति है.

गुरुवार, दिसंबर 21, 2023

सिनेमा

शैक्षिक मूल्य और हिन्दी सिनेमा


यह मूल्यों का समय है भी या केवल विकास का ही है? हर समय के अपने सच होते हैं और अपने प्रश्न. समाज, कला या जीवन... बाज़ार आपके घर ही नहीं, आपके मन-मस्तिष्क, अवचेतन तक पैठ चुका, तब आप मूल्यों के प्रश्न खड़े करना ही चाहते हैं. सिनेमा क्या, अन्य अधिकतर क्षेत्रों की तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी 'अवमूल्यन' स्थापित सत्य है. शिक्षा का बाज़ार बड़ा है. विमर्श जारी हैं, छिटपुट प्रयास भी. शिक्षा नीति में जब तक मूल्य के बजाय प्रणाली, सरकारी तथ्यों (कंटेंट) और उपकरणों को ही तरजीह मिलेगी, चिंताएं तो रहेंगी.


Satyakam Movie Still Credit youtube

"अब कोई कहता है कि देश विकसित हो रहा है, तो कहता है कि मशीनें इतनी आ गयीं.. हम पूछते हैं आदमी कितना अच्छा हुआ? कोई बताता नहीं, कैसे बताएगा क्योंकि आदमी तो अच्छा हुआ नहीं ना!"

एक साक्षात्कार में महादेवी वर्मा जी द्वारा जतायी गयी यह चिंता 35 साल बाद भी कितनी समीचीन है. अब सवाल यह है कि क्या शिक्षा तंत्र की कोई उपलब्धि नहीं रही? तुरंत मन में दर्शन, विज्ञान, गणित, तकनीक, कला आदि क्षेत्रों के कई महापुरुषों के नाम आ जाएंगे और दावा कि भारतीय शिक्षा ढांचे ने ही ये उत्पाद दिये. समझने की बात यह है कि एक लंबी उम्र में सुख और गौरव के कुछ क्षण तो होते ही हैं, मूल्यांकन एवं विमर्श समग्र पर होता है.

यही कसौटी हिन्दी सिनेमा के लिए भी है. तक़रीबन 100 साल की उम्र वाले हिन्दी सिनेमा में मूल्यपरक तस्वीरें कितनी बनीं या उनका हिस्सा कितना रहा? हिन्दी सिनेमा में कुछ ही सही, यक़ीनन सार्थक श्रेणी के चित्र बने हैं. इधर बाज़ार, मूल्यहीनता और सस्ते मनोरंजन की ज़बरदस्त गिरफ़्त में रहने के आरोप हमेशा इस उद्योग पर रहे हैं. महात्मा गांधी की तीखी प्रति​क्रिया के कारण भी संभवत: यही थे. जब बोलती फ़िल्मों की शुरूआत को एक दशक भी पूरा नहीं हुआ था, तब गांधी ने सिनेमा को सामाजिक बुराई कहकर सिरे से ख़ारिज कर दिया था. तब कुछ जागरूक फ़िल्मकार सिनेमा के पक्ष में खड़े हुए थे.

"सिनेमा एक कला है, अभिव्यक्ति का एक माध्यम है इसीलिए कुछ (या अधिकांश) फ़िल्मों के आपत्तिजनक होने के कारण इसकी निंदा करना उचित नहीं है. आख़िरकार, किताबों की निंदा इसलिए नहीं की जा सकती कि उनमें पोर्नोग्राफी के ग्रंथ भी शामिल हैं."

ख़्वाजा अहमद अब्बास ने खुली चिट्ठी में गांधी जी से सिनेमा के प्रति उदारवादी रवैया अपनाने की गुज़ारिश करते हुए पुरज़ोर तर्क देकर सिनेमा की संभावनाएं बतायी थीं. इस चिट्ठी में अब्बास ने कुछ अमेरिकी और भारतीय फ़िल्मों का उल्लेख कर दावा किया था कि 'ये कठोरतम नैतिक मानदंडों के लिहाज़ से भी अद्वितीय फ़िल्में' रहीं. मूल्यों के मानदंडों पर अगर सिनेमा को याद कीजिए तो वी. शांताराम, अब्बास और बिमल रॉय जैसे फ़िल्मकारों के कई चित्र सामने रील की तरह चलने लगते हैं.

एक स्त्री के स्वयं के उद्धार की कहानी (सामाजिक मुद्दों को छूते हुए) के रूप में 'आदमी' रही हो या एक बूढ़े से ब्याह दिये जाने के बाद एक किशोरी का रूढ़ि विरोध दर्शाने वाली 'दुनिया न माने' हो, जाति व्यवस्था की सामाजिक रूढ़ि को चुनौती देती 'अछूत कन्या' हो या ईमानदारी के मूल्य को स्थापित करने वाली 'परख' हो... शुरूआती दौर से ही सिनेमा निर्माण का एक बड़ा वर्ग व्यवसाय को तरजीह भले दे रहा था, लेकिन उपर्युक्त फ़िल्मों ने एक समानांतर धारा बनाने का बीड़ा उठाया था, जिसका कारवां किसी रेस में शामिल हुए बग़ैर अपनी गति से चलता रहा. कभी बहकते, कभी दहकते तो कभी महकते हुए.

गांधी के नाम ख़्वाजा अहमद अब्बास का पत्र. Credit Google

शैक्षिक मूल्यों को स्थापित करने वाली फ़िल्में बेशक और बननी चाहिए थीं लेकिन बाज़ार की दौड़ में मुनाफ़े के चक्र हावी रहा. जिससे सर्जरी की संभावना थी, सिनेमा के उस माध्यम को केवल एनिस्थीसिया बनाकर छोड़ दिया गया.

शिक्षा और सिनेमा विषय आधारित लेख में जयप्रकाश चौकसे जी लिखते हैं, "असली चिंता की बात यह है कि हमारी शिक्षा भी अमेरिकन प्रणाली से प्रेरित है.. अब शिक्षा अच्छा मनुष्य नहीं, सफल आदमी रच रही है". प्रकारान्तर से महादेवी को दोहराते इस सूत्र से समझना चाहिए कि शिक्षा ही नहीं, विकास की भारत की अवधारणा ही पश्चिम से प्रेरित है. अच्छे मनुष्य बनाम सफल आदमी का रूपक यही है कि भारत में कलात्मक या उपयोगी नहीं, 'कमाऊ' सिनेमा रचा जा रहा है. विडंबना क्या है? 'अच्छा' व्यवस्था में 'कमाऊ' नहीं है.

शिक्षा संबंधी सिनेमा विषय पर लेखों को खोजें तो ढेर सारी फ़िल्मों के नाम मिलते हैं, शांताराम निर्मित फ़िल्म 'बूंद जो बन गयी मोती', सत्येन बोस निर्देशित 'जागृति', भालेराव पेढारकर की फ़िल्म 'वंदे मातरम आश्रम' से लेकर प्रकाश झा निर्मित 'आरक्षण' जैसी फ़िल्मों की चर्चा चौकसे जी करते हैं. अन्य लेखों में इम्तिहान, ब्लैक, तारे ज़मीन पर, थ्री इडियट्स, मुन्नाभाई एमबीबीएस, निल बटे सन्नाटा जैसी फ़िल्मों तक का उल्लेख मिलता है, जो बेशक सार्थक ​फ़िल्में हैं.

महत्वपूर्ण यह समझना है कि शिक्षा जगत से जुड़े संदर्भ, पात्र या विषय कई फ़िल्मों में रहे हैं, हो सकते हैं, लेकिन शैक्षिक मूल्यों की थीम किन फ़िल्मों की रही है. शैक्षिक मूल्यों के लिए उस सिनेमा की ओर देखना होगा, जो श्रेष्ठ मनुष्य-श्रेष्ठ समाज की कल्पना/विचारभूमि पर खड़ा हो. ऐसी शिक्षा जो युद्धभूमि में आकर परीक्षा दे सके और ऐसा सिनेमा जो 'युद्धकाल' में शिक्षित होने के लिए प्रेरणा बन सके.

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'सत्यकाम', नारायण सान्याल के उपन्यास पर ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित यह फ़िल्म शैक्षिक मूल्य के लिहाज़ से अव्वल दर्जे की कही जानी चाहिए. यह उस विचार को केंद्र में रखती है, जहां से कोई सत्यजीवी पैदा हो सकता है. इसी संबंध में, वी. शांताराम की कालजयी फ़िल्म 'दो आंखें बारह हाथ' को याद किया जाना चाहिए. कहानी भले एक क़ानूनी प्रयोग की हो, इसकी मूल भावना में विचार और संदेश निहित हैं. कैसे एक जेलर कुछ अमानुषों को मनुष्य बनाता है, इस तरह के शिक्षा मूल्यों की खोज निरंतर करनी होगी, शोध के ज़​रीये उसका विषय विस्तार भी.

मुझे याद है बचपन में, साल में एक बार फ़िल्म दिखाने के लिए स्कूल की तरफ़ से टॉकीज़ ले जाया जाता था. तब जो फ़िल्में दिखायी जाती थीं, वो तथाकथित बाल फ़िल्में होती थीं. बालकों को मनोरंजन सुलभ हो और कोई संदेश मिल जाये, इसका भी ध्यान फ़िल्म चयन के समय स्कूल रखता था. इस पूरे अभ्यास में शैक्षिक मूल्य का कोई ध्येय सिद्ध हुआ हो! मुझे ख़याल नहीं. यह ख़याल करना तो होगा क्योंकि अब तो टीवी, वीडियो, ओटीटी, ऑनलाइन कंटेंट से जुड़े शिक्षा ढांचे में फ़िल्म और अधिक प्रासंगिक है.

शिक्षा पर विमर्श, सिनेमा पर विमर्श समय के साथ विकसित हुए हैं, तो बाज़ार से छुटकारे की ओर क़दम उठाने होंगे. 'विकास के राजनीतिक नारे' से इतर बेहतर मनुष्य के विमर्श पर ऊर्जा लगानी होगी. बेहतरी के लिए मूल्य चुकाने होंगे. फिर बक़ौल महादेवी, "राजनीति शक्ति चाहती है, त्याग नहीं. कर्तव्य से जो मिलता है वह महत्व का है."

(यह वक्तव्य वेब पत्रिका शब्द सृष्टि के फरवरी 2022 अंक में प्रकाशित हुआ था.)

व्यंग्य

साहित्य का 'लूडो'


ऐसे तो लूडो एक indoor खेल रहा, लेकिन इस 'तकनीकिया' दौर में कहीं भी खेलिए, क्या indoor, क्या outdoor! आप किसी साहित्य सम्मेलन में खुद को outsider पा रहे हैं, तो वहीं खुद को एक जज़ीरा बनाकर अपनी हथेली से ही आप outreach हो सकते हैं! मंज़र देखिए कि आप हथेली पर अपने दोस्तों के साथ लूडो खेल रहे हैं और ध्यान ही नहीं है कि आपकी आंखों के सामने साहित्य का लूडो कैसे खेला जाता है!


Dices Image Credit : gotpoem via google search

देखिए, चौकोर बिसात वाले लूडो में चार ख़ेमे होते हैं : लाल, पीला, हरा, नीला (इसे झंडों वाली विचारधाराओं का प्रतीक न समझें, ख़ामख़ा कसरत होगी). चारों ख़ेमों में चार-चार गोटियां होती हैं. हर ख़ेमे की गोटियां अपनी चाल अलग चलते हुए अपने वर्ग के मोहरों को सपोर्ट भी करती चलती हैं और दुश्मन ख़ेमों के वर्गों को पीटती हुई भी (इसे मार्क्सवादी वर्ग संघर्ष की परिकल्पना न समझें तो मामला सुलझा रहेगा). सबके अपने रास्ते हैं, जो आपस में कहीं टकरा भी जाते हैं और अपने-अपने रास्तों से सबकी अपनी-अपनी मुक्ति (सांप्रदायिक दुनिया का रूपक न समझें, तो चैन मिलेगा) भी है.

इतना global खेल है, तो साहित्य इससे अछूता क्यों रहे? साहित्य के लूडो की अपनी बिसात है, अपने ख़ेमे हैं, अपने वर्ग और वर्ग संघर्ष. बड़ा दिलचस्प खेल नज़र आता है. कौन सा लाल है, कौन सा पीला...? ख़ैर, बताये क़ाएदे के मुताबिक़ साहित्य के लूडो की कथा का श्रीगणेश करते हैं, बोलिए : ॐ इद‌मान्नं, इमा आपः इद‌म‌ज्यं, इदं ह‌विः, ॐ य‌ज‌मान‌, ॐ पुरोहित, ॐ राजा, ॐ क‌विः...

'पट्टेदार' से बिस्मिल्लाह करते हैं. साहित्य के लूडो में इस ख़ेमे का आकर्षण वैसा ही है, जैसे बच्चे लूडो खेलते वक्त 'मेरी लाल, नहीं मेरी लाल गोटी' करते हैं. यहां पहला वर्ग शैक्षणिक सिस्टम का है. जैसे कुलवाद है कि अगर आप रीडर, लेक्चरर, प्रोफेसर हैं (इंग्लिश विभाग के हिंदी या उर्दू साहित्यकार की औक़ात बढ़ जाती है) तो साहित्यकार होंगे ही. यूनिवर्सिटी के संचालक या कुलपति हो गये तो महान साहित्यकार होना पड़ता है.

दूसरा वर्ग बाइज़्ज़त मठाधीश है. यहां वो विशिष्ट आबादी होती है, जो प्रकाशन, प्रचार, पहुंच, पुरस्कार और मूल्यांकन जैसे तमाम घोड़ों की लगाम अपने हाथ में रखती है. कोई बड़ा-सा साहित्यिक क़िला इनकी बपौती होता है. इन्हें अक्सर 'दादा' जैसे संबोधनों से पुकारा जाता है, लेकिन ये अंडरवर्ल्ड के 'भाई' जैसे होते हैं. तीसरा वर्ग अकादमी वालों का होता है. यहां साहित्यकार का सरकारी पालन पोषण तो होता ही है, बग़ैर इनके नवाज़े कोई भी साहित्यिक मुश्किल से बड़ा हो पाता है.

इस ख़ेमे की चौथी गोटी साहित्यिक पत्रिकाएं या किताबें छापती है. छोटी-मोटी संस्थाएं बना लेती है. ये ज़्यादातर 'स्वयंभू' श्रेणी होती है. वैसे यह शब्द कइयों को अपनी आग़ोश में लेता है. साहित्य के लूडो में पट्टेदार ख़ेमा ज़्यादातर group game खेलता है और जीत सुनिश्चित रखता है, कैसे? सिर्फ़ समझना पड़ता है क्योंकि यह बताने वाले को पाप लगता है. बोलिए : ॐ अंगीक‌रण, शुद्धिक‌रण, राष्ट्रीक‌रण, ॐ मुष्टीक‌रण, तुष्टिक‌रण‌, पुष्टिक‌रण...

अगर कविता या कहानी की किताब album ज़्यादा नज़र आये या फिर सोने चांदी के बेलबूटे हों, तो समझिए बात 'मालदार' ख़ेमे की है. इस ख़ेमे के साहित्यकारों को हर उस शख़्स ने महान बताया होता है, जिसके autograph के लिए आप मन्नतें करते हैं. इस ख़ेमे के पहले वर्ग में स्वाभाविक तौर पर व्यापारी, उद्योगपति, फाइव स्टार अस्पताल या इंस्टीट्यूट चलाने वाले सभी पुण्य प्रतापी समाजसेवी शामिल होते हैं.

दूसरा वर्ग अफ़सरों का होता है. ख़ास वो होते हैं, जिनके रिटायर होने में लंबा वक़्त हो. ये जिस दिन साहित्य का सफ़र शुरू करते हैं, उसके अगले दिन सा​हित्यिक सम्मेलनों की अध्यक्षता बाहैसियत वरिष्ठ साहित्यकार करते पाये जाते हैं. प्रकारान्तर से इस वर्ग में प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टर, इंजीनियर, सीए जैसे कुशल नामदार भी जुड़ते हैं. नेता वर्ग में रेंज और वैरायटी होती है. गांव-कस्बे में सरपंच से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्रियों तक इस गोटी का​ विस्तार है. इनके भव्य 'साहित्य' के साथ 'मीन काम्फ' ओह सॉरी यानी 'मेरी कहानी' bestseller और चर्चित जैसे मार्केटिंग शब्द जुड़े होते हैं.

लूडो की पहुंच देखिए! वैसे खेल है तो एक गोटी तो अखाड़े की होना ही चाहिए. मालदार ख़ेमे में बाबा, स्वामी, पीर, हज़रत टाइप शब्दों से पुकारे जाने वाले दिव्य साहित्यकार लूडो को ग़ज़ब आध्यात्मिकता से सराबोर करते हैं. इनका संदेश यही होता है 'न कोई गोटी पिटती है, न कोई पीटती है, गीता उठाकर देखिए, हर कविता पहले से लिक्खी है!' बोलिए : ॐ डॉल‌र, ॐ रूब‌ल, ॐ पाउंड, ॐ साउंड, ॐ साउंड, ॐ साउंड...

कालजयी, award winning, चमत्कारी और स्थापितों की दुनिया के साथ संघर्ष की दुनिया भी है, तभी तो खेल रोमांचक है. 'दावेदार' ख़ेमे में पहला दावा पत्रकार पेश करते हैं. क़लमजीवी होते हैं, तो पैरेलल साहित्य जगत खड़ा करने का शौक़ इन्हें होता है. साहित्य को मंच देना कर्तव्य होता है, तो चुपके-से ख़ुद भी चढ़ जाते हैं. ये सूचनात्मक और खोजी साहित्य के हामी होते हैं पर साहित्यकार होने का नुस्ख़ा कभी-कभी ही खोज पाते हैं.

दूसरी कलाओं से जुड़े नामों की अपनी एक गोटी है. ख़ास तौर से​ फ़िल्मी दुनिया में 'दो मिनट की शोहरत का तामझाम' रखने वाले साहित्य की दुनिया में अमिट छाप छोड़ने के लिए कोई भी जोड़-तोड़ करने से नहीं चूकते. संघर्ष तो उनका भी कम नहीं जो लोहे-लकड़ी पर सफ़ेद चादर चढ़े मंचों से काग़ज़, क़लम, दवात वाले मंचों पर दलील पेश करते हैं. चूहे-बिल्ली वाला खेल ये है कि श्रोता वाली गोटी के पास पाठक, तो पाठकों वाली गोटी के पास श्रोता न पहुंचे, यह अंतर्युद्ध चलता है.

संघर्ष करने वाली एक गोटी असंगठित क्षेत्र की है. ये अचानक कहीं से भी प्रकट हो जाते हैं और कहते हैं कि साहित्य के लूडो में हम भी पांसा फेंकेंगे. दावेदार अस्ल में, एक तरफ लूडो के रोमांच को नये मोड़ देते हैं, तो दूसरी तरफ़, कमोबेश safe point या गोटी डबल करने की जुगत में दिखते हैं. बोलिए : ॐ गुट‌निरपेक्ष, स‌त्तासापेक्ष जोड़‌-तोड़‌, ॐ छ‌ल‌-छन्द‌, ॐ मिथ्या, ॐ होड़‌म‌होड़...


अब जो बचा हुआ ख़ेमा है, उसके नाम के साथ 'दार' प्रत्यय जुड़ता नहीं है क्योंकि फ़ितरतन ये सब कुछ disown करने वाले होते हैं. बेशक, पहली गोटी का नाम नैसर्गिक उर्फ़ क़ुदरती है. ये जन्म घुट्टी में ही पद्य या गद्य पिये होते हैं. इन्हें तारीफ़ें तो हर जगह भरपूर मिलती हैं, लेकिन और कुछ के लिए मुक़द्दर भरोसे होते हैं.

इस ख़ेमे का दूसरा और तीसरा वर्ग बाक़ी ख़ेमों से बनता है. जिन्हें अपने ही आगे न आने दें, वो... और जो अपने वर्ग में अपवाद हों, वो इस ख़ेमे में विनम्र भाव से रहते हैं. चौथी गोटी सूफ़ी, संत और फ़कीर टाइप नामों से जानी जाती है. भव्यता, दिव्यता, भौतिकता से परे इस गोटी के खुलने की नौबत ही बहुत कम आ पाती है. इस ख़ेमे में दो प्रमुख लक्षण हैं : अव्वल तो यह दुनियावी ढंग से 'कुशल' व 'practical' नहीं होता. दूसरा, साहित्यकार को ज़िंदा रहने के लिए कुछ काम करना ही होता है, तो यह ख़ेमा सोये किसी के भी साथ, इसका ख़्वाब और सुब्ह साहित्य ही होता है.

इस ख़ेमे का कोई नाम या रंग नहीं है, फिर भी आप चाहें तो जानदार, बेदार या हक़दार जैसा नाम सोच सकते हैं. राज़ यही है कि यह ख़ेमा खेल में रहते हुए भी खेल के मोह में नहीं रहता. या तो यह ध्यानमग्न रहता है या फिर खरा-खरा बोलने में क़तई हिचकता नहीं. बाज़ी जो भी हो, इसकी मुक्ति तय होती है. बोलिए : ॐ ध‌रती, ध‌रती, ध‌रती, व्योम‌, व्योम‌, व्योम‌, व्योम‌... ह‌रिः ॐ त‌त्स‌त, ह‌रिः ॐ त‌त्स‌त।।

लूडो का मूल नियम है कि अलौकिक, प्रतिस्पर्धी या निर्मोही, किसी भी अखाड़े की कोई भी गोटी हो, खुलती तभी है जब पांसे में 'छह' आये. विडंबना यह है कि अब तो निल बटे सन्नाटे भी लूडो के माहिर हैं. 'तकनीक' और 'बाज़ीगरी' से अक्सर नियमों की धज्जियां ऐसे उड़ती हैं कि 'game-over' हो जाता है. ख़ेमों की नफ़रत और ताक़त की सियासत का खेल ऐसा हो जाता है कि इस लूडो में साहित्य ही 'outsider' नज़र आता है.

(यह व्यंग्य देवास से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका अर्बाबे-क़लम में 2021 में प्रकाशित हुआ था.)

आलेख

बजट भाषण में 'कविता' के सियासी कारण


यह लेख आम बजट 2021 के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया था, जो भोपाल से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्रों देशबंधु और सुबह सवेरे के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था. इस लेख से एक विमर्श पैदा हुआ. उसी 3 फरवरी को एक फेसबुक लाइव पर इसे लेकर चर्चा भी हुई थी, वह भी आप यहां नीचे दी गयी तस्वीर पर क्लिक करके पॉलिटिकल पांडे के फ़ेसबुक पेज पर देख सकते हैं.



मुक्तिबोध साहित्यिकों के साथ आपसी चर्चाओं में अक्सर कहा करते थे 'तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर?' तब इसे दोस्ताना मिज़ाज में एक कवि का गंभीर प्रश्न समझा जाता था. अब? कवियों की सियासत एक अलग बात है, लेकिन सियासी उल्लू सीधा करने के लिए 'कविता' को टूल बनाना एक अलग प्रोपैगैंडा है. 1 फरवरी 2021 को भारतीय संसद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण जी ने बजट भाषण का आगाज़ रबींद्रनाथ ठाकुर की कविता से किया. लेकिन ख़बर के पीछे गूंज इस सवाल के जवाब में छुपी है कि रबींद्रनाथ की ही कविता क्यों चुनी गयी?

यह सवाल अटपटा न लगे इसलिए ज़रा अपनी याददाश्त पर ज़ोर डालिए. निर्मला जी के पिछले दो बजट भाषणों के टेप मिल जाएंगे, सुनिए. पहले भी निर्मला जी भाषण में काव्य पंक्तियां बख़ूबी पिरोती रही हैं. बजट भाषणों में तक़रीबन आधा दर्जन बार कविताएं कोट कर चुकीं निर्मला जी पहले कभी 'रबींद्रनाथ टागोर' से शब्द उधार लेने नहीं गयी थीं. और पहले जिनसे, जो शब्द उधार ले रही थीं, तब क्या उनकी ज़रूरत नहीं थी?

इस बार बजट भाषण में रबींद्रनाथ की कविता आना बहुत स्वाभाविक था ही. आपने ग़ौर से देखा हो तो भाजपा को पिछले कुछ महीनों से रबींद्रनाथ इस क़दर याद आ रहे हैं कि कहीं नाथूराम गोडसे की याद का रिकॉर्ड न टूट जाये! यहां तक कि निर्मला जी के रबींद्र काव्य संदेश पाठ के दौरान लग रहा था जैसे गुरुदेव स्वयं किसी छद्म छवि में वहां विराजमान हों! सोशल मीडिया पर आप इस छवि के बारे में 'भेस धरे टैगोर का...' जैसे सुसंस्कृत काव्य भी पा सकते हैं. तो, यह कहना क्या ज़रूरी है कि किस विश्व भारती, किस विश्वरूप और किस निजविश्व के मुहावरे किस तरह गढ़े जा रहे हैं...

चर्चा यह समीचीन है कि लोक की एक साइकी होती है, जिसे बनाया भी जाता है और जिसमें घर भी किया जाता है. 'राम-राम' जपने से पाप धुलें या नहीं, लेकिन यह भ्रम ज़रूर पैदा किया जा सकता है कि जाप करने वाला साधु ही है. इसे मनोविज्ञान में आप मॉब साइकोलॉजी और इनसेप्शन जैसे​ सिद्धांतों से समझते हैं और समाज के राजनीति शास्त्र में हिटलरी सिद्धांतों से. इसी सैद्धांतिक ज़मीन से आधार को बल देने के लिए कई किस्म के बयान दिये जाते रहे हैं. वित्तीय मामलों में जब कविता का आश्रय लिया जाये, तो सजग पाठक को कान खड़े रखना चाहिए क्योंकि लक्ष्मी और सरस्वती का समवेत स्वर स्वाभाविक नहीं होता.

निर्मला जी के पिछले बजट भाषण भी समय, पार्टी की निजी ज़रूरत और छवि निर्माण के अनुरूप ही काव्योक्तियां चुनते रहे हैं. आपको याद करने या तलाशने का कष्ट न हो इसलिए यहीं देखिए :

हमारा वतन फले-फूले शालीमार बाग़-सा
हमारा वतन डल झील में खिले कंवल-सा
नौजवानों के गर्म लहू जैसा
मेरा वतन, तेरा वतन, हमारा वतन
दुनिया का सबसे प्यारा वतन

यह काव्यांश दीनानाथ नदीम से निर्मला जी ने उधार लिये थे. 2019 में केंद्र सरकार ने कश्मीर को छोटा-सा केंद्रशासित प्रदेश बना दिया था. ऐसा करने के लिए हज़ारों वर्दीधारी कश्मीर में तैनात किये गये थे. यही नहीं, तबसे वहां संचार और सूचनाओं पर जो नियंत्रण किया गया, सो अब तक लगातार बहाल नहीं हुआ. उन पूरे संदर्भों को ध्यान में रखते हुए आप समझिए कि 2020 में निर्मला जी ने कश्मीरी कवि के शब्द क्यों चुने थे!


नदीम साहब 20वीं सदी के रिवायती कवि थे. साहित्य अकादमी से सम्मानित नदीम साहब 1988 में इंतक़ाल फ़रमा गये थे. पंडितों को खदेड़े जाने, आतंकवाद पनपने और उसके बाद की अस्थिर व अत्याचारी फ़िज़ा 1990 के आसपास से कश्मीर की पहचान बनती जाती है. तो नदीम सा​हब उस कश्मीर के थे ही नहीं, जिसे हम आज जानते हैं. फिर 2020 में उस कश्मीर की कविता को किसी भाषण में लाना, जिसे 40-50 बरस पहले किसी कवि ने किसी ख़ुशगवार पल में कलमबंद किया हो, क्या मायने रखता है?

यह एक आत्मरति है. समकालीन कश्मीरी काव्य उठाकर देखिए, न आंख से ख़ून निकल पड़े तो आप पत्थर. लेकिन पत्थरों की हक़ीक़त में कंवल की याद या तो सब्ज़बाग़ होती है या दुख. आत्मगौरव और इतिहास का सिर्फ़ वो रुख़ दिखाने का टूल होता है, ​जो आपकी नज़र के अनुकूल है. इसी 'अनुकूल' को निर्मला जी के भाषणों में बार-बार आवाज़ मिलती रही है.

यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
हवा की ओट भी लेकर चराग़ जलता है

दीनानाथ कौल नदीम का नाम लेकर उनकी कविता कोट करने वाली निर्मला जी ने 2019 में जब बजट भाषण में यह शेर पढ़ा था, तब शायर का नाम नहीं बताया था. बदायूं में पैदा हुए, हल्दवानी में पढ़े और अलीगढ़ में पढ़ते-पढ़ाते रिटायर हो गये मंज़ूर हाशमी का नाम भाषण में नहीं आया था. यक़ीनन भाषण में यह नाम 'अनुकूल' वाली फ़िलॉसफ़ी के दायरे में नहीं था.

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पिछले दोनों भाषणों में निर्मला जी तमिल साहित्य को भी कोट करती रही हैं. 'निर्मला उवाच' में प्राचीन कवि थिरूवल्लूवर का प्रसंग भी बहुत रोचक और सामयिक है. प्राचीन तमिल दार्शनिक और कवि के ग्रंथ थिरूकुरल से इन अंशों को कोट करते हुए निर्मला जी ने एक आदर्श देश की कल्पना बताई थी :

'पिन्नी इन्मय, सेल्वम, विलइवु, इन्बम, एमम... यानी देश को बीमारियों से मुक्त रहना चाहिए, संपन्न होना चाहिए, कृषि में उन्नति, सुख व आनंद, और सुरक्षा समुचित होना चाहिए.'

समय पर ध्यान दें, 1 फरवरी 2020 के भाषण में यह कोट था. वैश्विक महामारी का पहला केस भारत में आ चुका था. उसके बाद तो... मौजूदा और हालिया स्थितियों के मद्देनज़र भी आप इस सिद्धांत के पैमाने पर देश की उन्नति के लिए सरकार को आंक सकते हैं. बहरहाल, यह सूत्र बताने के बाद तुरंत निर्मला जी ने इस तरह​ के दावे भी कर दिये थे कि 'महामहिम प्रधानमंत्री जी' के नेतृत्व में देश ने यह चरम आदर्श पा लिया और हाथी निकलने के बाद जो पूंछ रह गयी है, वो तो चुटकी बजाने की बात है. इसके बाद, समझदार गूगल सर्च इस तरह की खबरें बता रही थी कि निर्मला जी ने अपने भाषण में महामहिम का नाम कितनी बार लिया.

कालिदास ने कहा था : 'जैसे सूरज पानी से वाष्प लेता है और फिर वर्षा के तौर पर लौटाता है, वही धर्म राजा का है.' टैक्स के संदर्भ में इसे भी निर्मला जी ने कोट किया था. यहां कुछ विचार बिंदु हैं, जिन्हें छोड़िएगा मत. कालजयी और लोक काव्य के रचयिता कालिदास राजकवि भी थे, यह भूलना नहीं चाहिए. दूसरे, राजतंत्र के आदर्श को लोकतंत्र में क्या 'जस का तस' अंगीकार किया जाना चाहिए? तीसरे, जनता की दृष्टि राज्य के लिए जो हो, ​लेकिन जब आप स्वयं की तुलना राजा से कर रहे होते हैं, तो लोकतंत्र में विश्वास कितना रह जाता है?

'राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट...' साइकी को समझना होगा. सजग श्रोता, ख़बरदार पाठक और जागरूक नागरिक की तरह सुनना, पढ़ना और बोलना होगा. यह सवाल करते रहना होगा कि 'इस लोकतंत्र में तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर?'